रावेंसब्रुख कैंप: नाजी जर्मनी का वो यातना ग्रह, जहां साधारण जर्मन औरतें 'पिशाच' बन गईं
इन जर्मन औरतों ने अपनी ही जैसी दूसरी औरतों को यातनाएं देकर मार डाला, उनके बच्चों को भी नहीं बख्शा.
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यह 1938 का शुरुआती समय था. जर्मनी पूरी तरह से हिटलर के कंट्रोल में था. देश में नागरिकों को अच्छे-बुरे, देशभक्त और देशद्रोही की श्रेणी में बांट दिया गया था. हिटलर की तानाशाही और उसकी बर्बर नाजी विचारधारा के खिलाफ आवाज उठाने वालों को यातना गृहों और वहां से मृत्यु गृहों में डाला जा रहा था. इनको अंग्रेजी भाषा में कॉन्सन्ट्रेशन कैंप और डेथ कैंप्स कहा जाता है. 1945 तक इन कैंपों में लाखों लोगों को मार दिया गया.
राजनीतिक विरोधियों के अलावा नाजी जर्मनी में उन्हें भी सजा दी जा रही थी, जो नाजी विचारधारा के अनुसार आदर्श नागरिक नहीं थे, अर्थात भटके हुए और खराब थे. इनमें औरतें भी शामिल थीं. वे औरतें जो यहूदी थीं, सेक्स वर्कर थीं, बेघर थीं और गर्भपात कराती थीं. शुरुआती तौर पर इन औरतों को जिस कॉन्सन्ट्रेशन कैंप में डाला गया, उसका नाम था- रेवेंसब्रुख (Ravensbruck).
इस कैंप में करीब 30 हजार औरतों को मार डाला गया. हजारों बच्चों को भी. और इस काम को अंजाम भी जर्मनी की नाज़ी औरतों ने ही दिया. 20 से 40 साल की बेरहम और हत्यारी जर्मन औरतों ने. इनमें से कुछ औरतें अच्छी नौकरी और अच्छे पैसे के लिए यह कर रही थीं और कुछ सच में हिटलर की विचारधारा को ही अंतिम सत्य मान बैठी थीं और इसकी वजह से इस क्रूरता को अंजाम दे रही थीं.
स्तब्ध कर देने वाली इस पूरी क्रूरता का जिक्र एक किताब में किया गया है. इसे उस कैंप में रहीं और किसी तरह जिंदा बच गईं एक सर्वाइवर ने लिखा है. उनका नाम सेल्मा वेन डे पियरे है. सेल्मा तब रेजिस्टेंस ग्रुप से जुड़ी हुई थीं. यह समूह हिटलर के खिलाफ संघर्ष कर रहा था. वर्तमान में उनकी उम्र 98 वर्ष है. किताब का नाम 'माई नेम इज सेल्मा है.' हाल ही में यह किताब यूनाइटेड किंगडम में प्रकाशित हुई है. अब पूरी दुनिया में प्रकाशित होने जा रही है. इसके कुछ अंश हमें पढ़ने को मिले हैं. उसी के आधार पर हम आगे की कहानी आपको बताएंगे. क्या है रेवेंसब्रुख कैंप की कहानी? इस कॉन्सन्ट्रेशन कैंप का निर्माण एडॉल्फ हिटलर के करीबी हाइनरिख हिमलर ने कराया था. एक प्रयोग के तौर पर इसकी शुरुआत की गई थी. इसके निर्माण के लिए हिमलर ने रेवेंसब्रुख नाम के गांव के पास एक जगह चुनी थी. इसी गांव के नाम पर कैंप का नाम रेवेंसब्रुख रखा गया था. यह गांव जर्मनी की राजधानी बर्लिन से 80 किलोमीटर दूर स्थित था, उत्तर की तरफ.
रेवेंसब्रुख को चुनने की एक बड़ी वजह यह थी कि यहां पर बर्लिन से कम समय में आया जा सकता था. दूसरी वजह यह थी कि यहां पर हिमलर के करीबी रहते थे. यहां हिमलर के बहुत करीबी दोस्त का शानदार घर भी था. हिमलर का यह दोस्त एसएस दस्ते में प्रमुख भूमिका रखता था. एसएस उस समय की नाजी पैरामिलिट्री थी, जो हिटलर और उसके साथियों के लिए क्रूर से क्रूर कामों को अंजाम देती थी.
1941 में Ravensbruck Camp का दौरा करता हिटलर का करीबी हाइनरिख हिमलर.
इस कैंप का निर्माण भी दूसरे कैदियों से ही कराया गया था. यहां सिर्फ महिलाओं को रखा जाना था. मई 1939 में यहां 867 महिला कैदियों की पहली खेप लाई गई थी. 1945 तक यहां करीब एक लाख 30 हजार महिला कैदी लाई गईं. इसी साल इस कैंप को सोवियत संघ की सेना ने मुक्त कराया. लेकिन तब तक यहां क्रूरता, भय और आतंक की अभूतपूर्व कहानी लिखा जा चुकी थी. जर्मन औरतों की क्रूरता! सेल्मा अपनी किताब में लिखती हैं कि 1938 में जर्मनी के अखबारों में एक विज्ञापन निकाला गया. यह विज्ञापन नाजी पार्टी ने निकाला था. विज्ञापन में लिखा था-
"एक मिलिट्री साइट पर काम करने के लिए 20 से 40 साल की स्वस्थ महिला कामगारों की जरूरत है. अच्छे वेतन के साथ मुफ्त यात्रा, रहना और कपड़ों-लत्तों की सुविधा प्रदान की जाएगी."हालांकि, इस विज्ञापन में न तो कॉन्सन्ट्रेशन कैंप का जिक्र था और न ही यह कि महिला कामगारों को एसएस पैरामिलिट्री फोर्स की वह वर्दी पहननी पड़ेगी, जो जर्मनी में आतंक और नस्लीय घृणा का पर्याय बन चुकी थी.
एक बड़ी संख्या में जर्मन महिलाओं ने इन नौकरियों के लिए आवेदन किया. हजारों को नियुक्ति दी गई. उनके रहने के लिए कैंप के आसपास आठ बड़े विला बनाए गए. जिनके कॉटेज में ये महिलाएं रहती थीं.
सेल्मा अपनी किताब में लिखती हैं कि आज भी लोग उनसे पूछते हैं कि आखिर औरतें इतनी क्रूर कैसे हो सकती हैं? सेल्मा लिखती हैं,
"उन लोगों को बस मैं इतना जवाब देती हूं कि वे साधारण जर्मन औरतें थीं, जो बस क्रूरताभरे काम कर रही थीं. बिल्कुल आदमियों की तरह ही. या फिर उन जर्मन बच्चों की तरह, जिनका बचपन छीनकर हिटलर ने उनके मन में घृणा, क्रूरता और हिंसा भर दी थी."
Ravensbruck Camp की ये जर्मन नाजी गार्ड्स फैशनेबल थीं. वे पार्टियां करती थीं. संगीत सुनती थीं. लेकिन एसएस वर्दी पहनते ही उनके अंदर का पिशाच जाग जाता था. तस्वीर में कैंप में कैद महिलाएं हैं.
सेल्मा आगे लिखती हैं कि ये जर्मन औरतें फैशनेबल थीं. अलग-अलग हेयरस्टाइल रखती थीं. अच्छे कपड़े पहनती थीं. बेहतरीन खाना खाती थीं. महीने दो महीने में फंक्शन आयोजित कर नाचती और गाती भी थीं. लेकिन उनकी पोशाक पर एसएस का निशान था. जिसे पहनने के बाद वे किसी मॉन्सटर में तब्दील हो जाती थीं.
सेल्मा लिखती हैं,
"वे भयावह औरतें थीं. कैदी औरतों और उनके बच्चों के साथ मारपीट करते हुए उन्हें सुकून मिलता था. दूसरों को दर्द में तड़पता देख उन्हें खुशी मिलती थी. वे पिशाची हंसी हंसती थीं. बड़ी बेरहमी से वे जहरीली गैस से अपनी ही जैसी औरतों को मौत की नींद सुला देती थीं."आगे सेल्मा बताती हैं कि यह सब करके उन्हें इसलिए अच्छा लगता था क्योंकि उन्हें पॉवरफुल महसूस होता था. वे कैदियों को जानवरों से भी बदतर समझती थीं.
सेल्मा एक डच यहूदी हैं. उनके माता-पिता और बहन ऐसे ही कॉन्सन्ट्रेशन कैंपों में मार दिए गए थे. सेल्मा अपनी किताब में लिखती हैं कि कई कैदियों को मार दिया गया, कइयों से इतना काम कराया गया कि वे काम करते-करते मर गईं, कई बीमारियों और भुखमरी से मर गईं, कई को नाजियों ने अपने सनकी मेडिकल एक्सपेरीमेंट्स की बलि चढ़ा दिया. जर्मन औरतों ने ऐसा क्यों किया? इतिहासकार ईजे हॉब्सबॉम अपनी किताब 'एज ऑफ एक्सट्रीम' में लिखते हैं,
"कंसन्ट्रेशन कैंपों में नौकरी करने में अच्छी सैलरी की गारंटी थी. वहां ठीक ठाक रहने और खाने की भी सुविधा भी थी. वहां औरतों के लिए एक तरह की स्वतंत्रता भी थी. यह फैक्ट्रियों में काम करने से कहीं अधिक आकर्षक था."इन गरीब युवतियों के अलावा कुछ औरतें ऐसी भी थीं, जो सच में हिटलर की विचारधारा से प्रभावित थीं. वे जर्मन लोगों और आर्य नस्ल की श्रेष्ठता में विश्वास करती थीं. यहूदियों और कम्युनिस्टों को जर्मनी और जर्मन लोगों का दुश्मन मानती थीं. ईजे हॉब्सबॉम अपनी किताब में लिखते हैं कि नाजी विचारधारा से प्रभावित इन महिलाओं को लगता था कि वे देश के कथित दुश्मनों की हत्या करके, उन्हें प्रताड़ित करके, जर्मनी को सुरक्षित कर रही हैं. राष्ट्रनिर्माण में योगदान दे रही हैं. क्या सजा मिली? कॉन्सन्ट्रेशन और डेथ कैंपों में यह क्रूरता दूसरे विश्व युद्ध से पहले शुरू हुई और 1945 तक चली. इस समय तक जर्मनी की हार हो चुकी थी. हिटलर मर चुका था और इसके साथ ही नाजी साम्राज्य का भी पतन हो गया था. अब बारी थी ज्ञात मानव इतिहास में मानवता के खिलाफ सबसे क्रूर अपराध करने वालों को सजा देने की. उन औरतों को सज़ा देने की जिन्होंने बेरहमी से औरतों और बच्चों को मार डाला.
हालांकि, इनमें से बहुत सी जर्मन औरतें सजा से बच गईं. रेवेंसब्रुख कैंप में ऐसी करीब एक हजार नाजी गार्ड्स तैनात थीं. इनमें से केवल 77 के खिलाफ ही मुकदमा चला. उसमें से भी बहुत कम को ही सजा हुई.
सेल्मा अपनी किताब में लिखती हैं कि मुकदमे के समय इनमें से ज्यादातर जर्मन गार्ड्स ने खुद को ऐसी लाचार महिलाओं के रूप में पेश किया, जो पितृसत्ता और नाजी शासन के हाथों मजबूर थीं. सेल्मा बताती हैं कि इन औरतों ने दलील दी कि वे नाजी अधिकारियों के कहने पर ही गार्ड की नौकरी करने गई थीं. अगर वे उनकी बात टाल देतीं तो मार दी जातीं, उसी तरह से जिस तरह से उन्होंने पथभ्रष्ट करार कर दी गईं दूसरी औरतों को मारा.
बाएं से दाएं. Ravensbruck Camp में जहरीली गैस से कैदी महिलाओं को मारने का चैंबर. कैंप की नाजी गार्ड्स महिलाएं.
बाद में यह भी सामने आया कि इन गार्ड्स ने जो दलीलें अपने बचाव में दीं, वे पूरी तरह से सही नहीं थीं. सेल्मा ने अपनी किताब में लिखा है कि जब कई गार्ड्स को नौकरी के दौरान पता चला कि उन्हें दूसरों पर अत्याचार करने हैं, तो वे नौकरी छोड़कर चली गईं और उनके साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ.
उस भयावह समय को याद करते हुए सेल्मा लिखती हैं कि वे औरतें पैशाचिक थीं. आज अगर मौका दिया जाए, तो वह सब फिर से हो सकता है. एक दूसरे के रंग, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर घृणा कभी भी भयावह रूप ले सकती है.