अल्फ्रेड पार्क में निश्चय ही दृढ़तर हुए थे, तुम्हारे दृढ़ हाथ जब तुमने अपनेतमंचे में भरा था आत्मा की भट्ठी में पिघलाया हुआ अंतिम लोहा। कांपा था समय कि लोहेकी पहचान में पुरुष से बड़ी होने वाली थी पदार्थ की भूमिका। और आने वाले युगों मेंमूंछें ही देने वाली थीं, तुम्हारा पहला परिचय। हमरी चेतना में अब तक घनी हैं,तुम्हारी ताव लेती मूछें। हमने पढ़ा और सुना कि तुम्हारी मूछों से ढीली पड़ जातीथीं कभी न अस्त होने वाले साम्राज्य के सिपहसालारों की मुट्ठियां। पर यह मालूम न थाकि इतिहास की दृष्टि भी तुम्हारी मूछों पर ही अटकी रह जाएगी, दो इंच ऊपर, तुम्हारीसांद्र आंखों तक न जा सकेगी। मैं पढ़ता हूं, तुम्हारी तपी आंखों में आजाद होने केअर्थ। ताव लेती मूछों से कहीं तेज थीं, तुम्हारी आंखें जो भरी-भरी होकर भी खाली थींसंघात में डोलते हुए सागर से और न वहां बस विद्रोह ही था उस चमकते कोड़े का जिसकीहर चोट दे गई थी तुम्हें बाहर कर दिए जाने की पहली पीड़ा। मैं चकित हूं, कैसे झाबुआके अंध देहात में तुमने भर ली थी अपनी उनींदी आंखों में मुक्ति की पूर्णिमा। सच है!सभ्यताओं के विकट युद्ध में तुमने बोली हथियारों की चुनी पर भाषा के निर्माण मेंप्रयोग उतना ही करना चाहा जितना आंखों में आंखें डालकर बात कहने के लिए जरूरी था।मैं क्षुब्ध हूं, इतिहास तुम्हें देशभक्त तो कहता है पर लोहा तमंचा और मूछों का हीमानता है।-------------------------------------------------------------------------------- एक कविता रोज़: औरत के हुनर से खुद को सुंदर बनाना चाहता है चांद