"लखनऊ से दिल्ली, दिल्ली से लखनऊ...", संसद जाकर क्या हासिल करना चाहते हैं अखिलेश यादव?
अखिलेश यादव ने विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है. हालांकि, एक कश्मकश बनी हुई थी. कश्मकश इसलिए क्योंकि बीते दो सालों में यूपी विधानसभा से अखिलेश की कई तकरीरें वायरल हुईं और समाजवादी पार्टी के लिए विधानसभा में उनकी बराबरी का नेता खोजना फिलहाल मुश्किल है.
बीते लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने नई राजनीतिक इबारत लिखी. राजनीतिक विश्लेषकों और पोल्सटर्स के अनुमानों और विश्लेषणों को धता बताते हुए पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 37 सीटें जीत लीं. समाजवादी पार्टी ने साढ़े 33 फीसदी वोट हासिल किए. लोकसभा चुनावों में यह पार्टी का अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन रहा. चुनाव परिणाम आने के बाद अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की राजनीतिक परिपक्वता का लोहा सबने माना.
इस बीच अखिलेश यादव ने अपनी विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है. इस बार अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की कन्नौज सीट से लोकसभा चुनाव जीता था. ऐसे में कयास लगाए जा रहे थे कि वो शायद अपनी विधानसभा सदस्यता छोड़ देंगे और लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करेंगे. हालांकि, एक कश्मकश बनी हुई थी. 11 जून को मीडिया को संबोधित करते हुए अखिलेश यादव ने कहा था,
"मैंने करहल और मैनपुरी के कार्यकर्ताओं से बातचीत भी की, मिलने का भी काम किया. उन लोगों से मैंने कहा भी कि अब जब दो जगह से मैं चुनाव जीत गया हूं तो एक सीट छोड़नी पड़ेगी. बहुत ही जल्द मैं विधानसभा में जानकारी दे दूंगा कि कौन सी सीट छोड़नी है."
यह कश्मकश इसलिए भी थी क्योंकि 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद अखिलेश यादव ने आजमगढ़ से अपनी लोकसभा सदस्यता छोड़ी थी और यूपी विधानसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर राज्य सरकार की जवाबदेही तय करने का जिम्मा उठाया था. इन चुनावों में भी समाजवादी पार्टी ने रिकॉर्ड मत प्रतिशत हासिल किया था और अखिलेश यादव ने विधानसभा में रहकर संगठन को यूपी में मजबूत करने का जिम्मा उठाया था.
यह कश्मकश इसलिए भी थी क्योंकि बीते दो सालों में यूपी विधानसभा से अखिलेश यादव की कई तकरीरें वायरल हुईं. वो अलग-अलग मुद्दों पर सीधे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से बहस करते नजर आए. नजाकत से लेकर तेवर, इन बहसों के दौरान अखिलेश यादव ने अपने सारे रंग दिखाए. तो जब इस लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने यूपी की 37 सीटें जीत लीं, तब पार्टी और अखिलेश यादव के सामने सवाल खड़ा हुआ कि आखिर वो अब संसद जाएं या विधानसभा रहें. ये सवाल इसलिए क्योंकि यूपी विधानसभा में अखिलेश यादव की बराबरी का नेता खोजना समाजवादी पार्टी के लिए मुश्किल है.
पार्टी के वरिष्ठतम नेता आजम खान यूपी विधानसभा से निष्कासित हो चुके हैं. वहीं पार्टी के पूर्व विधायक और 2017 से 2022 के बीच विधानसभा में विपक्ष के नेता राम गोविंद चौधरी 2022 का चुनाव हार गए थे. इधर, पार्टी के सबसे वरिष्ठ विधायक और कद्दावर नेता लालजी वर्मा भी अपनी विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा देने वाले हैं क्योंकि वो इस बार आंबेडकर नगर सीट से लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं. ऐसे में पार्टी के लिए विकल्पों की बात करें तो शिवपाल यादव, माता प्रसाद और रविदास मेहरोत्रा जैसे नेताओं के नाम उपलब्ध हैं. इन नेताओं के बीच समाजवादी पार्टी को बोलने की कला और जातिगत समीकरणों को फिट करना है.
‘बड़ी तस्वीर देख रहें हैं अखिलेश’इन सभी पहलुओं ने अखिलेश यादव के लिए ये दुविधा पैदा कर दी थी कि वो अपनी विधानसभा सदस्यता छोड़ें या नहीं. हालांकि, अब उन्होंने यह फैसला ले लिया है. राजनीतिक विश्लेषकों और वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है कि अखिलेश यादव एक बड़ी तस्वीर देख रहे हैं और लोकसभा जाने के लिए इससे बेहतर मौका होगा नहीं. वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने हमें बताया,
"लोकसभा चुनावों से पहले समाजवादी पार्टी को उम्मीद नहीं थी कि वो इन चुनावों में इतना उम्दा प्रदर्शन कर सकती है. पहले चरण के मतदान के बाद पार्टी को आंतरिक सर्वे में पता चला कि उसे समर्थन मिल रहा है. इसके बाद पार्टी ने जोर लगाया. तय हुआ कि अखिलेश यादव कन्नौज से लड़ेंगे. और अब जब ये रिजल्ट मिला है और समाजवादी पार्टी संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है तब अखिलेश यादव इसे भुनाना चाहते हैं. वो राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पार्टी के एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहते हैं. साथ ही साथ विपक्ष को धार देना चाहते हैं. इसके लिए उनका संसद में होना जरूरी है."
समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने हमें बताया कि अखिलेश यादव की प्राथमिकता लोकसभा चुनाव में मिले समर्थन को आगे बढ़ाना है और साथ ही साथ यह भी सुनिश्चित करना है कि 2027 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के पास लोगों का समर्थन रहे. हालांकि, इसके लिए ये भी जरूरी है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में पार्टी के पास नेतृत्व करने के लिए एक प्रभावी नेता मौजूद हो.
लेकिन क्या अखिलेश यादव के जाने के बाद पार्टी यूपी विधानसभा में उनकी बराबरी का नेता खोज सकती है? इस बारे में राजदीप सरदेसाई कहते हैं,
"विधानसभा से अखिलेश यादव के जाने के बाद एक खाली जगह तो पैदा हो जाएगी. जिसे भरना पार्टी के लिए फिलहाल मुश्किल है. हालांकि, इसके चलते पार्टी इस सुनहरे मौके को नहीं खोना चाहती कि वो संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है और वहां उसका सबसे मजबूत नेता ना मौजूद हो. आने वाले दिनों में अखिलेश यादव संसद से ही नैरेटिव सेट करने की कोशिश करेंगे और यह सुनिश्चित करना चाहेंगे कि संसद में उनके उठाए गए मुद्दों का यूपी में भी व्यापक असर पड़े."
लोकसभा से अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश की राजनीति पर कितना असर डाल पाएंगे और क्या 2027 के लिए समाजवादी पार्टी को एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभार पाएंगे? इस बारे में इंडिया टुडे से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार कुमार अभिषेक ने हमें बताया,
संसद में अखिलेश का PDA"यह बात सबको पता है कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. इस समय उनका फोकस खुद को केंद्र की राजनीति में स्थापित करने का है. उनके पिता दिवंगत मुलायम सिंह यादव ने भी खुद को केंद्र की राजनीति में स्थापित किया था और बाद में मौका मिलने पर वो सूबे के मुख्यमंत्री बन गए. अखिलेश यादव का लक्ष्य है कि वो समाजवादी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाएं, देश की राजनीति में अपना कद बढ़ाएं, जो जनमत उनकी पार्टी को मिला है उसको मजबूती से संसद के पटल से पूरे देश के सामने रखें. इस पूरी प्रक्रिया में अपने आप ही यूपी की राजनीति पर असर पड़ेगा."
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि इन लोकसभा चुनावों में दलित समाज का एक बड़ा हिस्सा बहुजन समाज पार्टी (BSP) से समाजवादी पार्टी की तरफ आया है. CSDS लोकनीति के सर्वे के मुताबिक, यूपी में जहां 92 फीसदी मुस्लिम और 82 फीसदी यादव मतदाताओं ने INDIA गठबंधन के पक्ष में मतदान किया, वहीं गठबंधन ने 56 फीसदी गैर-जाटव दलित और 25 फीसदी जाटव दलित मतदाताओं को अपने पक्ष में किया. यह कई मायनों में ऐतिहासिक है. इस संदर्भ में कि समाजवादी पार्टी और दलित समाज के मतदाताओं के रिश्ते ठीक नहीं रहे हैं.
ऐसे में अब समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के सामने अपने इस नए समर्थन को बचाए रखना भी एक चुनौती है. इस चुनौती को देखते हुए भी अखिलेश यादव ने लोकसभा में अपनी मौजूदगी सुनिश्चित की है. इस पर वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी बताती हैं,
"संविधान बचाओ, आरक्षण बचाओ और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों ने दलित समाज के मतदाताओं को समाजवादी पार्टी की तरफ मोड़ा. कांग्रेस के साथ गठबंधन ने भी इस संबंध में पार्टी को फायदा पहुंचाया. हालांकि, इस गठबंधन से कांग्रेस पार्टी को भी फायदा हुआ. अपने इस नए समर्थन आधार को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि अखिलेश यादव देश की संसद से इन मुद्दों को उठाएं. इन चुनावों में लोगों ने संदेश दिया है कि वो भले ही NDA की सरकार चाहते हैं लेकिन एक सशक्त विपक्ष भी चाहते हैं. ऐसे में जरूरी है कि अखिलेश यादव संसद में रहकर विपक्ष को एक धार दें."
नीरजा चौधरी कहती हैं कि अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव से पहले PDA का नैरेटिव गढ़ा था. यानी पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों का गठजोड़. वो कहती हैं कि अखिलेश यादव देश की संसद से अपने इस नैरेटिव को धार दे सकते हैं और अगर इसे धार मिलती है तो इसका फायदा उत्तर प्रदेश में भी हो सकता है. उनके पास यह विकल्प तो रहेगा ही कि अगर 2027 के चुनाव में समाजवादी पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में आती है तो वो सूबे के मुख्यमंत्री बनें.
इधर, हाल फिलहाल में अखिलेश यादव कह ही चुके हैं कि लखनऊ से दिल्ली जाया जा सकता है और दिल्ली से लखनऊ आया जा सकता है.
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