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फ़िलिस्तीन समर्थन में लोग कटे तरबूज़ की फ़ोटो क्यों लगा रहे हैं?

आपको कटे तरबूज़ में क्या नज़र आता है?

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watermelon palestine protest
इस सदी की शुरूआत से ही तरबूज़ का इस्तेमाल आम हो गया है. (फ़ोटो - गेटी)
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सोम शेखर
8 नवंबर 2023 (Published: 19:43 IST)
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ग़ाज़ा में इज़रायली सेना के जवाबी आक्रमण को एक महीना पूरा हो गया है. 7 अक्टूबर को चरमपंथी समूह हमास के हमले में इज़रायल के 1,400 नागरिक मारे गए थे. तकरीबन 250 इज़रायली अब भी बंधक बताए जाते हैं. जवाब में इज़रायल ने 10,000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी मार दिए. इनमें से 4,000 से ज़्यादा बच्चे थे. सोशल मीडिया पर इन आंकड़ों और इज़रायल की बमबारी से संबंधित पोस्ट्स दिख रहे हैं. बावजूद इसके दुनिया में कई जगह फिलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शनों पर कार्रवाई हुई है. फिलिस्तीनी झंडे तक को ‘शांति भंग’ करने वाली सामग्री बता दिया जाता है. ऐसे में फ़िलिस्तीन समर्थक 'तरबूज़' का इस्तेमाल करने लगे हैं. कटा हुआ तरबूज़, उसकी इमोजी और उससे संबंधित आर्टवर्क देखने को मिल रहे हैं.

फ़िलिस्तीनियों और तरबूज़ का क्या रिश्ता है?

तरबूज़ काटेंगे, तो इसमें तीन रंग सामने आएंगे. हरे रंग का छिलका, काले रंग का बीज और खाने वाला लाल हिस्सा. हरा, काला, लाल -- इसी रंग का है फ़िलिस्तीन का झंडा. झंडे में सफ़ेद रंग भी है, लेकिन मुख्यतः तीन रंग हैं.

फिलिस्तीन के नाम पर तरबूज़ काटने की नौबत यूं ही नहीं आई है. फिलिस्तीनी कॉज़ की तरह ही फिलिस्तीनी झंडे पर भी अलिखित प्रतिबंध हैं. पुलिस अक्सर कार्रवाई करती है. टाइम्स ऑफ़ इज़राइल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, इज़रायल के राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री इतामार बेन ग्विर ने जनवरी में ही पुलिस को निर्देश दिया था कि अगर कोई सार्वजनिक तौर पर फ़िलिस्तीनी झंडा फरहाता है, तो उसे तुरंत फाड़ दिया जाए. 

इज़रायल के बाहर भी ये देखने को मिला कि पुलिस वालों ने फिलिस्तीन के लिए चंदा मांगा, तो जांच बैठ गई. यूनिवर्सिटी के लड़कों ने मार्च निकाला, तो कार्रवाई हो गई. सोशल मीडिया पर भी कई लोग का दावा है कि जिन पोस्ट्स में झंडे जैसे फ़िलिस्तीनी प्रतीक होते हैं, वो बड़े-बड़े सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म्स पर प्रतिबंधित हैं या रीच घट जा रही है. इसलिए कटे हुए तरबूज़ का सहारा लिया जा रहा है.

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कब से झंडा बना हुआ है तरबूज़?

तरबूज़ का इस्तेमाल कोई नया नहीं है. लेकिन उतना पुराना भी नहीं है, जितना पश्चिमी मीडिया संगठन दावा करते हैं. टाइम के लिए अरमानी सैयद की रिपोर्ट के मुताबिक़, तरबूज़ का इस्तेमाल 1967 से ही हो रहा है. जब ‘सिक्स डे वॉर’ में इज़रायल ने वेस्ट बैंक, ग़ाज़ा और पूर्वी-जेरुसलम पर क़ब्ज़ा कर लिया, तब ही इज़रायली सरकार ने फ़िलिस्तीन के झंडे को पब्लिक में लहराने को अपराध क़रार दे दिया. इस प्रतिबंध से बचते हुए अपनी आवाज़ उठाने के लिए फ़िलिस्तीनियों ने ये जुगाड़ निकाला. झंडे के रंग जैसा तरबूज़. ऐसा टाइम और न्यू यॉर्क टाइम्स समेत कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों का दावा है. ये तथ्य अधूरा है. झंडे के प्रतिबंध वाली बात सच है, लेकिन तरबूज़ का इस्तेमाल 1967 से हो रहा है, उसमें बहुत दम नहीं है.

वेस्ट बैंक में रहने वाले दो फ़िलिस्तीनियों की वेबसाइट 'डी-कोलोनाइज़ फ़िलिस्तीन' का कहना है कि पहले इंतिफ़ादा (1987-1983) के साहित्य में तरबूज़ का कोई ज़िक्र ही नहीं है. उन्होंने इस मुद्दे को लेकर इंतिफ़ादा में शामिल रहे आंदोलनकारियों से बात भी की. उनमें से कोई भी ये याद न कर सका कि किसी ने तरबूज़ को प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया हो.

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भले ही ये गुत्थी न सुलझी कि तरबूज़ का इस्तेमाल कब से शुरू है, लेकिन ओस्लो समझौते के तहत इज़रायल ने 1993 में फ़िलिस्तीनी झंडे पर प्रतिबंध हटा लिया. समझौते के मद्देनज़र, मीडिया संगठनों ने इस बात को स्वीकारा, कि तरबूज़ झंडे का एक स्टैंड-इन प्रतीक है. 2007 में दूसरे इंतिफ़ादा के ठीक बाद कलाकार ख़ालिद हुरानी ने सब्जेक्टिव एटलस ऑफ़ फिलिस्तीन नाम की किताब में 'द स्टोरी ऑफ़ द वॉटरमेलन' रचा. 2013 में उन्होंने अपने इस चैप्टर को अलग से छापा और इसे 'द कलर्स ऑफ़ द फ़िलिस्तीनी फ़्लैग' नाम दिया. दुनिया भर के लोगों ने इसे देखा-पढ़ा.

इस सदी की शुरूआत से ही तरबूज़ का इस्तेमाल आम हो गया है. 2021 में जब एक इज़रायली अदालत ने फ़ैसले सुनाया था कि पूर्वी-जेरुसलम में फ़िलिस्तीनी परिवारों बेदख़ल कर दिया जाए, तब भी प्रदर्शन में तरबूज़ का इस्तेमाल किया गया था. इस साल के जून में भी 'जाज़िम' नाम की एक संगठन ने तेल अवीव में टैक्सियों पर कटे हुए तरबूज़ों की तस्वीरें चिपकानी शुरू की. साथ में लिखा - 'ये फ़िलिस्तीनी झंडा नहीं है'.

watermelon palestine protest
2020 के प्रदर्शन से निकली तस्वीर (फ़ोटो - अल-जज़ीरा)

तो सोशल मीडिया पर आप फिलिस्तीनी समर्थन में जो कटे तरबूज़ देख रहे हैं, उनका एक गहरा संदर्भ भी है. प्रतिरोध की भाषा का व्याकरण समय की मांग पर बदलता रहता है. परचम से तरबूज़ में हम इसी बदलाव को स्पॉट कर सकते हैं. 

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