आरक्षण, दलित, किसान या सहानुभूति, महाराष्ट्र में BJP को कौन ले डूबा?
महाराष्ट्र में भाजपा को 9 सीटें मिली हैं. पिछले चुनाव में 23 मिली थीं. भाजपा के महायुति सहयोगियों का भी प्रदर्शन कुछ ख़ास नहीं रहा. एकनाथ शिंदे गुट को सात सीटें मिलीं, और अजित पवार की NCP को सिर्फ़ एक. माने कुल 48 सीटों वाले इस राज्य में NDA 17 सीटों पर सिमट गई, जो 2014 में 43 थीं.
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले से ही ऐसे क़यास थे कि कुछ राज्य BJP का गेम बिगाड़ सकते हैं. इनमें कर्नाटक, बंगाल और महाराष्ट्र का भी नाम था. कर्नाटक में तो गेम नहीं 'बिगड़ा', मगर उत्तर प्रदेश ने बीजेपी समेत पूरे देश को सरप्राइज कर दिया. वहीं, महाराष्ट्र और बंगाल ने क़यासानुसार नतीजे सुनाए हैं. महाराष्ट्र में BJP को सिर्फ 9 सीटें मिली हैं; पिछले चुनाव में 23 मिली थीं. BJP के महायुति सहयोगियों का भी प्रदर्शन कुछ ख़ास नहीं रहा. मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली शिवसेना को सात सीटें मिलीं, और अजित पवार की NCP को सिर्फ़ एक. इस तरह 48 सीटों वाले इस राज्य में NDA 17 सीटों पर सिमट गई. जबकि 2014 में, संयुक्त सेना के साथ गठबंधन में NDA ने 43 सीटें जीती थीं.
क्या रही वजहें?- OBC बनाम मराठा: मराठवाड़ा इलाक़े में BJP कोई भी सीट नहीं जीत पाई. सूबे की राजनीति समझने वाले बता रहे हैं कि जिस तरह से राज्य सरकार ने मराठा आरक्षण आंदोलन को मैनेज किया, उसी वजह से उन्होंने इस क्षेत्र की आठ सीटें खो दीं.
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मराठा आरक्षण लंबे समय से राज्य में बड़ा मुद्दा रहा है. बहुतेरे अभियानों और ऐक्टिविस्ट्स के दबाव की वजह से मराठों के लिए अंततः 10% कोटा आ तो गया, मगर कोर्ट में फंस गया. लेकिन इस पूरे प्रकरण में मराठाओं के बरक्स OBC समुदाय सशंकित हो गया. चूंकि OBC, BJP का एक ठोस वोट बैंक रहा है, सो मराठा आरक्षण के राजनीतिक निहितार्थ भी निकाले गए. साल 2019 में BJP ने बीड, जालना, नांदेड़ और लातूर सीटों पर शानदार जीत दर्ज की थी. इसीलिए पार्टी पर ये आरोप लगे कि अपना वोट बैंक बचाने के लिए उन्होंने 'मराठा हित' को टाला.
साथ ही प्रदर्शन के दौरान हिंसा की घटनाएं भी हुईं. इससे मराठा समुदाय भारतीय जनता पार्टी के सीधे ख़िलाफ़ हो गया.
- कृषि में अस्थिरता: राज्य का 55% हिस्सा ग्रामीण है. इसलिए किसानी हमेशा से महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्र में रही है. पश्चिमी महाराष्ट्र में गन्ना बेल्ट है, उत्तरी महाराष्ट्र में प्याज, विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र में सोयाबीन और कपास. सभी क्षेत्रों में किसानों की नाराज़गी साफ़ देखी जा सकती है. एक तरफ़ किसान क्लाइमेट चेंज की वजह से पिसता है, दूसरी तरफ़ कृषि नीतियों की वजह से.
- द दलित वोट: महाराष्ट्र में दलितों की संख्या क़रीब 10.5% है. राज्य में आम्बेडकर फैक्टर बहुत ज्यादा मायने रखता है. विदर्भ, मराठवाड़ा और मुंबई में पार्टी के प्रदर्शन को देख कर राज्य की दलित आबादी में BJP को लेकर संशय झलकता है. कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक कहा जा रहा है कि 2014 और 2019 में BJP को दलितों का ठीक-ठाक वोट मिल गया था. मगर अब की बार इंडिया ब्लॉक का वो नैरेटिव काम आ गया कि 'नरेंद्र मोदी सरकार संविधान बदलना चाहती है, आरक्षण छीनना चाहती है'.
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- उद्धव ठाकरे, शरद पवार के लिए सहानुभूति: 2019 के विधानसभा चुनावों में BJP बहुमत हासिल नहीं कर पाई थी, और तभी से राज्य में राजनीतिक ऊहापोह बनी हुई है. पहले शिवसेना टूटी, फिर NCP. अब BJP वापस सत्ता में है. साथ में दोनों पार्टियों के छिटके हुए गुट हैं. बंटवारे में शिंदे सेना को पार्टी का नाम और सिम्बल, दोनों मिल गए. लेकिन उद्धव गुट को कुछ ख़ास दिक़्क़त नहीं हुई. उन्होंने राज्य में 9 सीटें जीतीं. शिंदे गुट से दो ज़्यादा. यही हाल अजित पवार की NCP का भी था. उन्हें भी शरद पवार की पार्टी से अलग होकर उन्हीं का नाम और चिह्न मिल गए. मगर फ़ायदा कोई नहीं. पवार सीनियर के गुट ने सात सीटें जीती हैं, जबकि अजित गुट ने सिर्फ़ एक. यहां तक कि बारामती की चर्चित पवार बनाम पवार लड़ाई भी शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने ही जीती.
इंडियन एक्सप्रेस की शुभांगी खापरे की रिपोर्ट के मुताबिक़, वोटर्स बहुत मुतमइन नहीं था. ऐसा लगता है कि जनता में शिवसेना और NCP के 'ओरिजनल' नेताओं - उद्धव ठाकरे और शरद पवार - के लिए एक तरह की सहानभूति पैदा हुई. ये भावना आई कि उनकी पार्टीज़ उनसे 'चुराई' गई हैं.
इससे जो डेंट BJP को लगा, उसका नफ़ा कांग्रेस के खाते में जुड़ा है. 2014 में दो सीटें और 2019 में सिर्फ़ एक सीट जीतने के बाद, इस बार पार्टी 13 सीटों तक पहुंच गई है.
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