The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • News
  • israel-palestine india has alw...

भारत ने 'आज़ाद फ़िलिस्तीन' पर अब जो कहा, इज़रायल को बहुत बुरा लग सकता है

भारत के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी किया है कि हमने हमेशा से ही एक अलग और स्वतंत्र फ़िलिस्तीन राज्य का समर्थन किया है. भारत और फ़िलिस्तीन के संबंधों का इतिहास क्या है?

Advertisement
israel palestine war
बाएं से दाएं - इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, पीएम नरेंद्र मोदी (फ़ोटो - आजतक)
12 अक्तूबर 2023 (Updated: 15 अक्तूबर 2023, 13:54 IST)
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

इज़रायल और ग़ाज़ा की जंग (Israel-Gaza War) के बीच विदेश मंत्रालय ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि भारत ने हमेशा से ही एक अलग और स्वतंत्र फ़िलिस्तीन राज्य का समर्थन किया है. साथ ही शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत की वकालत भी की है.

विदेश मंत्रालय ने अपना आधिकारिक बयान X पर पोस्ट किया:

"इस संबंध में हमारी नीति लंबे समय से एक ही रही है. भारत ने हमेशा अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सीमाओं के तहत इज़रायल के साथ एक आज़ाद, संप्रभु और व्यवहार्य फ़िलिस्तीन राज्य की स्थापना की वकालत की है."

7 अक्टूबर की सुबह ग़ाज़ा पट्टी के चरमपंथी समूह हमास ने इज़रायल के इलाक़ों पर रॉकेट दागना शुरू किए तो भारत ने इसे आतंकवादी हमला कहा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 अक्टूबर की शाम को ही X पर पोस्ट कर दिया कि इस कठिन समय में हम इज़रायल के साथ खड़े हैं.

ऐसे में PM मोदी के इस पोस्ट को ही भारत के स्टैंड की तरह देख लिया गया. भारत के इस स्टैंड को मान्यता तब मिली, जब भारत में इज़रायली राजदूत नॉर गिलन ने कहा कि इस समर्थन के लिए इज़रायल भारत की सराहना करता है.

हालांकि अब भारत ने इस मसले पर अपने स्टैंड में फ़िलिस्तीन को भी शामिल कर लिया है. इसीलिए ये समझना ज़रूरी है कि तारीख़ में भारत के फ़िलिस्तीन के साथ संबंध कैसे रहे हैं?

भारत-फ़िलिस्तीन संबंध

दूसरा विश्वयुद्ध ख़त्म होते ही दुनियाभर में ये बहस तेज़ हो गई कि हिटलर के सताए हुए यहूदियों को उनका अलग देश दिया जाए. यूरोप से भागकर आए यहूदियों ने फ़िलिस्तीन की ज़मीन चुनी. वहां रह रहे अरब मूल के लोगों के साथ उनका संघर्ष चला क्योंकि यहूदी वहां पर अपने 'क़ब्जे़' वाले हिस्से को अलग देश बनाना चाह रहे थे. उस ज़मीन का बंटवारा चाह रहे थे. लेकिन भारत में महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू इसके विरोध में थे. भारत की आज़ादी के पहले से ही.

अपने अख़बार 'हरिजन' में गांधी ने बाहरा यहूदियों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा का विरोध किया था. लेकिन साथ में इस बात का भी विरोध किया था कि यहूदी फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं. नेहरू का भी यही मत था. सनद रहे कि ये बातें उसी वक़्त हो रही थीं, जब धार्मिक आधार पर ख़ुद भारत का बंटवारा हो रहा था और पाकिस्तान बन रहा था.

ये भी पढ़ें - गाजा के लोगों के लिए राहत मांगी गई तो इज़रायल बोला- 'पानी तक नहीं देंगे'

भारत की आज़ादी के बाद संयुक्त राष्ट्र में फ़िलिस्तीन के बंटवारे का प्रस्ताव आया. भारत ने अरब देशों के साथ बंटवारे के ख़िलाफ़ वोट किया. उधर इज़रायल ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता का फ़ॉर्म भरा, तो भारत ने इसका भी विरोध किया. लेकिन साल 1950 आते-आते भारत का रुख नरम पड़ने लग गया. हमने इज़रायल को बतौर राष्ट्र मान्यता दे दी. मगर दो मुस्लिम बहुल देशों - तुर्की और ईरान - के ऐसा करने के बाद ही.

भारत और इज़रायल के बीच दोस्ती पक्की होती गई. दोनों देशों के बीच बहुत सारे मुद्दों पर बातचीत शुरू हुई. इनमें प्रमुख मुद्दा था, डिफेंस. इज़रायल की ओर से भारत को ढेर सारे वादे किए गए थे. वादा निभाया भी. 1962 और '65 की जंगों में भारत के एक तार पर हथियार भिजवाए. नेहरू और शास्त्री ने इज़रायल की इस मदद को माना. इंदिरा गांधी के समय भी संबंध मज़बूत हुए.

यासिर अराफ़ात: भारत के 'दोस्त'

अब जहां एक तरफ़ इज़रायल के साथ हमारी क़रीबी बढ़ रही थी, तो क्या फ़िलिस्तीन दूर हो गया था? जवाब है, नहीं. समय बीतने के साथ भारत ने फ़िलिस्तीन के सबसे बड़े नेता यासिर अराफ़ात के साथ बातचीत शुरू कर दी थी. अराफ़ात फ़िलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) के नेता थे और ये संगठन फ़िलिस्तीनियों का सबसे बड़ा और प्रभावशाली गुट है.

साल 1974 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसी ग्रुप को लेकर एक बड़ा फ़ैसला लिया. PLO को फ़िलिस्तीनी लोगों के मुखिया संगठन के रूप में मान्यता दे दी. माने भारत के अधिकारियों और नेताओं को फ़िलिस्तीन के किसी मुद्दे पर बात करनी होगी, तो PLO ही उनका पॉइंट ऑफ़ कॉन्टैक्ट होगा. साथ ही संगठन को दिल्ली में दफ़्तर खोलने के लिए जगह भी दे दी गई.

ये भी पढ़ें - इज़रायल के ख़िलाफ़ हमास की सबसे खतरनाक ब्रिगेड इस आदमी के नाम पर बनी

इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी चुनी गई. उन्होंने जीत के बाद एक विजय रैली आयोजित की थी. इस रैली में अटल बिहारी वाजपेयी ने एक भाषण दिया था, जिसका एक हिस्सा इन दिनों अच्छे-से वायरल है. भाषण में वाजपेयी कह रहे हैं कि अरबों की जिस ज़मीन पर इज़रायल क़ब्ज़ा करके बैठा है, वो ज़मीन उसको ख़ाली करनी होगी. यानी भारतीय जनता पार्टी के सह-संस्थापक का रुख भी फ़िलिस्तीन राज्य के पक्ष में ही था.

यासिर अराफ़ात और इंदिरा गांधी (फ़ोटो - गेटी)

साल 1980 में जब इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी की, तो उन्होंने PLO के ऑफ़िस को अपग्रेड करने का ऑर्डर भी दिया. ऑफ़िस और उससे जुड़े सब लोगों को वो सुविधाएं दी गईं, जो दूतावासों और उनके कर्मचारियों को दी जाती हैं. इस दरम्यान अराफ़ात और इंदिरा गांधी की दोस्ती भी चर्चा में आई. दोनों की भारत और उसके बाहर कई मुलाक़ातें हुईं. जब इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई, तो अराफ़ात इंदिरा गांधी के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए भारत भी आए. उनकी रोती हुई तस्वीरें दुनिया भर में घूमीं.

इंदिरा के बाद जब राजीव गांधी सत्ता में आए, तो उनका रवैया भी फ़िलिस्तीन को लेकर वैसा ही रहा. फ़िलिस्तीन और इज़रायल के बीच बहुत सारे संघर्ष हो रहे थे, लेकिन भारत ने फ़िलिस्तीन का ही साथ दिया.

मामला फ़िलिस्तीन के ख़िलाफ़ कब गया?

साल 1990 में फ़िलिस्तीन ने एक ऐसा क़दम उठाया, जो उसके ख़िलाफ़ चला गया. इस साल अगस्त के महीने में इराक़ ने क़ुवैत पर आक्रमण कर दिया और PLO ने इराक़ का समर्थन किया. इसके उलट भारत ने इराक़ के ख़िलाफ़ लड़ रहे अमेरिका को समर्थन दिया.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार इसकी एक व्याख्या ऐसे करते हैं कि ईरान को समर्थन देना फ़िलिस्तीन के चयन से ज़्यादा, मजबूरी थी. ईरान ने शुरू से ही फ़िलिस्तीन का साथ दिया था. जंग के लिए संसाधन भी देता था और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फ़िलिस्तीन राज्य की वकालत भी करता था.

ये भी पढ़ें - सद्दाम हुसैन की कब्र खोदकर कौन निकाल ले गया उसकी लाश?

ख़ैर.. युद्ध हुआ. जो युद्ध हुआ, उसे ‘खाड़ी की जंग’ कहा गया. इसके चलते फ़िलिस्तीन को दुनिया भर में जो राजनीतिक स्वीकार्यता मिली थी, वो कम होने लगी. और, इस घटना के दो साल बाद भारत ने इस पूरे परिदृश्य में एक बड़ा क़दम उठाया. तत्कालीन पीएम नरसिंह राव वाली कांग्रेस सरकार ने इज़रायल से पूर्ण राजनयिक संबंध बनाने (full diplomatic relations) का ऐलान कर दिया. मतलब दोनों देश एक दूसरे के यहां दूतावास खोलेंगे, वहां पर अपने राजदूत और तमाम स्टाफ़ रख सकेंगे, राजदूतों को तमाम सुविधाएं मिलेंगी और तमाम समझौते और डील थोड़ी तेज़ी से हो सकेंगे.

इसी दौरान यासिर अराफ़ात भी भारत आए थे और नरसिंहा राव से मिले. जब उन्होंने भारत और इज़रायल की दोस्ती की बात छेड़ी, तो उन्हें कहा गया कि ये दोस्ती फ़िलिस्तीन के लिए भी ज़रूरी है. इस मीटिंग के बाद पत्रकारों से बात करते हुए अराफ़ात ने कहा था,

"हम भारत-इज़रायल के मुद्दों में कोई दख़ल नहीं दे सकते हैं. हम भारत सरकार के हर चुनाव का सम्मान करते हैं."

दुनिया की ‘इज़रायल-फ़िलिस्तीन’ नीति 

ये वो समय था, जब इज़रायल कई देशों के क़रीब आ रहा था और फ़िलिस्तीन अलग-थलग पड़ रहा था. इस समय पूरी दुनिया में एक अबोला नियम चल रहा था: ‘हाईफ़नेशन’. हाइफ़न यानी वो पड़ी हुई पाई, जो अक्सर दो शब्दों के बीच में लगाई जाती है. जो भी देश इज़रायल के समर्थन में आता, उसे दुनिया भर में अपनी ‘इमेज बचाने के लिए’ फ़िलिस्तीन का भी क़रीबी होना पड़ता था. या दिखना पड़ता था. चुनांचे दुनिया भर में ‘इज़रायल-फ़िलिस्तीन’ को साथ में लिखा-बोला जाता था. दुनिया भर से कोई भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री इज़रायल जाता, तो उसे उसी दौरे में फ़िलिस्तीन भी जाना होता था. इज़रायल इस हाइफ़न से बाहर आना चाहता था. उसे अपनी अलग पहचान बनानी थी.

1999 में यासिर अराफ़ात का स्वागत करते अटल बिहारी वाजपई (फोटो - आर्काइव)

इज़रायल की इसी जुगत में भारत का भी नंबर आया और इज़रायल को मौक़ा मिला साल 1999 में. कारगिल की जंग में भारत ने इज़रायल से हथियार मांगे थे और इज़रायल बिना देरी अपने इमरजेंसी वाले खेप से हथियार निकालकर भारत भेज दिए. कारगिल की जीत में इन हथियारों की ज़रूरी भूमिका थी. हमने जंग जीती और इज़रायल को हमारा ‘अटूट विश्वास’ मिल गया.

जीत के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने विदेश मंत्री जसवंत सिंह को इज़रायल की पहली द्विपक्षीय यात्रा पर भेजा. इसके कुछ महीनों बाद तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी भी इज़रायल गए. फिर बहुत सारे नेताओं का आना-जाना शुरू हो गया. रिश्तों में गर्माहट जैसी हेडलाइन लिखी जाने लगीं.

ये भी पढ़ें - पुतिन ने फिलिस्तीन पर अब जो बोला है, इजरायल और अमेरिका को तगड़ा झटका लगेगा!

बाद की सरकारों ने भी इस ट्रेंड को जारी रखा. दोनों को कभी बिल्कुल बराबर, कभी एक को ज़्यादा-एक को कम वाली नीति से चलते रहे. लेकिन भारत और इज़रायल के संबंध निर्णायक रूप से बदले नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान. 

साल 2017 में प्रधानमंत्री मोदी पहली बार इज़रायल गए. पहली बार भारत के किसी प्रधानमंत्री ने इज़रायल का दौरा किया. इज़रायल के राष्ट्रपति बेंजामिन नेतन्याहू के साथ समुद्र तट पर टहलते हुए उनकी फ़ोटो वायरल हुईं. लेकिन इस यात्रा में दो ख़ास बातें थीं. प्रधानमंत्री मोदी का प्लेन सीधे इज़रायल में उतरा और परिपाटी के विपरीत फ़िलिस्तीन का चक्कर काटे बिना ही आ गए. जियो-पॉलिटिक्स के लिहाज़ से इसे ऐसे देखा गया कि PM मोदी ने ‘डी-हाईफ़नेशन’ की प्रक्रिया शुरू की.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 2017 का इज़रायल दौरा और 2019 का फ़िलिस्तीन दौरा (फ़ोटो - X/PTI)

इस डी-हाईफनेशन में एक और अध्याय जुड़ा साल 2018 में. जब पीएम मोदी ने फ़िलिस्तीन का दौरा किया, लेकिन इज़रायल का चक्कर नहीं लगाया. भारत का इन देशों को लेकर स्टैंड साफ़ हो गया. यानी भारत ने इज़रायल से क़रीबी या फ़िलिस्तीन से दूरी नहीं बनाई है, लेकिन दोनों देशों से अलग-अलग संबंध बनाने को लेकर ज़ोर दिया है.

इसीलिए प्रधानमंत्री के हालिया पोस्ट और विदेश मंत्रालय के बयान में फ़र्क़ है, मगर दोनों एक-दूसरे को काटते नहीं हैं.

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement