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फ़ैज़ के साथ जावेद अख़्तर का ये क़िस्सा पढ़कर उनकी ऐक्टिंग के मुरीद हो जाएंगे!

ये क़िस्सा इतना रैंडम है कि लगेगा फ़िल्म का सीन है.

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javed akhtar with faiz
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और जावेद अख़्तर (फोटो - सोशल मीडिया)
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सोम शेखर
22 जनवरी 2023 (Updated: 22 जनवरी 2023, 12:53 IST)
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जावेद अख़्तर की ज़िंदगी पर लिखी किताब 'जादूनामा' 9 जनवरी को लॉन्च हुई. किताब लिखी है अरविंद मंडलोई ने. इसी के चलते जावेद अख़्तर और अरविंद मंडलोई आए थे लल्लनटॉप के स्पेशल शो 'गेस्ट इन द न्यूज़रूम' में. जावेद अख़्तर ने अपनी किताब, ज़िंदगी और सिनेमा के बकौल ऐसे क़िस्से सुनाए, जो पहले नहीं सुनाए थे. 

20वीं शताब्दी के सबसे बड़े उर्दू शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से जुड़ा भी क़िस्सा सुनाया. क़िस्सा फ़ैज़ के भारत दौरे का. और, ऐसा क़िस्सा कि अगर इस बात की तस्दीक़ फ़ैज़ साहब ख़ुद न करते, तो यक़ीन भी न होता कि ये क़िस्सा सच्चा है या नहीं.

1968 के आसपास की बात है. जावेद साहब की उम्र, 22-23 साल. तब जावेद साहब के फ़ाक़ा-कशी के दिन थे. कोई घर नहीं था. कमाल स्टूडियो के कंपाउंड में ही सोते थे. कभी खाना खा लिया, कभी किसी ने खिला दिया. कभी भूखे रह गए. शराब पर पाबंदी थी और ये वक़्त था जब जावेद अख़्तर शराब पीते थे. छोटे-छोटे अड्डों पर देशी शराब मिलती थी. जावेद अख्तर कहते हैं,

"फ़ैज़ आए थे बॉम्बे. रंगभवन में उनका मुशायरा था. बहुत बड़ा ओपन थिएटर है मरीन लाइंस पर. और, मैं रहता था अंधेरी में. मेरे पास तो वहां तक पहुंचने की भी पैसे नहीं थे. मुशायरे का टिकट ख़रीदना तो दूर की बात. मैं बड़ा दुखी था कि इतना बड़ा शायर है, हम तो बचपन से उन्हें पढ़ते आए हैं और अपना हाल है कि उसे सुन भी न पाएंगे. वहां तक जा भी नहीं सकते. मैं शायद ज़्यादा दुखी दिख रहा था, तो मेरे एक दोस्त ने कहा कि चलो तुम्हें ठर्रा पिला दिया जाए. मैं चला गया. हम पीने लगे. वक़्त का अंदाज़ा नहीं रहा. मेरे ख़्याल से 10-11 बज गए होंगे. फिर नशे में तो हिम्मत आ जाती है. मैं उसी हिम्मत और नशे में वहां से निकला और सीधा जाकर लोकल ट्रेन में बैठ गया. बग़ैर टिकट के.

ट्रेन पहुंची मरीन लाइंस और मैं उतर गया. शायद इतनी देर हो गई थी कि वहां पर कोई टिकट चेकर भी नहीं था. मैं बाहर निकल गया. चलते-चलते रंगभवन पहुंचा. नशे में धुत्त. रंगभवन के गेट पर भी कोई नहीं था, इसका मतलब मुशायरा अपने अंतिम पड़ाव पर होगा. शायद 12-12:30 बज गए होंगे. मुझे अंदाज़ा नहीं वक़्त का."

जावेद साहब ने बताया कि नशे की वजह से उन्हें कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. सो वो स्टेज के पीछे चले गए. वहां एक तकिया रखा था. कब तकिये से सिर लगा, कब वो सो गए, उन्हें पता नहीं. जब आंख खुली, तो मुशायरा ख़त्म! सब जा चुके थे. कुछ दूर पर फ़ैज़ साहब दिख रहे थे. वो अपनी कार की तरफ़ जा रहे थे और उनके फ़ैन्स उन्हें घेरे हुए थे. कार्यक्रम के एक वॉलंटियर को फ़ैज़ साहब की देख-रेख की ज़िम्मेदारी मिली थी. मामला संभाल के पार जा रहा था. ये देखकर जावेद साहब ऐक्टिव हो गए.

"मैं तेज़ी से गया वहां और जो वॉलिंटियर था, उसे ज़ोर से डांटा - 'क्या कर रहे हो तुम? इन्हें कंट्रोल नहीं कर सकते तुम? आइए फैज़ साहब, आप इधर आइए.' फ़ैज़ साहब को मैंने गाड़ी में बैठाया. मैं बैठा गाड़ी में, दूसरी तरफ़ से. और, वॉलंटियर बैठा ड्राइवर के बग़ल में. मैंने फिर डांटा - 'चलो गाड़ी निकालो तुम'. 

गाड़ी आगे बढ़ी, तो मैंने उनसे से बात शुरू की. मैंने पूछा, 'बहुत दिन बाद भारत आए?' उन्हें भी नहीं मालूम कि मैं कौन हूं. मेरा नाम नहीं जानते थे. वो भी कहने लगे, 'हां मियां, हमारा तो बड़ा दिल करता है. हर साल ही आना चाहते हैं.'

हमारी बातचीत होती रही. वॉलंटियर सोच रहा होगा कि इन दोनों की बात हो रही है, तो एक-दूसरे को जानते ही होंगे. होटल गुलमर्ग में वो ठहरे थे. गाड़ी होटल के सामने रुकी. मैं उतरा. फ़ैज़ साहब उतरे. अब ये वॉलंटियर मुझसे पूछ रहा है कि गाड़ी रखनी है या छोड़ दें. मैंने फ़ैज़ साहब से पूछा कि गाड़ी रखनी है या छोड़ दें? उन्होंने कहा कि अब तो कहीं जाना नहीं, गाड़ी का क्या काम? गाड़ी को रवाना कर दिया."

इसके बाद दोनों होटल के अंदर चले गए. जावेद अख़्तर ने रिसेप्शन से चाबी ली. कमरे में गए. कमरे की मेज़ पर एक विस्की की बोतल रखी थी. फ़ैज़ ने उनसे कहा कि ग्लास और सोडा मंगवा लें. उन्होंने रूम सर्विस में फोन कर के मंगवा लिया. अब इस समय तक फ़ैज़ को लगने लगा कि जावेद ऑर्गनाइज़र के कोई ख़ास आदमी हैं. ग्लास आए. दोनों के लिए पेग बनाए. पीने लगे. जावेद साहब ने फ़ैज़ से उर्दू लिपि की चर्चा छेड़ दी. बात हो ही रही थी कि उर्दू के प्रसिद्ध लेखक-कवि अलि सरदार जाफ़री और शायर-गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी आ गए. उन दोनों ने देखा कि यहां तो बहस हो रही है. उन्हें भी लगा कि जानते ही होंगे दोनों एक-दूसरे को. वो भी बैठ गए. फ़ैज़ ने कहा कि दो ग्लास और मंगवा लिए जाएं. हुक्मानुसार जावेद साहब ने फिर फोन किया. दो ग्लास और मंगवा लिए. पहले का ठर्रा और अभी की स्कॉच मिलकर जावेद साहब के आपे के पार चली गईं. सो उन्होंने फ़ैज़ से कहा,

"फ़ैज़ साहब, मैं सोता हूं.

उन्होंने कहा- 'हां मियां! अब आप सो जाइए.'

मैं अंदर गया बेडरूम में. दो बेड थे, तो मैं एक बेड पर सो गया. अभी तक तो मामला ठीक था. अब सुबह हो गई. नशा उतर गया है. मैं चादर पूरी ताने हुए बाहर की आवाज़ सुन रहा हूं. बाहर कुलसुम सियानी की आवाज़ आ रही है. कुलसुम सियानी, जो मशहूर रेडियो प्रेज़ेंटर अमीन सयानी की मां थीं. उन्होंने ही मुशायरा ऑर्गेनाइज किया था और उसी समय, वहां पर फ़ैज़ साहब का इंटरव्यू चल रहा है. चार-पांच अख़बार के पत्रकार आए हुए हैं.

मैं चादर के अंदर सब सुन रहा हूं. और, कुलसुम सियानी बड़ी परेशान हैं कि ये आदमी कौन सो रहा है. बात-बात में पूछें, 'ये कौन साहब आप सो रहे हैं?' फ़ैज़ साहब सवाल से बच रहे हैं. (क्योंकि उन्हें भी नहीं पता) मैं ये बातचीत अंदर से सुन रहा हूं. तो मैं बिना किसी हरक़त के, अचानक उठा. और पूछा,

'फ़ैज़ साहब मैं चलूं?'

तो कहने लगे, 'हां मियां. आप जाइए.'

मैं निकल गया बाहर."

ये क़िस्सा इतना रैंडम है कि जावेद अख़्तर ख़ुद कहते हैं कि अगर फ़ैज़ साहब के गुज़रने के बाद वो ये क़िस्सा सुनाते, तो लोग कहते कि बात बना रहे हैं. क्योंकि फ़ैज़ का वक़ार ऐसा था. उन्हें पाकिस्तान के प्रतिनिधि के जैसा ट्रीटमेंट मिलता था. और, तब एक 22 साल का लड़का उनके साथ शराब पिए, उनके कमरे में सो जाए, ये मानना मुमकिन नहीं था. लेकिन, फ़ैज़ के जाने से पहले जावेद उनकी बेटी सलीमा हाशमी से मिले. जो बहुत बड़ी पेंटर हैं. उन्हें ये क़िस्सा सुनाया, तो उन्होंने जा कर अपने पिता से पूछा. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने माना कि ये हुआ था, लेकिन वो जावेद को पहचान गए थे. हालांकि, जावेद साहब का दावा है कि फ़ैज़ को कोई सुराग़ नहीं था कि वो कौन हैं.

वीडियो: गेस्ट इन द न्यूज़रूम: जावेद अख्त़र ने नेहरू और फै़ज़ अहमद फै़ज़ से जुड़ा मजे़दार किस्सा सुनाया

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