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इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े इन सवालों के जवाब आपके सारे कंफ्यूजन दूर कर देंगे!

Electoral Bond क्या होते हैं? सिस्टम में समस्या क्या थी? बात सुप्रीम कोर्ट तक कैसे पहुंची? कोर्ट में दोनों तरफ़ से क्या दलील दी गई? CJI ने अपने फ़ैसले में क्या कहा? अब क्या पेच फंसा है? सारे सवालों का जवाब हमने देने की कोशिश की है.

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electoral bond explained
नरेंद्र मोदी सरकार ही चुनावी बॉन्ड स्कीम लेकर आई थी. (तस्वीर - दी लल्लनटॉप)
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सोम शेखर
15 मार्च 2024 (Updated: 15 मार्च 2024, 18:35 IST)
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भारतीय स्टेट बैंक ने चुनावी बॉन्ड से जुड़ी जानकारी का डेटा चुनाव आयोग को सौंप दिया है. लोगों-कंपनियों के ब्योरे आ रहे हैं, कि किसने कितना चंदा दिया. पार्टियों के ब्योरे आ रहे हैं कि किसको-कितना चंदा मिला. ECI को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों से पता चला है कि 1 अप्रैल, 2019 से 15 फ़रवरी, 2024 तक कुल 12,156 करोड़ रुपये का चंदा दिया गया था. 

लगातार आ रही इन जानकारियों के बीच कुछ ज़रूरी सवाल छूट जा रहे हैं. जैसे -

  • इलेक्टोरल बॉन्ड क्या होते हैं? 
  • सिस्टम में समस्या क्या थी?
  • बात सुप्रीम कोर्ट तक कैसे पहुंची? 
  • कोर्ट में दोनों तरफ़ से क्या दलील दी गई? 
  • CJI ने अपने फ़ैसले में क्या कहा? 
  • अब क्या पेच फंसा है?

इसीलिए आज इन सवालों के ज़रिए इस पूरे मुद्दे की टाइमलाइन बता देते हैं.

क्या होते हैं इलेक्टोरल बॉन्ड?

जो पार्टियां आपसे तमाम मौक़ों पर वोट मांगती हैं और वोट मांगने के लिए तमाम पोस्टर, होर्डिंग छपवाती हैं, रैली आयोजित करती हैं, इस सबमें बहुत सारा पैसा लगता है. पार्टियों का पैसा. ये पैसा पार्टियों को चंदे से मिलता है. चंदा देने के कई तरीक़े हैं. सबसे आम तरीक़ा है कि कोई कंपनी या व्यक्ति चेक काटकर पार्टी खाते में जमा करवा दे, या इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफ़र कर दे. एक और तरीक़ा है. अपारदर्शी तरीक़ा. चुनावी बॉन्ड या इलेक्टोरल बॉन्ड.

बॉन्ड माने एक तरह का नोट. मगर सीधा नहीं, 'वाया'. किसी गिफ़्ट वाउचर जैसे. सरकार हर साल चार बार - जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में - दस-दस दिनों के लिए इन्हें जारी करती है. चंदा देने के इच्छुक अलग-अलग मूल्यों के बॉन्ड ले सकते हैं – एक हज़ार, दस हज़ार, दस लाख या एक करोड़ रुपया.

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अब अमुक पार्टी को दो हज़ार रुपये से ज़्यादा चंदा देने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति या कॉरपोरेट हाउस भारतीय स्टेट बैंक की शाखा से ये बॉन्ड ख़रीद सकते हैं. बॉन्ड ख़रीदने के बाद का काम आसान है. अपनी पसंद वाली पार्टी को बॉन्ड दे दीजिए और वो 15 दिनों के भीतर उन बॉन्ड्स को भुनाकर पैसा अपने खाते में जमा करा लेंगी. ठीक वैसे ही, जैसे आप किसी को अकाउंट पेयी चेक देते हैं.

इस सिस्टम में समस्या क्या थी?

चुनावी चंदे में अवैध धन का चलन पुराना है. बड़े-बड़े कारोबारी या बाहुबली-बदमाश अपना अवैध धन पार्टी को दान देते थे. हमेशा से पार्टियों पर पर्दे के पीछे जनता के बजाय, उन चुनिंदा लोगों के हितों के लिए काम करने के आरोप लगते रहे हैं.

जनवरी, 2018 में मोदी सरकार चुनावी चंदे के लिए बॉन्ड का प्रावधान लेकर आई. मक़सद कि पॉलिटिकल फ़ंडिंग को पारदर्शी बनाया जाए. साल 2017 के बजट भाषण के दौरान वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इसे बड़ा चुनावी सुधार बताया था.

मगर इस में एक पेच था. बॉन्ड भुना रही पार्टी को ये नहीं बताना होता कि उनके पास ये बॉन्ड आया कहां से. दूसरी तरफ़, भारतीय स्टेट बैंक को भी ये बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि उसके यहां से किसने, कितने बॉन्ड ख़रीदे. यानी चंदा देने वालों की जानकारी केवल बैंक के पास थी, आम आदमी की पहुंच से दूर. इस प्रावधान को कुछेक चुनौतियां मिलीं, केस दायर हुए, मगर अंततः स्थिति यही रही कि इलेक्टोरल बॉन्ड सूचना के अधिकार (RTI) के दायरे से बाहर थे. चूंकि राजनैतिक दल भी RTI के तहत नहीं आते, तो ये पूरी व्यवस्था ही किसी गुप्तदान की तरह हो गई थी.

बात सुप्रीम कोर्ट तक कैसे पहुंची?

चंदे की पर्दादारी को देखते हुए दो ग़ैर-सरकारी संगठनों - कॉमन कॉज़ और असोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रैटिक रिफ़ॉर्म्स (ADR) ने साल 2017 में बॉन्ड वाली स्कीम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. एक याचिका मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी ने भी लगाई थी. इसपर सुनवाई करते हुए 2019 में आला अदालत ने एक अंतरिम आदेश दिया. राजनैतिक दलों से कहा कि वो बॉन्ड्स की जानकारी चुनाव आयोग को दें. इसके बाद ADR दूसरी बार अदालत गया, ये कहते हुए कि बॉन्ड का फ़ायदा मिल किसको रहा है, ये तो पता चल गया. मगर बॉन्ड ख़रीदने वालों (चंदा देने वालों) की जानकारी प्राप्त करने का कोई तरीक़ा नहीं है.

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मार्च, 2021 में ADR ने एक और याचिका लगाई, कि जब तक मामला अदालत में है, तब तक इलेक्टोरल बॉन्ड बेचने पर रोक लगाई जाए. लेकिन ये याचिका न्यायालय ने रद्द कर दी.

5 अप्रैल 2022 को वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने सर्वोच्च न्यायालय में एक दूसरे मामले में दलीलें देते हुए इलेक्टोरल बॉन्ड्स के मामले का ज़िक्र किया. तत्कालीन CJI एनवी रमन्ना की बेंच ने कहा कि न्यायालय के संज्ञान में मामला है. कोरोना काल के चलते न्यायालय सुनवाई नहीं कर पाया. लेकिन अब इसपर सुनवाई होगी. इसके बाद इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुनवाई की राह एक बार फिर खुली. अलग-अलग तारीख़ें बीतीं. फिर मामला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की टेबल पर पहुंचा.

पिछले साल, 31 अक्टूबर से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई.

CJI ने क्या फ़ैसला दिया?

बॉन्ड की जानकारी सार्वजनिक न करने के पीछे तर्क ये दिया जा रहा था कि डोनर्स के निजता के अधिकार का उल्लंघन करना लोकहित में नहीं है. सूचना के अधिकार के विरुद्ध उसी के ही क्लॉज़ का हवाला दिया. RTI ऐक्ट के सेक्शन 8 (1) (e)(j) के तहत, अथॉरिटी को छूट है कि वो तब तक जानकारी न दे, जब तक उसे विश्वास न हो जाए कि ये जानकारी व्यापक लोकहित से जुड़ी है.

बॉन्ड पब्लिक करने वालों की दलील ये थी कि एक सांसद प्रचार के लिए 70 लाख के क़रीब ख़र्च सकता है. अगर एक पार्टी सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे, तो उसका खर्चा 500 करोड़ से भी कम होगा. लेकिन अकेले एक पार्टी को इतना पैसा मिला है, जो इस सीमा के 10 गुना से ज़्यादा है. और ये लोकतंत्र और चुनावी सिस्टम को ख़त्म कर देगा.

इस साल की 15 फ़रवरी को इस मामले में फ़ैसला आया. CJI डीवाई चंद्रचूड़ की पांच जजों वाली संवैधानिक पीठ ने चुनावी बॉन्ड स्कीम को ही असंवैधानिक क़रार दिया. कहा कि ये सूचना के अधिकार का उल्लंघन है. वोटर्स को चंदा देने वालों की जानकारी होनी चाहिए. साथ ही भारतीय स्टेट बैंक (SBI) को आदेश दिया कि वो बॉन्ड से जुड़ी जानकारी केंद्रीय चुनाव आयोग को सौंपे.

SBI ने समय मांगा, CJI ने नहीं दिया!

सोमवार, 4 मार्च को भारतीय स्टेट बैंक ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि चुनावी बॉन्ड का डेटा जमा करने की समय सीमा बढ़ाई जाए, क्योंकि डेटा को आपस में मिलाने में बहुत समय लगेगा. और इस कारण 30 जून तक का समय मांग लिया.

एक सोमवार बाद, 11 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने SBI की अपील को ख़ारिज कर दिया और सख़्ती से कहा कि SBI को 12 मार्च तक बॉन्ड्स से जुड़ी जानकारियों को जारी करना है. SBI से पूछा गया कि इतने दिनों में क्या किया? बस सील तोड़कर जानकारी निकालनी थी और आगे देना था. इसमें इतना समय क्यों चाहिए?

SBI की तरफ़ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने तर्क रखे, मगर CJI सख़्त रहे. साफ़ कहा कि 15 मार्च की शाम 5 बजे से पहले ECI अपनी वेबसाइट पर इसे कम्पाइल करके पब्लिश करेगी.

अब क्या पेच फंसा हुआ है?

गुरुवार, 14 मार्च की शाम चुनाव आयोग की वेबसाइट पर 763 पेजों की दो लिस्ट्स अपलोड कर दी गई. एक लिस्ट में बॉन्ड ख़रीदने वाली कंपनियों और व्यक्तियों की जानकारी है. दूसरी लिस्ट में बॉन्ड कैश कराने वाली पार्टियों की जानकारी. माने किसने चंदा दिया, उसकी जानकारी है. किसको चंदा मिला, इसकी भी जानकारी है. लेकिन किसने-किसको चंदा दिया, इसकी जानकारी अभी उप्लब्ध नहीं है.

अभी नहीं है, लेकिन हो सकता है. 15 मार्च की सुबह CJI ने फिर से स्टेट बैंक को नोटिस जारी किया कि चुनावी बॉन्ड के 'यूनिक नंबर' का भी खुलासा किया जाए. ताकि चंदा देने वाले और लेने वाले के बीच का लिंक साफ़ स्थापित हो. दरअसल, बॉन्ड एक पन्ना है. पन्ना किसने-किसको दिया, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं होता. जैसे, ऑनलाइन पेमेंट है – उसका रिकॉर्ड रहता है, जांचा जा सकता है. मगर कैश का कोई हिसाब नहीं होता. वैसे ही बॉन्ड ख़रीदने की जानकारी तो सार्वजनिक कर दी गई है, मगर किस कंपनी या किस शख्स ने किस पार्टी को कितने रुपये के बॉन्ड दिए, वो नहीं पता चल पा रहा.

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सुप्रीम कोर्ट ने इसी संबंध में SBI को नोटिस जारी किया है. जैसे चेक में एक यूनीक नंबर होता है, वैसे ही हर बॉन्ड पर एक अल्फ़ा-न्यूमेरिक कोड होता है. अगर उस कोड की जानकारी भी सार्वजनिक कर दी जाए, तो पता चल जाएगा कि किस कंपनी/व्यक्ति ने कौन सा बॉन्ड ख़रीदा और किस पार्टी ने वो बॉन्ड भुनाया. इस पर अगली सुनवाई सोमवार, 18 मार्च को होगी.

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