आज पढ़िए सूर्यकांत त्रिपाठी की कविता 'तोड़ती पत्थर'.--------------------------------------------------------------------------------तोड़ती पत्थर- तोड़ती पत्थर वह तोड़ती पत्थर देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-- वह तोड़तीपत्थर. कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार, श्याम तन, भर बँधा यौवन,नत नयन, प्रिय कर्म रत मन, गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार बार प्रहार-- सामने तरुमालिका अट्टलिका, प्राकार. चढ़ रही थी धूप, गर्मियों के दिन, दिवा का तमतमाता रूप,उठी झुलसाती हुई लू, रूई ज्यों जलती हुई भू गर्द चिंदी छा गई प्राय: हुई दोपहर-- वहतोड़ती पत्थर. देखते देखा, मुझे तो एक बार उस भवन की ओर देखा, छिन्न तार, देख करकोई नहीं, देखा मुझे उस दृष्टि से, जो मार खा रोई नहीं, सजा सहम सितार, सुनी मैंनेवह नहीं जो थी सुनी झंकार. एक छन के बाद वह काँपी सुघर ढुलक माथे से गिरे सीकर लीनहोते कर्म में फिर ज्यों कहा-- "मैं तोड़ती पत्थर." ***