'ड्राई क्लीनिंग' क्या सूखी धुलाई होती है, इससे कपड़े चमक कैसे जाते हैं?
Science explained: डिटर्जेंट से धुलाई कैसे होती है, ये तो समझेंगे ही. साथ में जानते हैं कि ये ड्राई क्लीनिंग के पीछे क्या टंटा है. क्या ये सच में ड्राई है? और कैसे एक मेड की गलती ने ड्राई क्लीनिंग ईजाद करवा दी.
एक कतई कातिल शेर सुनिए, 'जिंदगी ने दिए बहुत धोखे. हमने भी कहा इट्स ओके.' धोखे तो सच में बहुत मिले हैं. गुलाब जामुन में ना गुलाब मिला, ना ही जामुन. अब एक धोखा हम आपको बताते हैं. ड्राई क्लीन का नाम तो ठंड आते ही खूब सुनाई देता है. लेकिन क्या ये सच में ड्राई है? या हमारा गुलाब जामुन बनाया गया है. समझते हैं इसमें कपड़ों की धुलाई होती कैसे है?
साबुन के झाग के पीछे केमिस्ट्री वालों का दिमाग भी है, इसलिए ड्राई क्लीन के मामले को समझने से पहले समझ लेते हैं कि कोई चीज साफ कैसे होती है. साबुन या डिटर्जेंट कैसे काम करता है… साबुन का जो अणु या माल्यिक्यूल होता है. उसमें दो सिरे होते हैं. एक सिरे को इसका सिर या हेड और दूसरे को इसकी पूंछ या टेल कह सकते हैं. एक तरफ पोलर साल्ट होता है. जो होता है हाइड्रोफिलिक (Hydrophilic). कठिन नाम को सरल करते हैं. हाइड्रो माने पानी और फिलिक माने चाहने वाला या आकर्षित करने वाला.
यानी वो हिस्सा जो पानी के अणु को खींचता है. वहीं दूसरी तरफ है फैटी एसिड या हाइड्रोकार्बन की नॉन-पोलर चेन. ये होती है हाइड्रोफोबिक, इसको भी सरल करें तो हाइड्रो माने पानी और फोबिक माने दूर भगाने वाला. ये हिस्सा पानी को दूर भगाता है, लेकिन ग्रीस या तेल जैसी चीजों के साथ जुड़ जाता है. और फिर प्रोसेस शुरू होती है.
अब होता ये है कि जब डिटर्जेंट का ये एक अणु गंदगी के साथ मिलता है. तो उसकी पूंछ कपड़े में मौजूद चिकनाई को घेर लेती है. वहीं इसका सिर वाला हिस्सा पानी में ही रहता है. जैसा कि हमने बताया कि यह हिस्सा पानी को पसंद करता है.
अब हेड और पानी के बीच का आकर्षण इतना ज्यादा होता है कि पूंछ वाला हिस्सा चिकनाई को कपड़े की सतह से पकड़ कर बाहर खींच लेता है. ऐसा ही सारे अणु करते हैं और इस तरह गंदगी कपड़े से निकलकर पानी के साथ घुल जाती है और कपड़ा साफ़ हो जाता है. ये धुलाई का मोटा-मोटा साइंस है.
डिटर्जेंट के अलावा भी कुछ चीजें हो सकती हैं जो गंदगी में घुल जाती हैं. जैसे एल्कोहल आपने देखा होगा कि सैनिटाइजर में भी गंदगी घुल जाती है, वैेसे ही.
ड्राई क्लीन इतना भी ड्राई नहींअब आते हैं ड्राई क्लीन के मामले में. डिटर्जेंट के मसले से हम इतना तो समझ गए कि चिकनाई या गंदगी को दूर करने के लिए उसे किसी चीज में घोलना पड़ता है. ताकि गंदगी के अणु उसके साथ जुड़ सकें. डिटर्जेंट के मामले में तो ये काम पानी के साथ होता है. लेकिन ड्राई क्लीनिंग में पानी की जगह दूसरी चीजों का इस्तेमाल किया जाता है. या दूसरे सॉल्वेंट का इस्तेमाल किया जाता है. जो गंदगी को घोल सके.
क्योंकि कुछ कपड़े ऐसे होते हैं, जिनमें पानी भीतर तक नहीं पहुंचता है. या फिर ये पानी में धोने के लिए सूटेबल नहीं होते हैं, जैसे कुछ ऊनी कपड़े पानी में धुलने पर सिकुड़ जाते हैं. तो इन मामलों में दूसरा सॉल्वेंट इस्तेमाल में लिया जाता है, जिसमें गंदगी और चिकनाई घुल सके.
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मेड की गलती से हुआ खुलासा!साल 1855 की बात है. एक फ्रेंच डाई वर्कर, जीन बैपटिस्टे जॉली ने इत्तेफाक से एक बात नोटिस की. दरअसल इनकी मेड ने गलती से खाने की टेबल पर बिछे कपड़े पर मिट्टी का तेल या केरोसीन गिरा दिया था.
जीन ने देखा कि मिट्टी के तेल की वजह से कपड़ा कुछ साफ हो गया था. अपनी डाई की कंपनी के साथ, उन्होंने एक नई सर्विस देना शुरु किया. जिसका नाम रखा ड्राई क्लीनिंग.
शुरुआती दिनों में केरोसीन जैसे तमाम सॉल्वेंट ड्राई क्लीनिंग में इस्तेमाल किए जाते रहे हैं. फिर दूसरे विश्व युद्ध के बाद मार्केट में एक नया प्रोडक्ट आया, परक्लोरोएथाइलीन या पर्क. जो बाद में काफी इस्तेमाल किया जाने लगा, क्योंकि यह ज्यादा सेफ माना जाता था, सफाई बेहतर करता था और कम संसाधनों में इसका इस्तेमाल किया जा सकता था.
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पर्क आज भी ड्राई क्लीनिंग इंडस्ट्री में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन अब इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को लेकर भी चिंता जाहिर की जाती है.
खैर अब सॉल्वेंट चाहे जो भी हो उसका मेन काम होता है. गंदगी को बाहर निकालना.
ड्राई क्लीनिंग के प्रोसेस के दौरान एक पंप के जरिए ये सॉल्वेंट टैंक में भेजा जाता है. और एक फिल्टर के जरिए गंदगी को छाना जाता है. ये सॉल्वेंट फिर कपड़े के फैबरिक से रिएक्ट करता है. और मिट्टी वगैरह को अलग करता है. और ये मिट्टी फिर फिल्टर से छान ली जाती है.
बताइये गुलाब जामुन में जामुन नहीं, ड्राई क्लीन ड्राई नहीं. भरोसा करें तो करें किसपे!
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