लॉर्ड्स 1986 : जब कपिल देव निखंज ने छक्का मारकर दुनिया जीती थी
आसमान पर बादल थे, स्विंग थी, और मियांदाद के छक्के से 'घायल' चेतन शर्मा थे. आज ही के दिन भारत ने जीता था 'क्रिकेट के मक्का' पर पहला टेस्ट.
"ये ऐसा था जैसे अनगिनत बंदरों को अनगिनत टाइपराइटर्स पर छोड़ दिया जाए और वे शेक्सपियर का हेमलेट लिख दें."
ये था ब्रिटिश अखबार मैनचेस्टर गार्जियन का रिएक्शन, जब भारतीय टीम ने 1983 में लॉर्ड्स के मैदान में चैम्पियन टीम वेस्टइंडीज़ को हराकर विश्वकप जीता. इंग्लैंड फाइनल में भी नहीं था, और हारी वेस्टइंडीज़ थी, लेकिन क्रिकेट के जन्मदाता देश के ज्ञानी विशेषज्ञ यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि भारत जैसा उनसे क्रिकेट का खेल सीखा देश इंग्लैंड की धरती पर, और वो भी क्रिकेट के मक्का लॉर्ड्स में मैच जीत सकता है.
उन्होंने यह मानकर खुद को तसल्ली दी थी कि चलो, वनडे में जीत तो कभी-कभी तुक्के से मिल जाया करती है. असली क्रिकेट तो टेस्ट क्रिकेट होती है. सच था, रिकॉर्ड भी भारत के खिलाफ थे. 1932 में पहले टेस्ट दौरे के बाद से भारत ने बीती आधी सदी में इंग्लैंड में सिर्फ़ एक ही टेस्ट जीता था, वो भी 1971 में. दशक भर से जीत का अकाल था. और इन पचास से ज़्यादा सालों में लॉर्ड्स पर 10 टेस्ट खेलने के बाद भी भारतीय टीम के हिस्से जीत के नाम पर बड़ा सा ज़ीरो था.
साल था 1986, ग्यारहवां मौका, और अब भारत को साबित करना था कि उसकी विश्वकप जीत तुक्का नहीं है.
इसी पृष्ठभूमि में भारत 1986 की गर्मियों में इंग्लैंड दौरे पर गया. पहली मुश्किल तो दौरा शुरु होने के पहले ही सामने थी. माना जाता है कि इंग्लैंड में सीज़न के पहले हाफ में खेलना हमेशा ज़्यादा मुश्किल होता है, खासकर भारतीय उपमहाद्वीप की टीमों के लिए. हवाएं ठंडी होती हैं, आसमान पर बादल और बॉल की स्विंग ज़्यादा.
मौसम का सर्दपन ऐसा कि गर्म प्रदेशों के खिलाड़ियों के तो सुबह वाले सेशन में जेब से हाथ ही नहीं निकलते. ऐसे में मई-जून में दौरे पर आने वाली टीम हमेशा जुलाई-अगस्त में दौरा करनेवाली दूसरी टीम के बदले नुकसान में रहती है.
इसीलिए जब भारतीय बोर्ड ने पहले हाफ़ में दौरे का प्रस्ताव चुना, इसे इंग्लैंड की जमीन पर भारतीय टीम की एक और व्हाइटवाश की तैयारी माना गया. लेकिन इस भारतीय टीम के इरादे कुछ और थे. मिथकीय 1983 अब उसके पीछे था. ये वो टीम थी जिसने जीत का स्वाद चख लिया था. अबकी बार टेस्ट के पहले वनडे सीरीज़ हुई, और भारत ने उसे जीतकर फिर अपनी फॉर्म का इशारा दिया. लेकिन असली जवाब टेस्ट के मैदान पर दिए जाने थे.
फिर आया लॉर्ड्स...
5 जून 1986. आसमान पर बादल थे और भारत के कप्तान कपिल ने टॉस जीतकर इंग्लैंड को बल्लेबाज़ी के लिए बुलाया. खेल की शुरुआत सनसनीखेज थी और बीस साल के युवा गेंदबाज़ चेतन शर्मा ने इंग्लैंड के तीन धुरंधर बल्लेबाज़ों गॉवर, गैटिंग और लैंब को ग्यारह गेंदों के अंतराल में पॉवेलियन पहुंचा दिया. लेकिन ग्राहम गूच जम गए. उनका सैकड़ा टीम को दिन का खेल खत्म होने तक 245 पर ले गया. दिन का खेल खत्म होने को ही था, लेकिन चेतन शर्मा का रोल अभी खत्म नहीं हुआ था. वे फिर बॉलिंग पर आए और घूमती इनस्विंगर से शतकीय बल्लेबाज़ के कीले उड़ा दिए.
चेतन शर्मा के पहली पारी में आंकड़े 32 ओवर में 64 रन देकर 5 विकेट थे. उन्होंने लॉर्ड्स के ऑनर बोर्ड पर अपना नाम लिखाया. याद रखिए, बस दो महीने ही हुए थे मियांदाद के उस शारजाह वाले छक्के को, जिसने चेतन शर्मा को भारतीय क्रिकेट का विलेन बनाया था. लेकिन यहां युवा तेज़ गेंदबाज़ शर्मा हमें याद दिला रहे थे कि चंद पलों से पूरी ज़िन्दगी का हिसाब नहीं होता. टेस्ट मैच की तरह, ज़िन्दगी भी जीतने का दूसरा मौका देती है.
लॉर्ड्स का शतक हर बल्लेबाज़ के हिस्से में नहीं होता, चाहे उसकी महानता कितनी ही बड़ी हो. गावस्कर उन्हीं में से एक थे, जिनकी लॉर्ड्स पर एक और पारी निराशा में खत्म हुई. लेकिन लॉर्ड्स के कर्नल ने अपनी टीम को निराश नहीं किया. क्रिकेट के मक्का पर दिलीप वेंगसरकर की तीसरी शतकीय पारी ने भारत को पहली इंनिग्स की लीड दिलाई.
10 जून, 1986. आखिर वो तारीख़ आई, जिसे इतिहास में दर्ज होना था. एक दिन पहले सोमवार की सुबह कपिल देव की स्विंग ने उन्नीस गेंदों में गूच, रॉबिनसन और कप्तान गॉवर को आउट कर जो उम्मीद की सुबह रची थी, उन्होंने ही उसे खेल के आखिरी दिन एडमंड के ओवर में 18 रन मारकर जीत के उजले दिन में बदल दिया.
धोनी से भी पहले वो कपिल देव निखंज थे, जिन्होंने मिड विकेट के ऊपर छक्का मारकर भारतीय क्रिकेट इतिहास की सबसे फेमस जीत हासिल की थी. कपिल विश्व विजेता कप्तान थे, लेकिन उनकी ये कप्तान के तौर पर पहली टेस्ट विजय थी. भारत ने सीरीज़ 2-0 से जीती. यह भारत की इंग्लैंड में सिर्फ़ दूसरी सीरीज़ जीत थी. यह भारतीय क्रिकेट का सुनहरा दौर था, जब खेल में कुछ सबसे चमकीली जीतें और सबसे धाकड़ खिलाड़ी मैदान पर देखे गए.
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