ग्रैविटी है, 100 हाथियों जितना वजन है फिर भी बादल नीचे क्यों नहीं गिरते?
बादल हवा में लटके रहते हैं. ऐसा क्यों?
क्या आपने कभी सोचा है कि बादल क्यों गुरुत्वाकर्षण यानी ग्रेविटी को चुनौती दे रहे हैं? कैसे वो आसानी से आसमान में तैरते रहते हैं? ये एक ऐसी रोचक घटना है जिसे हम में से कई लोग हल्के में ले लेते हैं. अगर जानो तो इसके पीछे का विज्ञान वाकई में चौंकाने वाला है.
तो तैयार हो जाईये प्रकृति की सबसे दिलचस्प रहस्यों में से एक की तह टटोलने के लिए.
आगे जानेंगे कि ये बादल क्यों उड़ते-फिरते हैं? ये आखिर नीचे क्यों नहीं गिर जाते?
आज का साइंसकारी इसी गुत्थी को आसान भाषा में सुलझाने को समर्पित.
पहले ये जाना जाए कि बादल बनते कैसे हैं?ये तो सब जानते ही हैं कि बादलों से ही पानी बरसता है. ऐसा इसलिए क्योंकि वो पानी से ही बने होते हैं. तापमान के हिसाब से इनमें पानी के साथ बर्फ के क्रिस्टल भी हो सकते हैं.
लेकिन पहले ये जाना जाए कि ये पानी आता कहां से है.
होता ये है कि हमारी धरती और उसके आसपास जो हवा है उसमें अलग-अलग गैसों के molecules (मॉलेक्युल्स) यानी कण होते हैं. जैसे नाइट्रोजन (N2) और ऑक्सीजन (O2). इनके अलावा और भी कई दूसरी गैस होती हैं लेकिन बहुत कम मात्रा में.
गैसों के ये मॉलेक्युल्स चलते-फिरते रहते हैं. आपस में भिड़ते रहते हैं.
अब एंट्री होती है सूरज की. सूरज की गर्मी से ज़मीन गर्म होती है. इससे ज़मीन के ठीक ऊपर जो हवा होती है वो भी धीरे-धीरे गर्म होने लगती है. फिजिक्स के मुताबिक ये गर्मी एक तरह की एनर्जी यानी ऊर्जा होती है. गर्मी या heat (हीट) वाली एनर्जी, यानी heat (हीट) एनर्जी.
आगे ये एनर्जी हवा के मॉलेक्युल्स में ट्रांस्फर होती है.
किसी चीज़ का तापमान बढ़ने के पीछे की साइंस यही है. उसके मॉलेक्युल्स में इतनी तड़कती-भड़कती एनर्जी घुस जाना कि जो मॉलेक्युल्स पहले चल-फिर रहे थे वो अब नाचने लगें.
इस तरह तापमान बढ़ने पर हवा गरम हो जाती है. अब क्योंकि आसमान में बहुत जगह है तो ये मॉलेक्युल्स बिखर कर एक दुसरे से दूर जाने लगते हैं.
मॉलेक्युल्स के दूर हो जाने से जितने मॉलेक्युल्स पहले एक जगह पर इकट्ठा थे अब उससे कम रह जाते हैं. इससे गरम हवा हल्की होने लगती है. ऊपर उठने लगती है. फैलने लगती है.
अब क्या होता है वो एक-एक करके समझते हैं:
1. हमारी धरती ने जो कई किलोमीटर मोटी हवा की चादर ओढ़ रखी है उसमें ऊपर ठंडी हवा होती है. सूरज की गर्मी से जो गतिविधि नीचे हो रही थी उसको ऊपर वाली ठंडी हवा तक पहुंचने में टाइम लगता है. ठंडी होने की वजह से ऊपर वाली हवा के मॉलेक्युल्स भी पास-पास ही होते हैं.
2. एक तो ठंडी हवा, ऊपर से मॉलेक्युल्स भी एकदम पास-पास पैक. ये हवा को भारी कर देता है. अब क्योंकि भारी चीज़ तो नीचे आएगी ही, ये ठंडी हवा भी नीचे आने लगती है. गरम हवा ऊपर और ठंडी हवा नीचे — यही फार्मूला है.
3. साथ ही साथ हवा में मौजूद नमी यानी water vapour (वॉटर वेपर) भी गरम हवा के साथ ऊपर चली जाती है. साथ ही साथ हवा में मौजूद नमी यानी water vapour (वॉटर वेपर) भी गरम हवा के साथ ऊपर चली जाती है. ये गलती से दो बार नहीं लिखा है, इम्पोर्टेन्ट बात है इसलिए लिखा है.
4. जैसे-जैसे गरम, और नमी वाली हवा वातावरण में ऊपर बढ़ती जाती है, तापमान कम होने लगता है. और water vapour (वॉटर वेपर) ठंडा हो कर पानी की बूंदों का आकर लेने लगता है.
5. इन्हीं अरबों-खरबों बूंदों से बादल बनता है.
वैसे एक बादल के ऊपर जाने की और भी कई वजहें हो सकती है.
ये बादल के टाइप पर डिपेंड करता है. किस टाइप का बादल आसमान में किस ऊंचाई पर होगा, उसका आकार कैसे होगा इसके लिए एक इन्टेरशनल क्लाउड एटलस भी है. और जानकारी के लिए आप लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं.
फ़िलहाल हम फोकस करेंगे सबसे आम तरह के बादल पर. इसको cumulus (क्यूमलस) बोलते हैं. वही सफ़ेद रुई जैसा दिखने वाले बादल जिसका चित्र बचपन में हम सबने बनाया है. इस cumulus (क्यूमलस) को अपन आगे बादल ही बोलेंगे.
खैर ये तो हम ने साबित कर दिया है कि बादल पानी से ही बना है. अब आप पूछ सकते हैं कि पानी तो हम मटके से ग्लास में भी भरते हैं. उस ग्लास में भरे पानी को अगर हवा में उछाला जाए तो वो तो तुरंत नीचे आ कर हमको गीला कर जाता है. वो पानी भी क्यों बादल की तरह वहां हवा में ही नहीं अटक जाता?
अब ये भी जान लेते हैं.
हाथी से भी भारी बादल नीचे क्यों नहीं आ जाते?इसके कई कारण हैं. सबसे पहला है condensation (कंडंसेशन). Condensation (कंडंसेशन) मतलब वो प्रक्रिया जिसमें एक गैस ठंडी होकर लिक्विड बन जाती है. आपने देखा होगा ना कि आपकी कोल्ड ड्रिंक के ठंडे ग्लास के चारों ओर कैसे पानी की बूंदें जमा हो जाती हैं. ये condensation (कंडंसेशन) की वजह से ही होता है. ग्लास के पास वाली हवा में नमी होती है. इसी नमी को water vapour (वॉटर वेपर) बोला जाता है. ये गैस के रूप में होती है. और condensation (कंडंसेशन) से ठंडा होकर ग्लास की सतह पर पानी बनकर जम जाती है.
अब कोई गरम चीज़ जब ठंडी होती है तो उसकी गर्मी कहीं तो जाती ही होगी! यही गर्मी ग्लास को धीरे-धीरे नार्मल तापमान पर लाने में खर्च हो जाती है.
कुल जमा-जोड़ ये कि कंडेंसशन की प्रक्रिया में थोड़ी गर्मी यानी कि heat (हीट) भी निकलती है.
ऐसे ही जब बादल में water vapour (वॉटर वेपर) ठन्डे होकर पानी की बूंद बनने लगते हैं तो इस प्रक्रिया से निकली गर्मी बादल को भी अंदर से गर्म कर देती है. ये गर्मी बादल को और ऊपर की तरफ धक्का देती है.
इसी लॉजिक से मेले में मिलने वाला गैस का गुब्बारा भी हवा में ऊपर उड़ता है.
अब बादल के तैरने के बाकी कारण जानने से पहले एक और उदाहरण लेते हैं. सुबह-सुबह आपने अपने कमरे की खिड़की में से आती धूप की किरणों को देखा होगा. उन किरणों में तैरते हुए धूल के कणों को भी देखा होगा.
हो सकता है मौज-मस्ती में आपने कभी हाथ से उन धूल के कणों को परेशान भी किया हो. ऐसे करने पर अगर आपने गौर किया हो तो धूल के कण हवा में बौराए से उड़ने लगते हैं.
अब साइंस की नज़र से देखते हैं कि यहां हुआ क्या.
हवा में तैरती किसी चीज पर बहुत सारे फोर्स लग रहे होते हैं. वो चीज़ एक ही जगह टिकी रहे इसके लिए उन सभी फोर्स में एक बैलेंस होना ज़रूरी है.
बहरहाल, इन सब में दो फोर्स सबसे इम्पॉर्टेन्ट हैं.
1. पहला, नीचे से ऊपर की ओर उठती गरम हवा का फ़ोर्स, और
2. दूसरा, ऊपर से नीचे की और लगता हुआ ग्रैविटेशनल फोर्स यानी गुरुत्वाकर्षण बल.
अगर ये दोनों फोर्स एक दूसरे के बराबर होंगे तो चीज़ अपनी जगह बनी रहेगी.
लेकिन अगर कोई चीज़ इतनी छोटी और हल्की हो कि उस पर गुरुत्वाकर्षण अपना खेल ही नहीं खेल पाए तो हवा या किसी भी वजह से ज़रा भी डिस्टर्ब होने पर वो यहां-वहां तैरने लगेगी. जैसा धूल के कणों के केस में होता है. उन धूल के कणों को तकनीकी रूप से गुरुत्वाकर्षण नीचे खींच रहा होता है, लेकिन वे इतने हल्के होते हैं कि अगर उनको कोई अपने हाथ से हिला दे तो वो यात्रा पर निकाल पड़ते हैं. एक बार हवा में रहने के बाद, उन्हें फिर सेटल होने में काफी टाइम लगता है.
बादल के साथ भी यही होता है. एक बादल का वज़न भले ही सौ हाथियों के बराबर हो, वो वज़न अरबों-खरबों बूंदों में बंटा हुआ होता है. वो बूंदें इतनी हल्की और छोटी होती हैं कि ऊपर उठती हवा का फोर्स नीचे लग रहे गुरुत्वाकर्षण से जीतने लगता है. ये फोर्स बादलों को तैरते रहने में मदद करता है.
इसके अलावा, कभी-कभार तापमान कम होने पर पानी की बूंदें अक्सर जम जाती हैं. इससे बर्फ के क्रिस्टल बनने लगते हैं. ये क्रिस्टल पानी की बूंद की तरह गोल-गोल नहीं होते. इनका शेप बड़ा ही टेढ़ा-मेढ़ा होता है. बूंदों का ऐसे क्रिस्टल बन जाने से एक फायदा और हो जाता है. उतने ही वज़न पर surface area (सरफेस एरिया) यानी सतह का क्षेत्रफल पहले से बढ़ जाता है.
उदाहरण के लिए अगर आपके पास कोई खराब कागज़ हो तो वो लीजिए. उसकी एक बॉल बना लीजिए. अब अगर आप उसको फेकेंगे तो वो झट से ज़मीन पर आ गिरेगी.
वहीं उस कागज़ की गेंद की जगह अगर कागज़ को जस का तस उछाला जाए तो वो ज़मीन पर धीरे-धीरे आ कर गिरेगा.
कागज़ का वज़न तो शुरू से उतना ही था. लेकिन जब आपने उसकी बॉल बनाई तो उसका सरफेस एरिया कम हो जाता है. उसकी तुलना में खुद कागज़ का surface area (सरफेस एरिया) बहुत ज़्यादा होता है.
इसी लॉजिक से बर्फ के क्रिस्टल का surface area (सरफेस एरिया) एक बूंद की तुलना में ज्यादा होने पर उस पर हवा का फोर्स भी ज़्यादा लगता है और बादल एकदम से नीचे आ कर नहीं गिरता.
आखिर में एक और बातकहने को बादल में बहुत सारी पानी की बूंदें हैं. लेकिन असल में वो बूंदें एक दूसरे से काफी दूर होती हैं. इतनी दूर कि काफी पानी होने के बावजूद बादल लगभग पूरी तरह हवा का ही बना होता है.
हवा में सबसे ज़्यादा नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के मॉलेक्युल्स होते हैं. जब बादल बनता है तो उनमें से कुछ मॉलेक्युल्स की जगह पानी के मॉलेक्युल्स ले लेते हैं. पानी यानी H2O. और H2O यानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का मॉलेक्यूल. हाइड्रोजन अपने में नाइट्रोजन और ऑक्सीजन से कई गुना हल्की होती है. इस वजह से इतना भारी होने के बाद भी एक बादल अपने आसपास की सूखी हवा से बहुत हल्का होता है.
तो बादलों के साथ यही हो रहा है. जैसे तेल पानी पर तैरता है ये हवा पर तैरने लगते हैं. बताया जाता है कि अगर ज़्यादा हवा नहीं चल रही हो तो बादल से निकली पानी की एक बूंद को जमीन तक पहुंचने में 10 घंटे से ज्यादा का समय लग सकता है.
लेकिन ऐसा नहीं है कि गुरुत्वाकर्षण खाली ही बैठा है. एक बादल गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में बहुत धीरे-धीरे नीचे गिर रहा होता है. कभी थोड़ी हवा लगती है तो ये फिर ऊपर की ओर उठ जाता है. एक तो नीचे गिरने की गति इतनी धीमी होती है, ऊपर से बादल होते भी दूर हैं. ज़मीन पर खड़े हमारे जैसे इंसान के लिए ये सब नोटिस करना बहुत मुश्किल है.
बाकी जैसे-जैसे बूंदों को साइज़ बढ़ता जाएगा एक टाइम ऐसा आएगा जब गुरुत्वाकर्षण ये लड़ाई जीत जाएगा. कहने का मतलब, बादल हमेशा तैरते रहें ऐसा ज़रूरी नहीं. कभी कभी पानी की बूंदें इतनी बड़ी हो जाती हैं कि वो नीचे गिरने लगती हैं. और इन्हीं गिरती बूंदों को आप और हम "बारिश" कहते हैं.
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