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आपके स्मार्टफोन में कितना RAM होना ज़रूरी है?

ज्यादा RAM अच्छी परफॉर्मेंस की गारंटी नहीं.

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रैम का परफॉर्मेंस से है सीधा कनेक्शन (Image:me.me)
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सूर्यकांत मिश्रा
3 फ़रवरी 2022 (Updated: 3 फ़रवरी 2022, 07:47 IST)
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जितना ज़्यादा, उतना बेहतर. स्मार्टफोन के हिसाब से ये बहस का विषय है. यहां बात स्मार्टफोन की साइज और बैटरी की नहीं हो रही है. हम बात कर रहे हैं फोन की उस मेमोरी की जिसे रैम (RAM) कहते हैं. कंपनी फोन को बेचने के लिए मार्केटिंग में प्रोसेसर, डिस्प्ले, कैमरा सेटअप और बैटरी क्षमता के साथ RAM का ज़िक्र ज़रूर करती है. फोन में 4 जीबी रैम और 6 जीबी रैम होना आम बात है. अब तो कुछ फोन 18 जीबी रैम के साथ भी आते हैं. रैम तो बढ़ती ही जा रही, लेकिन इसका सीधा कनेक्शन फोन की परफॉर्मेंस से पूरी तरह से नहीं है. भले ही कंपनियां ज्यादा रैम से अच्छी परफॉर्मेंस के दावे कर ले, लेकिन हकीकत ये भी है कि कुछ ऐप्स खोले, फिर पावरफुल ग्राफिक्स वाला गेम खेल लिया, और फोन हांफने लगा. अब बात मुद्दे की. क्या आपको सच में बहुत ज्यादा रैम की जरूरत है? फोन खरीदने से पहले रैम को लेकर कोई न्यूनतम आंकड़ा भी रखना चाहिए? सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि रैम क्या है? स्मार्टफोन में RAM क्या है? Random Access Memory यानी रैम (RAM) के नाम में ही सब साफ समझ आ जाता है. आसान भाषा में कहें तो फोन का वो हिस्सा जो ऐसी जानकारी को स्टोर करता है जो आप अभी तो इस्तेमाल नहीं कर रहे, लेकिन थोड़ी देर में कर सकते हैं. ऐसी मेमोरी जो स्मार्टफोन के इंटरनल स्टोरेज से बहुत तेज है लेकिन कम मात्रा में मिलती है. फोन के स्पेसिफिकेशन में साफ ज़िक्र होता है- 8 जीबी + 128 जीबी. यहां पर 128 जीबी इनबिल्ट स्टोरेज है और 8 जीबी रैम. इसे थोड़ा और आसान बनाते हैं. एक डेस्क और उसके कंपार्टमेंट के उदाहरण से समझते हैं. कोई भी सामान जो आपके हाथों की रेंज में है उसे इधर-उधर करना बहुत आसान है. फिर भी आप सब कुछ डेस्क के ऊपर नहीं रखते, बल्कि उसी डेस्क में कंपार्टमेंट या ड्रॉअर्स बनाते हैं. अब जरूरत हुई तो सामान आसानी से निकाला और फिर वापस रख दिया. फोन की RAM भी ऐसे ही काम करती है. मतलब जब जरूरत तब इस्तेमाल. आप फोन पर गेम खेल रहे थे और कॉल आ गया. आप कॉल उठाओगे ही सही और पूरे चांस हैं कि वापस गेम खेलने भी लग जाओगे. अब सोचिए कि जब आप वापस गेम पर पहुंचे तो वो फिर से स्टार्ट हो तो आपको कैसा लगेगा. जाहिर है कि बहुत कोफ्त होगी और इसी कोफ्त से बचाने के लिए है रैम. बैकएंड पर काम करती है और आपने गेम को जहां पर छोड़ा था वहीं से ही आपको फिर मिल जाता है. इतनी कहानी से तो लगता है कि ऐसे बहुत से गेम या ऐप्स को संभालने के लिए बहुत सारी RAM चाहिए. मतलब ढेर सारी रैम और परेशानी खत्म. लेकिन ऐसा होता नहीं है. क्योंकि कई बार ज़्यादा रैम वाला एक स्मार्टफोन परफॉर्मेंस के मामले में कम रैम वाले iPhone के सामने पानी मांगते नजर आता है. आप कहोगे कि आईफोन कहां से बीच में ले आए तो हमने सिर्फ रैम मैनेजमेंट को जांचने के लिए ये उदाहरण दिया. क्योंकि रैम तो रैम होती है फिर वो किसी एंड्रॉयड फोन में हो या आईफोन में. अब ऐसा होता कैसे है? इस सवाल का जवाब जानने से पहले जान लीजिए कि Apple अपने आईफोन में खुद का प्रोसेसर इस्तेमाल करता है और सॉफ्टवेयर पर भी पूरा कंट्रोल रखता है. एंड्रॉयड के ओपन प्लेटफॉर्म के सामने ये बहुत बोरिंग है, लेकिन जब बात फोन की परफ़ॉर्मेंस की आती है तो यही कंट्रोल बाजी मार जाता है. फोनबफ नाम की एक कंपनी है जो फोन की स्पीड, बैटरी, ड्रॉप टेस्ट जैसे प्वाइंट को कवर करती है. इस कंपनी ने एक 3 जीबी रैम वाले आईफोन और एक 8 जीबी रैम वाले फ्लैगशिप एंड्रॉयड फोन को टेस्ट किया. नतीजे आंखे खोल देने वाले रहे. दोनों फोन पर एक साथ एक ही संख्या मे ऐप्स को ओपन किया गया और उन पर एक जैसे ही टास्क परफ़ॉर्म किए गए. यदि एक फोन से कोई सोशल मीडिया ऐप पर पोस्ट डाली गई तो सेम पोस्ट दूसरे फोन से भी डाली गई. कमाल की बात ये कि ऐसा एक रोबोटिक आर्म की मदद से किया गया जिससे किसी भी किस्म का टाइम डिफरेंस पैदा ना हो. एक साथ कई टास्क परफ़ॉर्म करने के बाद उनको फिर से ओपन करके भी देखा गया. फिर से ओपन करने का मतलब फोन कॉल और गेम वाली प्रोसेस से है जो हमने आपको ऊपर बताई है. अब जाहिर सी बात है कि जब ऐप्स को पहली दफा ओपन किया गया तो फोन का प्रोसेसर यूज हुआ लेकिन रीओपन करते समय मेमोरी या रैम को अपना कमाल दिखाना था. कमाल से मतलब ऐप्स कितनी जल्दी फिर से खुलने को तैयार थे. टेस्ट का नतीजा ये निकला कि दोनों फोन के बीच में टाई हो गया. आंकड़ों के हिसाब से ऐसा होना नहीं चाहिए था. मतलब कहां 3 जीबी और कहां 8 जीबी. थोड़े में बहुत ज्यादा ऐसा ही कुछ किया आईफोन ने. जब ऐप्स को ओपन करने और टास्क परफ़ॉर्म करने की बारी आई तो एंड्रॉयड फोन के मुकाबले सब थोड़ा फास्ट किया. ऐसा करने से एक फायदा ये हुआ कि यदि ऐप को बैकग्राउंड में बंद भी करना पड़ा तो भी फिर से बहुत तेजी से ओपन करने में दिक्कत नहीं आई. एंड्रॉयड फोन में जितने ऐप्स ओपन किए गए वो सारे के सारे मेमोरी में भी पड़े रहे. वहीं आईफोन ने अपना दिमाग इस्तेमाल करके लगभग 70 प्रतिशत ऐप्स को ही बैकग्राउंड में ओपन रखा जिसमें गेम ऐप्स भी शामिल थे. आप कहोगे कि एक एंड्रॉयड फोन यदि फेल हो गया तो क्या हुआ, दूसरे फोन अच्छा करते हैं. इसी बात को ध्यान में रखकर एक 4 जीबी वाले आईफोन और 4 जीबी वाले दूसरे एंड्रॉयड फ्लैगशिप को जांचा गया तो आईफोन ने एक मिनट से ऊपर के अंतराल से एंड्रॉयड फोन को मात दे दी. एंड्रॉयड फोन बहुत से मेकर्स बनाते हैं तो रैम मैनेजमेंट का सबका अपना-अपना तरीका होता है. इसके अलावा मार्केट में प्रतिस्पर्धा भी ज़्यादा है. ऐसे में दूसरे प्रोडक्ट से बेहतर करने का दबाव भी होता है. फिर 10,12 और 16 जीबी को मार्केटिंग एंगल से भी देखना ज़रूरी है. लेकिन रैम का इस्तेमाल समझदारी से होना चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं है. गूगल ने अपने एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम में रैम मैनेजमेंट को ठीक करने की दिशा में काफी काम किया है. सारी बातचीत का सार यही है कि फोन में ज़्यादा मेमोरी अच्छी बात है. लेकिन वो स्मार्टफोन की दुनिया का बस एक प्यादा है. फोन का प्रोसेसर, बैटरी और सॉफ्टवेयर की भूमिका नज़रअंदाज नहीं की जा सकती. एक स्मार्टफोन की परफॉर्मेंस इन सारे पैमाने पर निर्भर है. वैसे आम इस्तेमाल में देखा जाए तो 6 जीबी रैम वाला फोन काफी होता है.

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