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26 हफ्तों के भ्रूण के गर्भपात को लेकर चल रहा केस क्या है जिस पर सुप्रीम कोर्ट के जज बंट गए हैं?

27 साल की महिला, 26 हफ्ते का गर्भ और सुप्रीम कोर्ट में दो महिला जजों के बीच मतभेद. सीजेआई चंद्रचूड़ क्या बोले?

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Supreme Court on 26 week pregnancy.
बाएं से दाएं- जस्टिस हीमा कोहली, चीफ़ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस बी वी नागरत्ना (फ़ोटो - आजतक)
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सोम शेखर
13 अक्तूबर 2023 (Updated: 14 अक्तूबर 2023, 11:20 IST)
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- एक जज ने फ़ैसला सुनाया: भ्रूण मां से अलग नहीं है. अगर महिला अपना गर्भ गिराना चाहती है, तो उसके फ़ैसले का सम्मान किया जाना चाहिए.

- दूसरे ने टिप्पणी की: कोई भी अदालत ये नहीं कहेगी कि जिस भ्रूण में जान हो, उसकी धड़कनें छीन लो.

- निपटारा नहीं हुआ, तो मुख्य न्यायाधीश ने कहा: क्या आप चाहते हैं कि हम एम्स के डॉक्टरों से कहें कि वो भ्रूण को मार दें? हम बच्चे को नहीं मार सकते.

एक शादीशुदा महिला ने अपने 26 हफ़्ते के गर्भ को गिराने के लिए अदालत में अर्ज़ी लगाई. अलग-अलग कोर्ट्स, जजों के विवेक और केंद्र सरकार की आपत्ति से होते हुए ये केस अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है. बीते रोज़, इसी केस में CJI चंद्रचूड़ की सदारत में तीन जजों ने मामले में सुनवाई की. आज, 13 अक्टूबर को अदालती बहस जारी है.

'24 महीने तक प्रेग्नेंसी पता नहीं चली'

लाइव लॉ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, महिला का पक्ष ये है कि वो शारीरिक, मानसिक या आर्थिक रूप से अवांछित गर्भ को जारी रखने के लिए तैयार नहीं है. इसीलिए अदालत से गर्भ गिराने की इजाज़त चाह रही है. महिला 27 साल की है और उनके दो बच्चे हैं. अपनी याचिका में उन्होंने बताया कि पहले की दो डिलीवरी सी-सेक्शन थीं और वो तीसरे के लिए तैयार नहीं हैं. वो और उनके पति दो बच्चों के साथ संतुष्ट हैं. अपने दूसरे बच्चे के जन्म के बाद से उन्होंने LAM (लैक्टेशनल एमेनोरिया मेथड) तक अपना लिया था. 

कुछ महिलाओं के लिए प्रसवोत्तर अवधि - जन्म देने के बाद -  गर्भावस्था को रोकने का एक प्राकृतिक तरीक़ा है, लैक्टेशनल एमेनोरिया मेथड (LAM). ये नई-नई मां बनी महिलाओं के लिए मासिक धर्म को टालने और गर्भवती होने की संभावना को कम करने का एक तरीका है. दरअसल, स्तनपान ओवरीज़ से अंडे के रिलीज़ को रोक सकता है क्योंकि गर्भावस्था के लिए अंडे का रिलीज़ होना ज़रूरी है. हालांकि, ये कोई पुख़्ता तरीक़ा नहीं है और समय के साथ कम प्रभावी होता जाता है.

याचिका के मुताबिक़, इस वजह से महिला को उसकी प्रेग्नेंसी का भान नहीं हुआ. जब पता चला, तो उन्होंने गर्भपात के लिए कई डॉक्टर्स से संपर्क किया. लेकिन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी ऐक्ट (MTP Act 1971) के तहत वैधानिक बाधा है. इसके चलते किसी भी डॉक्टर ने अबॉर्शन करने से मना कर दिया. MTP Act कहता है कि 20 हफ़्ते तक महिला को गर्भपात का अधिकार है. यौन उत्पीड़न या अनाचार से पीड़ित महिलाओं, नाबालिगों, शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग महिलाओं या वैवाहिक स्थिति में बदलाव जैसे कुछ विशेष केस होते हैं, जिनमें दो डॉक्टर्स की राय पर 24 हफ़्तों तक का समय भी दिया गया है. अगर 24 हफ़्ते भी बीत गए हैं, तो केवल मेडिकल बोर्ड की सलाह पर ही गर्भपात करवाया जा सकता है.

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6 अक्टूबर को महिला AIIMS में एक मेडिकल बोर्ड के सामने पेश हुई. तब भ्रूण 25 हफ़्ते और 5 दिन का था. बोर्ड ने रिपोर्ट सौंपी, कि गर्भपात पर फिर से विचार किया जाना चाहिए क्योंकि बच्चा पैदा हो सकता है और उसके सर्वाइव करने की पूरी संभावना है.

9 अक्टूबर को केस सुप्रीम कोर्ट की दो महिला जजों - जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस बी.वी. नागरत्ना - की बेंच के सामने आया. बेंच ने महिला को गर्भपात की अनुमति दे दी. लेकिन अगले ही दिन केंद्र सरकार ने इस केस में एक आवेदन दायर किया, कि आदेश वापस लिया जाए. केंद्र सरकार की तरफ़ से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने तर्क दिया कि अदालत को अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार की रक्षा करने पर विचार करना चाहिए. फिर 11 अक्टूबर को जस्टिस कोहली और जस्टिस नागरत्ना की बेंच ने एक स्प्लिट-वर्डिक्ट दिया. इसके बाद ही इसे देश के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच को रेफ़र कर दिया गया.

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अपने फ़ैसले में जस्टिस कोहली का कहना था कि उनका न्यायिक विवेक इस अर्ज़ी को स्वीकारने की इजाज़त नहीं देता क्योंकि कोई भी अदालत ये नहीं कहेगी कि जिस भ्रूण में जान हो, उसकी धड़कनें छीन लो. वहीं, जस्टिस नागरत्ना सहमत नहीं थीं. उन्होंने कहा कि भ्रूण और मां की पहचान अलग नहीं होती. मां के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य पर ख़तरा होने के बावजूद उसका प्रेग्नेंसी रखना जोख़िम से भरा होगा. रीप्रोडक्टिव हेल्थ के अधिकार में गर्भपात का अधिकार भी शामिल है. और इसीलिए महिला को गर्भपात का हक़ न देना, संविधान के अनुच्छेद-21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) और 15-(3) (महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की राज्य की शक्तियां) के विपरीत होगा.

जीवन बनाम चुनने की आज़ादी

दोनों पक्ष एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं. और, दोनों टिप्पणियां जिस बहस के इर्द-गिर्द हैं वो देश-दुनिया की एक बड़ी बहस का हिस्सा है: pro-life vs. pro-choice – जीवन बनाम चयन की आज़ादी. गर्भपात से जुड़ा लंबे समय से चला आ रहा विवाद. इसका मूल प्रश्न यही है कि एक महिला के गर्भपात के अधिकार और अजन्मे भ्रूण के जीवन के बीच किसको तरजीह दी जाए?

प्रो-लाइफ़ के पक्षधरों का तर्क है कि जीवन गर्भाधान से शुरू होता है और इसलिए अजन्मे भ्रूण को भी जीवन का मौलिक अधिकार है. वो गर्भपात को वैध बनाने का विरोध करते हैं और मानते हैं कि अजन्मे बच्चे के अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य को इसे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. गर्भपात के विकल्पों - जैसे गोद लेना - को बढ़ावा दिया जाना चाहिए.

वहीं, प्रो-चॉइस समर्थकों का कहना है कि एक महिला को अपने शरीर से जुड़े निर्णय लेने का पूरा अधिकार है. वो प्रेग्नेंसी रखना चाहती है या नहीं -- ये उसका चयन है. वो गर्भपात के अधिकार को महिला की शारीरिक स्वायत्तता और प्रजनन अधिकारों से जोड़ कर देखते हैं. उनका तर्क है कि हर महिला और हर गर्भावस्था की स्थिति अलग होती है और इसीलिए केवल एक महिला ही अपने लिए सही निर्णय ले सकती है. वो राज्य से सुरक्षित और क़ानूनी गर्भपात सेवाओं मुहैया करवाने की मांग करते हैं.

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ये बहस बहुत जटिल है. इसमें संस्कृति, धर्म, नैतिकता और व्यक्तिगत अनुभवों की वजह से अलग-अलग नज़रिए हैं. इसी वजह से राजनीति और समाज में बहस चलती रहती है. अलग-अलग देशों में क़ानून भी अलग-अलग हैं. जैसे, बीते साल जून महीने में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के गर्भपात के संवैधानिक हक़ को ख़त्म कर दिया. उसने 1973 के चर्चित 'Roe vs Wade' के फ़ैसले को पलट दिया, जिसमें महिला के गर्भपात के अधिकार को सुनिश्चित किया गया था.

CJI ने क्या कहा?

ख़ैर, महिला जजों की बेंच MTP को हरी झंडी नहीं दे पाई, तो मामला CJI की बेंच के सामने आया. 12 अक्टूबर को CJI ने कहा कि किसी बच्चे की हत्या नहीं की जा सकती. कहा,

"अजन्मे बच्चे के अधिकारों पर विचार करना होगा. बिला शक महिला की स्वायत्तता अहम है. अनुच्छेद 21 के तहत उसका अधिकार है, लेकिन साथ ही, हमें इस तथ्य के लिए भी सचेत रहना चाहिए कि जो कुछ भी किया जाएगा, वो अजन्मे बच्चे के अधिकारों को प्रभावित करेगा."

इस टिप्पणी के साथ तीन जजों की बेंच ने महिला से कुछ और हफ़्तों तक गर्भावस्था जारी रखने का भी आग्रह किया. ताकि बच्चा शारीरिक और मानसिक विकृति के साथ पैदा न हो.

इस केस में आज - 13 अक्टूबर को - बहस जारी है.

वीडियो: सुप्रीम कोर्ट का फैसला- शादीशुदा हो या नहीं, अबॉर्शन सबका अधिकार है!

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