इज़रायल-ग़ाज़ा जंग में भारत पर कौन दबाव बना रहा? जानकार क्या बता रहे?
हालिया इज़रायल-ग़ाज़ा जंग में भारत पाला चुनने में अरब देशों की कितनी चिंता कर रहा है? दूसरे पाले में अमेरिका को क्या संदेश दे रहा?
जैसे-जैसे मध्य पूर्व में तनाव बढ़ रहा है, कूटनीति भी पिक्चर में आ रही है. इज़रायली बंधकों और ग़ाज़ा में 'कलेक्टिव पनिशमेंट' के सताए लोगों के बीच सरकारें बटी हुई हैं. एक तरफ़ इज़रायल है, अमेरिका है, यूरोप के कुछ देश हैं. दूसरी तरफ़ फ़िलिस्तीन है, ईरान है, अरब देश हैं. बीच में हमास और हिज़बुल्लाह जैसे संगठन हैं, जो इस इक्वेशन को और जटिल बना रहे हैं. भारत के सामने विकल्प हैं. मगर जंग के वक़्त विकल्प सीमित हो जाते हैं. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बूझने वालों की कहें, तो भारत की डी-हाइफ़नेशन की नीति (इज़रायल और फ़िलिस्तीन से अलग-अलग संबंध बनाने) की वजह से भारत पर प्रेशर भी पड़ रहा है.
एक्सपर्ट्स में मतांतर हैथिंक टैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन (ORF) के उपाध्यक्ष और किंग्स कॉलेज लंदन में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफे़सर हर्ष वी. पंत ने NDTV में एक कॉलम लिखा है. उनका कहना है कि मौजूदा भू-राजनीतिक तनाव पर दुनिया पूरी तरह से बंट गई है. देश के अंदर भी मतभेद दिख रहे हैं. पश्चिमी देश घरेलू फूट पर क़ाबू पाने की जुगत कर रहे हैं. पश्चिम में विश्वविद्यालय ही युद्ध के मैदान बन हुए हैं. नैरेटिव की जंग छिड़ी हुई है. अब मध्य पूर्व में भारत के हित हैं, संबंध हैं. इस साझेदारी को देखते हुए हम भी जंग से अछूते नहीं रह सकते. डॉ. पंत ने लिखा,
"अरब देशों के साथ हमारे जैसे संबंध हैं, इसके लिए नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. ख़ासकर एक ऐसे प्रधानमंत्री के लिए, जिन्हें अक्सर केवल हिंदू राष्ट्रवाद के चश्मे से देखा जाता है. हालांकि, 90 के दशक की शुरुआत से ही भारत-इज़रायल संबंध लगातार बढ़ रहे थे. मोदी ने बस इसके सबके सामने ला दिया."
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ये सिक्के का एक चेहरा है. दूसरा पक्ष क्या है? 'फ़ोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया' के संस्थापक सुधीन्द्र कुलकर्णी - जिन्होंने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के तौर पर भी काम किया था - उन्होंने नरेंद्र मोदी की नीति को साफ़-साफ़ 'एकतरफ़ा' कहा है. द क्विंट में छपे लेख में लिखा है,
"1947 से आज तक भारत ने लगातार इस बात पर ज़ोर दिया है कि इज़रायल और फ़िलिस्तीन के बीच स्थायी शांति केवल 'टू-स्टेट सल्यूशन' से ही आ सकती है. दिल्ली की विदेश नीति में हमेशा से ही एक आज़ाद फ़िलिस्तीन का समर्थन निहित रहा है. इस बैकग्राउंड में अगर मोदी सरकार केवल हमास आतंकवाद की निंदा करती रही और इज़रायली सेना के फ़िलिस्तीनी नरसंहार पर चुप रही, तो बिला-शक भारत को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी."
उन्होंने कुछ क़ीमत भी गिनवाई भी है. जैसे, ग्लोबल साउथ में भारत की पोज़िशन कमज़ोर हो सकती है. अरब देशों में रह रहे भारतीयों के लिए भी असहज करने वाली स्थिति बन सकती है. भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक कॉरिडोर जैसे समझौतों पर काम बिगड़ सकता है. सुधीन्द्र ने नरेंद्र मोदी को नसीहत भी दी है: 'सिद्धांतवादी बनिए. नैतिक बनिए. हमास और नेतन्याहू दोनों की निंदा करिए.'
अरब का सवालचूंकि अरब देश भारत के स्टैंड के तराज़ू को एक तरफ़ से झुकाते हैं, इसीलिए दी लल्लनटॉप ने इसी सवाल के साथ क्षेत्र की राजनीति और कूटनीति समझने वालों का रुख किया. ORF के ही फ़ेलो और वेस्ट-एशिया की फ़ॉरेन पॉलिसी के एक्सपर्ट कबीर तनेजा ने हमें बताया,
"नरेंद्र मोदी के काल में भारत और अरब देशों के संबंध बेहतर ही हुए हैं. और, पिछले 10 सालों में इज़रायल के साथ भी संबंध मज़बूत हुए हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि हालिया विवाद पर सारे अरब देशों का एक ही अप्रोच है.
मिसाल के तौर पर मिस्र और जॉर्डन ने सीधे तौर पर फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों को लेने से मना किया है. सऊदी अरब ने ईरान से मीटिंग की है कि ये जंग पूरे क्षेत्र में न फैल जाए. वहीं, भारत के सबसे क़रीबी संयुक्त अरब अमीरात (UAE) ने कोई सख़्त-बयानी नहीं की है क्योंकि वो लॉन्ग-टर्म डिप्लोमेसी पर नज़र गड़ाए हुए हैं. यानी सब अपना-अपना हित देख रहे हैं. कोई 'एक अरब व्यू' नहीं है. इसीलिए भारत को अरब देशों की वजह से अपना स्टैंड बदलने की ज़रूरत नहीं होगी."
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वहीं, जवाहरलाल यूनिवर्सिटी (JNU) के सेंटर फ़ॉर वेस्ट-एशियन स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर डॉ अश्विनी महापात्र ने दी लल्लनटॉप को बताया कि अरब देशों की तो मजबूरी है कि वो फ़िलिस्तीन का समर्थन करें. जिस तरह से उनके देश में लोग सड़कों पर हैं, लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं – वहां की सरकारों पर भी एक क़िस्म का दबाव है. अरब देशों ने अरब क्रांति का असर देखा है. इसलिए वो नहीं चाहेंगे कि हमास की वजह से उनके देश में कोई फ़साद हो.
और क्या कारण?थिंक टैंक फॉरेन पॉलिसी के स्तंभकार और स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के विज़िटिंग फ़ेलो सुमित गांगुली और लीडेन यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर निकोलस ब्लारेल ने भारत की विदेश नीति के 'इज़रायली झुकाव' पर एक लेख लिखा है. उन्होंने इस बार के रिस्पॉन्स की तुलना पिछले वाले रिस्पॉन्स से की है. मई 2021 में जेरुसलम की अल-अक्सा मस्जिद में हिंसा भड़कने के बाद भारत ने हिंसा के लिए हमास और इज़राइल, दोनों की ही निंदा की थी. न इज़रायल के साथ संबंधों की परवाह की, न फ़िलिस्तीन के 'कॉज़' से किनारा किया. फिर हालिया संघर्ष के प्रति भारत के रुख में बदलाव क्यों है?
सुमित और निकोलस कुछ फ़ैक्टर्स गिनवाते हैं. पहला, इज़रायल के साथ भारत के संबंध 'विश्वगुरू इमेज' को सूट करता है. भारत ने लंबे समय से पाकिस्तान की ज़मीन से होने वाले आतंकवादी हमलों की मुख़ाल्फ़त की है. इसीलिए हमास के हमलों के प्रति अडिग रुख रखना, देश में तो अच्छा संदेश देता ही है. साथ ही इस्लामाबाद को भी एक मौन संदेश पहुंचाता है.
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फिर रिपोर्ट में अरब देशों की 'नर्म प्रतिक्रिया' को भी हाइलाइट किया गया है. मिस्र से लेकर सऊदी अरब, किसी भी देश ने हमास की करतूतों को खुला समर्थन नहीं दिया है. ज़्यादा से ज़्यादा इज़रायली कार्रवाई की निंदा करते हुए अपील की है, कि जंग और न बढ़े. अरब देशों की ऐसी प्रतिक्रिया नई दिल्ली को इतनी कूटनीतिक छूट देती है, कि हम इज़रायल के साथ खड़े दिख सकें.
अंततः हमास की आलोचना करने से भारत अमेरिका को भी बता रहा है कि हम उनके सहयोग की कितनी क़दर करते हैं. भारत-अमेरिका के संबंध अच्छे तो हैं ही, मगर रूस के यूक्रेन पर आक्रमण करने पर भारत चुप रहा था. बाइडन प्रशासन ने खुले तौर पर तो निंदा नहीं की थी, मगर निराशा के संकेत ज़रूर दे दिए थे. सार्वजनिक तौर पर लीक से बाहर जाकर स्टैंड लेने से अमेरिका के संशय भी कम हो सकते हैं.
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