इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद में 'खेल' देखना है तो अमेरिका का देखो
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बूझने वालों के बीच एक बहुचर्चित मुहावरा चलता है - 'जहां फ़साद, वहां अंकल सैम!' इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद में 'अंकल सैम' कहां हैं?
इज़रायल-ग़ाज़ा जंग (Israel-Gaza War) के बीच 12 अक्टूबर को ख़बर आई कि अमेरिका ने दुनिया के सबसे घातक एयरक्राफ़्ट कैरियर के बेड़े को इज़रायल के पास तैनात कर दिया है. बेड़ा अपने स्ट्राइक ग्रुप के साथ पूर्वी-भूमध्य सागर में ट्रांसफ़र कर दिया गया है. अमेरिकी अधिकारियों ने कहा कि इज़रायल और हमास की जंग के बीच हिजबुल्लाह और ईरान न फ़ायदा उठा लें, इसीलिए उन्होंने ऐसा किया है.
इसी दिन - 12 अक्टूबर को - अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से मिलने भी पहुंचे. उनसे कहा, "अपनी रक्षा करने के लिए आप अपने आप में काफ़ी मज़बूत हैं. लेकिन जब तक अमेरिका है, आप कभी अकेले नहीं हैं. हम हमेशा आपकी तरफ़ रहेंगे."
इसे इज़रायल के साथ एकजुटता के मज़बूत संदेश के तौर पर देखा गया. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बूझने वालों के बीच एक बहुचर्चित मुहावरा चलता है - 'जहां फ़साद, वहां अंकल सैम!' ये अमेरिका के ख़िलाफ़ एक तंज़ है क्योंकि तारीख़ में इस बात के कई सबूत हैं कि दुनिया-भर के लेगेसी विवादों में अमेरिका का हाथ रहा है.
इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद में 'अंकल सैम' कहां?अमेरिका के इंडिपेंडेंट थिंक-टैंक काउंसिल ऑन फ़ॉरेन रिलेशन्स (CFR) ने इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद में अमेरिका की भागीदारी पर एक लंबी रिपोर्ट छापी है. रिपोर्ट के मुताबिक़, अमेरिका आधी सदी से भी ज़्यादा समय से इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद में हिस्सेदार रहा है. कुछ मौक़ों पर तो मेज़बान भी रहा है.
दूसरे विश्व युद्ध के तुरंत बाद ही अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम के साथ मिलकर सिफ़ारिश करने लगा कि यूरोप में हुए होलोकॉस्ट से बचे हुए यहूदी फ़िलिस्तीन चले जाएं. और ये ज़मीन न यहूदियों की होगी, न अरब लोगों की. तब से लेकर आजतक अमेरिका इज़रायल के पाले में है. इज़रायल को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता देने वाला पहला देश भी अमेरिका ही था. और, दर्जनों बार अमेरिका ने UN सुरक्षा परिषद में इज़रायल की निंदा करने वाले प्रस्तावों के ख़िलाफ़ अपना वीटो लगाया है.
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इज़रायल को भरपूर समर्थन देने के चलते अमेरिका ने नुक़सान भी झेला. अरब के तेल उत्पादकों ने अमेरिका पर भारी तेल प्रतिबंध लगाए. उधर, 1967 में हुई '6 दिन की जंग' और 'खाड़ी युद्ध' के बाद से फ़िलिस्तीन को वैधता मिलने लगी थी. साल 1974 में अरब लीग ने फ़िलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) को फ़िलिस्तीनी लोगों के मुखिया संगठन के तौर पर मान्यता दे दी.
फ़िलिस्तीनियों की मांग के प्रति भी अमेरिका शुरू से ही सचेत था. 1978 में अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इज़रायल और मिस्र के बीच 'कैंप डेविड' शांति वार्ता की मेज़बानी की. इस बातचीत से जो निकला, उसने आने वाले समय में मध्य-पूर्व की कूटनीति को एक दिशा में धकेला. और अमेरिका एक नहीं, कई मौक़ों पर इस तरह की वार्ताओं का मेज़बान रहा है. भले ही 1993 के ‘ओस्लो समझौते’ से अमेरिका को बाहर रखा गया हो, मगर मसौदे पर दस्तख़्त वाइट हाउस में किए गए थे.
ओस्लो अकॉर्ड्स के तहत, फ़िलिस्तीन ने इज़रायल के अस्तित्व को माना और इज़रायल ने गाजा और वेस्ट बैंक में फ़िलिस्तीनी स्वायत्तता को मान्यता दी. यानी two-state solution को रास्ता मिला. एक ही ज़मीन पर इज़रायली और फ़िलिस्तीनी राज्य की धारणा. तब राष्ट्रपति बिल क्लिंटन थे. उनके बाद जिसकी भी सरकार आई, सबने two-state solution को ही बढ़ाया. जॉर्ज डब्ल्यू बुश का 'रोड मैप टू पीस' हो, राज्य सचिव जॉन केरी के 'छह सिद्धांत' या ट्रम्प की 'पीस टू प्रॉस्पर्टी'.
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CFR की समीक्षा से कहें तो दशकों से two-state solution ही अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का सबसे सेफ़ विकल्प रहा है: एक फ़िलिस्तीनी राज्य होगा, जिसमें वेस्ट बैंक और ग़ाज़ा का ज़्यादातर भाग शामिल हो. हालांकि, इस धारणा की जिरह करने वाले अधिकतर देशों ने इज़रायल को 1967 से पहले वाली सीमाओं पर लौटने को कहा. लेकिन इस बात पर कोई सहमति नहीं बन पाई कि अगर ऐसा हो जाए, तो उन सीमाओं के भीतर फ़िलिस्तीनियों और उनके परे रहने वाले इज़रायलियों पर क्या असर पड़ेगा?
बावजूद इसके US का सीधा फंडा रहा है - दो राज्य. और, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकारों के बकौल कहें तो इस विवाद को सुलझाने में अमेरिका का एक सामरिक मक़सद रहा है. क्या? जवाहरलाल यूनिवर्सिटी (JNU) के सेंटर फ़ॉर वेस्ट-एशियन स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर डॉ अश्विनी महापात्र ने दी लल्लनटॉप को बताया कि उनके दो सीधे हित हैं. एक तो यहूदी समुदाय दुनिया - और अमेरिका - में अच्छा-ख़ासा प्रभाव रखता है. बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर कांग्रेस तक में यहूदियों की पैंठ है. अमेरिका उन्हें इग्नोर नहीं कर सकता. दूसरा कारण है कि अमेरिका वेस्ट-एशिया में इज़रायल को अपना 'वेस्टर्न पोस्ट' मानता है. माने अमेरिका और पश्चिम की राजनीति का प्रतिनिधि. वहां से उन्हें सैन्य ऑपरेशन में सहयोग मिलता है और पॉलिटिकल ऐक्टिविटी की जगह भी.
प्रो महापात्र के मुताबिक़, अमेरिका के नैरेटिव में इज़रायल बिल्कुल सटीक बैठता है. वो सार्वजनिक तौर पर कहते हैं कि इज़रायल को सपोर्ट का कारण साफ़ है: पूरे इलाक़े में वो इकलौता सक्रिय लोकतंत्र. कुल-मिला कर बात ये कि “अंकल सैम” इज़रायल के साथ अपनी साझेदारी संतुलित भी रखते हैं और क्षेत्रीय स्थिरता की वकालत भी करते हैं. हालांकि, बीते दशक में अमेरिका का हाथ हल्का हुआ है. 2011 की अरब क्रांति के बाद से अमेरिका के हितों पर जोख़िम बढ़ा है. सीरिया और यमन में चल रहे युद्ध, क्षेत्र में दबदबे के लिए ईरान की जुगत और अल-क़ायदा, इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों का उदय अमेरिका के लिए नासूर बना हुआ है.
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आलोचकों का कहना है कि ट्रम्प की विवादास्पद नीतियों से टू-स्टेट समाधान की संभावनाएं सीमित हो गई हैं. बाइडन प्रशासन ने कुछ डैमेज कंट्रोल किया है. ज़रा मौसम तो बदला है, मगर पेड़ों की शाख़ों पर नए पत्तों के आने में अभी कुछ दिन लगेंगे.
प्रो अश्विनी ने हमें बताया कि भले ही हमास और इज़रायली सेना के बीच इस संघर्ष में कुछ भी हो, मगर हालिया विवाद की वजह से फ़िलिस्तीन का मुद्दा वापस चर्चा में आ गया है. जो इराक़ पर अमेरिकी 'क़ब्ज़े', अरब स्प्रिंग और सीरिया-यमन में चल रही जंगों की वजह से छिप गया था.