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आरक्षण पर कोर्ट का वो फैसला, जिसके बाद बांग्लादेश में ऐसी हिंसा भड़की कि शेख हसीना को भागना पड़ा

ये हिंसा 15 जुलाई को शुरू हुई थी. सड़कों पर तोड़फोड़, पत्थरबाज़ी और गोलीबारी का मंज़र रहा. स्कूल और कॉलेजों को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया. कई शहरों में फ़ौज उतारनी पड़ी. हिंसा में कम से कम 200 लोग मारे गए. हज़ारों लोग घायल हुए.

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सरकारी नौकरियों के कोटा में सुधार की मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं. (फोटो- एजेंसी/सोशल)
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अभिषेक
19 जुलाई 2024 (Updated: 5 अगस्त 2024, 18:36 IST)
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बांग्लादेश में चली आ रही हिंसा और अराजकता ने एक नई शक्ल इख़्तियार कर ली है. देश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना (Sheikh Hasina) इस्तीफ़ा दे कर देश छोड़ चुकी हैं. सेना ने व्यवस्था संभाल ली है और सेना प्रमुख ने जनता से कहा है कि एक अंतरिम सरकार बनाई जाए. साथ में हिंसा न करने की अपील की है.

ये हिंसा 15 जुलाई को शुरू हुई थी. सड़कों पर तोड़फोड़, पत्थरबाज़ी और गोलीबारी का मंज़र. स्कूल और कॉलेजों को अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया. कई शहरों में फ़ौज उतारनी पड़ी. हिंसा में कम से कम 200 लोग मारे गए. हज़ारों लोग घायल हुए. आज हालात ये कि शेख़ हसीना को देश छोड़ना पड़ा और इनपुट्स कहते हैं कि वो भारत के रास्ते यूनाइटेड किंगडम जाएंगी. और, इस हंगामे की वजह क्या है? सरकारी नौकरियों में आरक्षण. प्रदर्शनकारी इसमें सुधार की मांग कर रहे हैं. 

क्यों हो रहे हैं प्रदर्शन?

बांग्लादेश के प्रोटेस्ट के केंद्र में जो आरक्षण व्यवस्था है, उसके तहत देश में सरकारी नौकरियों में 56 फीसदी सीटें आरक्षित हैं. अलग-अलग वर्ग के लोगों के लिए.

  • सबसे ज़्यादा - 30 फीसदी सीटें - 1971 के युद्ध में शामिल लोगों के घरवालों के लिए आरक्षित हैं.
  • वॉर वेटरन्स के बाद महिलाओं और अल्प-विकसित क्षेत्र से आने वाले लोगों का नंबर आता है. दोनों के लिए 10-10 फीसदी सीटें रिज़र्व्ड हैं.
  • तीसरे नंबर पर मूलनिवासी आते हैं. उनके लिए पांच फीसदी सीटें आरक्षित हैं.
  • एक फीसदी सीटें विकलांग लोगों के लिए आरक्षित हैं.

इस तरह टोटल आंकड़ा हुआ, 56 फीसदी. यानी सरकारी नौकरियों की 100 में से 56 सीटें पहले से रिज़र्व्ड हैं. जनरल कैंडिडेट बची 44 फीसदी सीटों पर कम्पीट कर सकते हैं.

ये भी पढ़ें - क्या भारत ने बांगलादेश को ज़मीन दे दी ?

बांग्लादेश में सरकारी नौकरी की चाह बढ़ रही है, क्योंकि ये प्राइवेट जॉब्स की तुलना में स्थायी और ज़्यादा सम्मानजनक होती हैं. जैसे-जैसे बेरोज़गारी का ग्राफ़ ऊपर जा रहा है, नौजवानों के लिए सरकारी नौकरी अंतिम विकल्प बन कर उभरा है. कोटा सिस्टम के विरोध की एक बड़ी वजह ये भी बताई जाती है.

इसके ख़िलाफ़ पहला बड़ा प्रोटेस्ट 2018 में हुआ था. राजशाही यूनिवर्सिटी से शुरू हुआ ये आंदोलन धीरे-धीरे राजधानी ढाका और दूसरे बड़े शहरों में फैल गया था. प्रदर्शनकारी छात्रों ने पूरे मुल्क को जाम कर दिया. जब सरकार पर दबाव बढ़ा, तो उसने पूरा कोटा सिस्टम ही रद्द कर दिया. सरकार के फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोग अदालत चले गए.

5 जून, 2024 को बांग्लादेश हाई कोर्ट ने 2018 के फ़ैसले को अवैध क़रार दिया. पहले जैसा क़ोटा सिस्टम लागू करने के लिए कहा. बहुत सारे छात्रों ने इसका विरोध किया. कई हफ़्तों तक प्रोटेस्ट शांतिपूर्ण चला. मामला नारेबाज़ी और रैलियों तक सीमित था. मगर 15 जुलाई को हिंसा भड़क गई. इसकी शुरुआत ढाका यूनिवर्सिटी (DU) से हुई. बांग्लादेशी अख़बार डेली स्टार की रिपोर्ट के मुताबिक़, बांग्लादेश छात्र लीग (BCL) के कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शनकारियों के साथ मारपीट की. महिलाओं को भी नहीं बख़्शा. ढाका यूनिवर्सिटी के बाद कई और कॉलेज हिंसा की ज़द में आए. फिर तो चेन ही शुरू हो गई. 

इस समय पूरा बांग्लादेश अस्त-व्यस्त है. तक़रीबन सभी स्कूल-कॉलेजों को बंद कर दिया गया है. छात्रों को 17 जुलाई की शाम तक हॉस्टल खाली कर जाने के लिए कहा गया है. कई शहरों में बॉर्डर गार्ड बांग्लादेश (BGB) को तैनात किया गया है. इसके अलावा, हिंसा में शामिल लोगों की गिरफ़्तारी भी की जा रही है.

विरोधियों और समर्थकों के क्या तर्क हैं?

विरोधियों का मानना है कि इससे मेरिट पर आधारित कम्पटीशन ख़त्म हो रहा है. फिर चूंकि अधिकांश वॉर वेटरन्स आवामी लीग से ताल्लुक़ रखते हैं, सो विरोधी आरोप लगाते हैं कि पार्टी अपने लोगों को ख़ुश कर रही है. ये भी कहते हैं कि प्रदर्शनकारियों को 'रज़ाकार' बता कर असली मुद्दे से ध्यान भटकाया जा रहा है. 

दरअसल, बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में दो धड़े थे. पहला धड़ा उन लोगों का, जिन्होंने 'मुक्तिवाहिनी' के लिए काम किया. पाकिस्तानी फ़ौज के ख़िलाफ़ डट कर लड़ाई लड़ी. जंग के बाद उनको नायकों सा दर्जा मिला. उनके परिवारवालों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिला. वहीं दूसरे धड़े में वो लोग थे, जिन्होंने मुक्तिवाहिनी की बजाय पाक फ़ौज का साथ दिया. यूं तो वे भी पूर्वी-पाकिस्तान के स्थानीय निवासी थे, मगर आज़ादी के ख़िलाफ़ थे. उनको कहा गया, 'रज़ाकार'. शाब्दिक अर्थ, वॉलंटियर. हालांकि, बांग्लादेश आज की तारीख़ में रज़ाकार के माने देशद्रोही हो गए हैं.

विरोधियों के बरक्स कोटा सिस्टम के समर्थकों के तर्क हैं कि ये सिस्टम वॉर वेटरन्स के बलिदान को याद करने के लिए ज़रूरी है. दूसरी बात वो ये कहते हैं कि नौजवान पीढ़ी अपनी बुनियाद को भूल रही है. उनके लिए 1971 के युद्ध की प्रासंगिकता कम हो गई है. इसलिए भी वो वॉर वेटरन्स को मिलने वाली सुविधाओं का विरोध करते हैं.

प्रोटेस्ट पर सरकार क्या कह रही है?

सत्ताधारी आवामी लीग ने विपक्षी पार्टियों, BNP और जमात-ए-इस्लामी (JI) पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया है.

क़ानून मंत्री अनीसुल हक़ ने कहा है कि सरकार प्रदर्शनकारियों से बातचीत करने को तैयार है. न्यूज़ एजेंसी AP के इनपुट्स के मुताबिक़, प्रदर्शनकारी भी बातचीत के लिए तैयार हैं. मगर उनका कहना है कि चर्चा और गोलीबारी एक साथ नहीं हो सकती.

वीडियो: दुनियादारी: बांग्लादेश में आरक्षण-विरोधी प्रोटेस्ट की पूरी कहानी क्या है?

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