'सनातन को मिटा दो', उदयनिधि स्टालिन की बात का उत्तर में विरोध, लेकिन दक्षिण में समर्थन क्यों?
जानें तमिलनाडु की धर्म-विरोधी, जाति-विरोधी वाली राजनीति का इतिहास.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और मंत्री उदयनिधि स्टालिन (Udhayanidhi Stalin) के बयान पर भयानक विवाद चल रहा है. जब से उदयनिधि ने अपने भाषण में सनातन धर्म की तुलना डेंगू, मलेरिया और कोरोना महामारी से की है, भारतीय जनता पार्टी और हिंदुत्व विचारधारा के नेता उनकी कड़ी आलोचना करने में लगे हैं. दिल्ली पुलिस में उनके ख़िलाफ़ केस भी दर्ज किया गया है. हालांकि, दक्षिण भारत के राज्यों के कई नेताओं ने उदयनिधि स्टालिन का समर्थन भी किया है. उत्तर भारत की राजनीति में ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है. आज इसी पर बात करेंगे कि क्यों और कैसे दक्षिण भारत में सनातन के विरोध या आलोचना को उत्तर भारत की तुलना में ज्यादा स्वीकार्यता मिलती है.
द्रविड़ आंदोलनपहले 19वीं सदी के तमिलनाडु का सामाजिक ताना-बाना समझिए. तब की मद्रास रियासत में ब्राह्मणों का वर्चस्व था. केवल समाज में नहीं, शासन-प्रशासन में भी. 1850 आते-आते तेलुगु और तमिल ब्राह्मण - जो कुल आबादी का मात्र 3.2% थे - उनका राजनीति में दख़ल बढ़ा. अंग्रेज़ी पर पकड़ और अपने प्रभाव से वो ऊंचे से ऊंचे पदों पर पहुंचे. इसके चलते 20वीं सदी की शुरुआत में ब्राह्मणों और ग़ैर-ब्राह्मणों के बीच राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक फ़र्क़ साफ़-साफ़ दिखने लगा.
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फिर 20 के दशक में ब्राह्मणों में तीन-फाड़ हो गए. मायलापुर गुट, एग्मोर गुट और सालेम राष्ट्रवादी. इन तीनों गुटों के बरक्स एक ग़ैर-ब्राह्मण गुट खड़ा हुआ: जस्टिस पार्टी. ग़ैर-ब्राह्मण - ख़ासतौर पर पिछड़े समुदायों - के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला पहला राजनीतिक दल. जस्टिस पार्टी ने सरकारी नौकरियों और सत्ता के और पदों पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी. 1920 और 30 के दशक में इस आंदोलन ने गति पकड़ी. ई.वी. रामासामी पेरियार और सी.एन. अन्नादुरई जैसे नेताओं ने सेंटर स्टेज लिया. आंदोलन के साथ, स्वदेशी और स्वाभिमान की भावना बढ़ी. मसलन, संस्कृत की जगह तमिल भाषा के इस्तेमाल की वकालत की जाने लगी.
1938 में जस्टिस पार्टी और पेरियार का आत्म-सम्मान आंदोलन साथ में नत्थी हो गए. 1944 में एक नया संगठन बनाया गया, द्रविड़ कड़गम. एक ब्राह्मण-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी और आर्य-विरोधी (पढ़ें, उत्तर भारतीय) दल. द्रविड़ कड़गम ने एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र के लिए आंदोलन चलाया.
इस आंदोलन ने तमिल समाज में जगह बनाई. आज़ादी के बाद ये जगह और पुख़्ता हुई. लाज़मी है, इसका असर तमिलनाडु की राजनीति पर भी पड़ा. अलग तमिल राष्ट्र की मांग भी उठी. 1967 में आंदोलन से निकली पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) सत्ता में आ गई. अन्नादुरई ने 1967 से 1969 तक मद्रास राज्य के चौथे और आख़िरी मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य का बीड़ा उठाया. और जब मद्रास, तमिलनाडु बना, तो उसके पहले मुख्यमंत्री भी बने.
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द्रमुक ने अगले तीन दशकों तक - ज़्यादातर समय - तमिलनाडु की सत्ता में रही. इस दौरान पेरियार और अन्नादुरई के सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास वाले आंदोलनकारी विचार सरकार की नीतियों में उतरते चले गए.
किसी मूर्ख ने धर्म बनाया है: पेरियारचूंकि हमने पेरियार का ज़िक्र किया और उदयनिधि ने भी अपनी सफ़ाई में पेरियार का हवाला दिया, इसीलिए उनके विचार भी जान लीजिए. ईवी रामास्वामी पेरियार धर्म के धुर-विरोधी थे, ख़ासकर हिंदू पंथ के. उनका मानना था कि धर्म अंधविश्वास है, जिसका इस्तेमाल लोगों पर अत्याचार करने और असमानता को सही ठहराने के लिए किया जाता है. इसके लिए उन्होंने तर्क दिया कि हिंदू धर्म ‘विशेष रूप से महिलाओं और दलितों के लिए घातक’ है. और अक्सर जब पेरियार की आलोचना की जाती है, तो उन पर आरोप लगते हैं कि उन्होंने अपने आपको नास्तिक कहने के बावजूद केवल हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ लिखा-बोला. हालांकि उन्होंने ईसाइयत और इस्लाम की भी आलोचना की है.
धर्म पर पेरियार के विचार उनके अपने अनुभवों की वजह से ऐसे थे. उनका जन्म एक गरीब ग़ैर-ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उन्होंने लिखा है कि वो अपनी जाति के लोगों के साथ होने वाले भेदभाव के साक्षी रहे हैं.
- पेरियार का मानना था कि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा है और ये दमनकारी है.
- तर्क दिया कि हिंदू देवी-देवता लोगों की कल्पनाओं से ज़्यादा कुछ नहीं हैं. मूर्ति पूजा की भी आलोचना की.
- सती प्रथा के विरोध में भी मुखर विचार रखे.
धर्म पर पेरियार के विचार बहुत विवादास्पद थे. इसीलिए उनके भतेरे आलोचक भी हैं. कुछ लोग उन्हें हिंदू-विरोधी मानते हैं, तो कुछ कहते हैं कि वो धर्म की सतही व्याख्या करते हैं. हालांकि, तमाम आलोचनाओं के बावजूद पेरियार के विचार तमिलनाडु में आज तक असर रखते हैं.
सनातन मतलब हिंदुत्व?जानकारों के हवाले से ही बताएं तो सनातन का शाब्दिक अर्थ है शाश्वत, स्थायी, प्राचीन. लेकिन उदयनिधि ने अपने भाषण में कुछ और कहा. उन्होंने कहा, "सनातन का मतलब क्या है? शाश्वत. मतलब इसे बदला नहीं जा सकता. कोई भी कोई प्रश्न नहीं उठा सकता और यही इसका असली मतलब है."
शाश्वत से इस नए अर्थ तक, तमिलनाडु की राजनीति और समाज में क्या बदल गया?
इस बारे में इंडिया टुडे की पत्रकार अक्षिता नंदगोपाल ने हमें बताया,
“सनातन तमिल लोगों के लिए तुलनात्मक रूप से बहुत नया है. और उदयनिधी पहले व्यक्ति नहीं हैं, जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर सनातन का ऐसा इस्तेमाल किया है. द्रविड़ नेताओं ने हमेशा सनातन को एक ऐसे रूप में पेश किया कि ये ब्राह्मणों का धर्म है. उन्होंने ही उत्तर बनाम दक्षिण की लकीर खींची.”
तमिलनाडु में सत्ता और विपक्ष, दोनों एक ही राजनीति से निकले हैं. दोनों मूल रूप से एक ही आइडिया में मानते हैं. हाल के सालों में चुनौती बन कर आई भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व पॉलिटिक्स भी इस व्यू को तोड़ नहीं पाई है. जबकि अगर आप देखें, तो दक्षिण भारत के राज्यों में भी धर्म और धार्मिक प्रथाओं का भरपूर ज़ोर है. 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, तमिलनाडु की 87.6 पर्सेंट आबादी हिंदू है. वहीं 6.12 पर्सेंट ईसाई और 5.86 फीसदी मुस्लिम आबादी है. माने यहां भी हिंदुओं की संख्या देश के अनुपात के बराबर ही है. तो भाजपा का तुर्रा यहां क्यों नहीं चला?"
वरिष्ठ पत्रकार विजय ग्रोवर ने दी लल्लनटॉप को बताया कि सालोंसाल के डीएमके शासन की वजह से पॉलिटिक्स का व्याकरण ही बदल गया है. उन्होंने कहा,
“लोग द्रविड़ राजनीति के साथ कनेक्ट करते हैं. 1962 के बाद से, हिंदू धर्म - जिसमें बहुत ज़्यादा अंधविश्वास था - को जातिवादी माना गया और तब से ही लोगों ने अपनी राय बदली.”
वहीं, अक्षिता ने हमें बताया कि इसका एक मुख्य कारण है दक्षिण में आक्रमण न होना. उत्तर भारत में आक्रांताओं की वजह से हिंदू धर्म के प्रति लोगों में एक भावनात्मक जुड़ाव है. तमिलनाडु में धार्मिक आधार पर कोई भी भेदभाव या दमन नहीं किया गया, बल्कि धर्म के अंदर ही जाति के आधार पर भेदभाव हुआ. इस वजह से वहां हिंदू-मुसलान के बीच इतना तनाव नहीं है. और वहां वोटर - चाहे जितना बड़ा हिंदू हो - धर्म पर नहीं, जाति-समुदाय के आधार पर वोट करता है.
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