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उत्तर प्रदेश में भाजपा को 'संविधान बचाओ' के नारे ने हरा दिया? सच जान लीजिए

ऐसा क्या फ़ैक्टर है, जो उत्तर प्रदेश में चला. क्या 'अबकी बार 400 पार' का नारा बीजेपी को बैक फायर कर गया?

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rahul gandhi akhilesh yadav up
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सोम शेखर
6 जून 2024 (Published: 12:16 IST)
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उत्तर प्रदेश में INDIA गठबंधन को अप्रत्याशित जीत मिली है. सारे एग्ज़िट पोल्स को धता बताते हुए यूपी की जनता ने 'यूपी के दो लड़कों की जोड़ी' को जनादेश दिया. सपा के ख़ेमे में 37 और कांग्रेस के पाले छह सीटें आईं. अब इस अबूझ नतीजे के मायने खोजे जा रहे हैं, वजहें तलाशी जा रही हैं. अलग-अलग थ्यौरी हैं. सपा का टिकट बंटवारा, लोकल डिस्कनेक्ट, जातीय समीकरण. लेकिन गिनवाने वाले इनके अलावा एक और फ़ैक्टर बता रहे हैं, 'संविधान फ़ैक्टर'. या कहें, 'संविधान बचाओ फ़ैक्टर'.

चौक से लेकर चुनावी समीक्षकों तक चर्चा है कि कांग्रेस ने भाजपा के '400 पार' वाले नैरेटिव को 'संविधान बदलने, आरक्षण छिनने' से जोड़ा और इसी का फ़ायदा मिला. लेकिन फिर इस थियरी के काउंटर में एक तर्क दिया जा रहा है - अगर आरक्षण जाने का डर यूपी में बिका, तो बिहार में क्यों नहीं? जबकि जातिगत लकीरें तो बिहार में भी हैं, और 2015 के विधानसभा चुनाव ने इसी नैरेटिव पर महागठबंधन ने भाजपा की खटिया खड़ी कर दी थी.

कितना असरदार रहा ‘संविधान फ़ैक्टर’?

उत्तर प्रदेश के नतीजे देख के जानकार एक निष्कर्ष की तरफ़ पहुंच रहे हैं. दोनों गुटों ने एक-दूसरे के एजेंडे पर नैरेटिव तैयार किया. भाजपा ने कांग्रेस के सामाजिक-आर्थिक सर्वे वाली बात को वेल्थ री-डिस्ट्रीब्यूशन (संपत्ति के सरकारी वितरण) और मंगलसूत्र के जुमले से जोड़ा. दूसरी तरफ़, कांग्रेस ने ये प्रचार किया कि भाजपा 400 पार इसलिए चाहती है कि संविधान बदल सके. आरक्षण छीन सके. हालांकि, नतीजों से स्पष्ट है कि कौन सा तुर्रा चला.

यहां ग़ौर करने वाली बात है कि दोनों में से किसी भी पार्टी ने ये वादे किए नहीं थे, जो उनके ख़िलाफ़ प्रचारित किए गए. न कांग्रेस ने वेल्थ-रीडिस्ट्रीब्यूशन को लेकर अपने मैनिफ़ेस्टो में कुछ लिखा, न उनके किसी नेता ने ऐसा बयान दिया था. ऐसे ही, भाजपा ने कभी भी संविधान बदलने या आरक्षण छीनने की बात अपने मैनिफ़ेस्टो या भाषण में नहीं की थी.

लेकिन इसके बरक्स एक तर्क दिया जा रहा है, कि अगर आरक्षण छिनने का डर वोटर को उत्तर प्रदेश में चेताता है, तो बिहार में क्यों नहीं? बिहार में तो 2015 के विधानसभा चुनाव में ये सबसे बड़ा मुद्दा था. तब राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू यादव ने RSS प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान को ऐसे ही पैकेज किया कि भाजपा आरक्षण छीनने वाली है. नतीजा: राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. जद(यू) दूसरे नंबर पर रही, 71 सीटों के साथ. 53 सीटों के साथ भाजपा तीसरे नंबर पर रही.

हालांकि, इसके जवाब में जानकारों के बीच मतांतर है. दी लल्लनटॉप ने प्रोफ़ेसर और लेखक बद्री नारायण से बात की. उनका कहना है कि बिना डेटा के इस वक़्त कुछ भी कहना ठीक नहीं. ऐसा तो हो नहीं सकता कि जाटवों का सारा वोट सपा को चला गया हो. और जितना गया भी है, वो संविधान फ़ैक्टर की वजह से ही है, ये कहना भी माकूल नहीं. 

वहीं, नमिता बाजपेयी ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस के लिए लिखा कि भगवा पार्टी संविधान के लिए ख़तरे वाला नैरेटिव काउंटर नहीं कर पाई. सफ़ाई देने के बावजूद नैरेटिव गूंजता रहा.

द दलित वोट

दलित समुदाय का वोट अहम था, होता ही है. वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार ने NDTV में अपने कॉलम में लिखा है कि बीजेपी की ही रणनीति उनके ख़िलाफ़ गई है. पिछले लोकसभा चुनाव हो या पिछले दो विधानसभा चुनाव, भाजपा ने प्रदेश में बसपा के जाटव बेस (13% वोट शेयर) के ख़िलाफ़ ग़ैर-जाटव को अपनी तरफ़ करने की कोशिश की है. इससे उन्हें फ़ायदा भी हुआ. मगर इस बार कांग्रेस के संविधान बदलने वाले नैरेटिव में नत्थी हो कर ये उलटा पड़ गया. अजय लिखते हैं,

ऐसा होने के लिए जाटवों को न केवल बसपा से अलग होना था, बल्कि यादवों से अपनी अदावत को भूल सपा को स्वीकारना था. प्रदेश की दलित आबादी और यादव समुदाय में घर्षण रहा है. उसकी झलकियां अभी ताज़ा हैं. मगर चौंकाने वाली बात है कि पिछड़े वर्ग के वोट बैंक एक बड़ा हिस्सा सपा की तरफ़ शिफ़्ट हुआ है.

अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग बनाम 'चाणक्य नीति'

सूबे की राजनीति ऑब्ज़र्व करने वाले हाइलाइट करते हैं कि इस बार अखिलेश यादव का टिकट बंटवारा बहुत स्मार्ट था. एक अच्छी सोशल इंजीनियरिंग की समझ के संकेत मिलते हैं. पार्टी का पुराना समीकरण है, मुस्लिम-यादव (MY). मगर इस बेस पर जो पूरी तरह आश्रित होने वाला रवैया है, सपा ने इस बार उसे किनारे किया.

ये भी पढ़ें - 'सपरिवार' संसद जाएंगे अखिलेश यादव, पत्नी, भाई-भतीजे सब जीत गए

M.Y. समीकरण के केवल 9 उम्मीदवारों को टिकट दिए गए. इनमें से पांच यादव हैं, जो उन्हीं के परिवार के हैं और बाक़ी चार मुसलमान. इनके अलावा 48 उम्मीदवार OBC हैं. इससे उत्तर प्रदेश में अमित शाह की टैक्टिक्स फेल होती दिख रही है. उन्होंने यादवों के बरक्स ग़ैर-यादव OBCs को अपने पाले करने की कोशिश की. अखिलेश ने वही फ़ॉर्मुला अपना लिया.

और क्या-क्या कारण?

लोकल सत्ता-विरोधी लहर - कई मौजूदा सांसदों के ख़िलाफ़ उनकी सीट पर सत्ता-विरोधी लहर थी. पार्टी के सूत्रों के हवाले से ख़बर छपती रहती थी कि पार्टी सर्वे में जिन नेताओं के ख़िलाफ़ जनता में ग़ुस्सा था, भाजपा के रणनीतिकारों ने उन्हें फिर भी टिकट दिए. कम से कम 30-35 प्रतिशत सांसदों के ख़िलाफ़ ऐसी रिपोर्ट्स थीं, मगर पार्टी ने केवल 14 को ही बदला. 

ध्रुवीकरण काम नहीं आया - फिर भाजपा अल्पसंख्यकों को मनाने में भी बहुत सफल रही नहीं. मीडियो रपटों में छप रहा है कि इस वजह से कम से कम 85 प्रतिशत मुस्लिम वोट विपक्ष के पाले चले गए. वहीं, हिंदू वोटर ने एकमुश्त वोट दिया नहीं. जाति के आधार पर वोट किया.

मायावती फ़ैक्टर की कमी - कभी प्रदेश में बसपा की अपनी साख थी, अपने वोटर. क़रीब 20%. इस चुनाव में खाता भी न खोल पाई. 2019 के अपने 19.43 प्रतिशत वोट शेयर को बरक़रार भी न रख पाई. और, बसपा का ये नुक़सान इंडिया ब्लॉक के फ़ायदे में जुड़ गया.

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