मंदिर की ऊंचाई 100 फीट से ज्यादा थी, उसे उठाकर एक जगह से दूसरी जगह रख दिया गया; पता है क्यों?
Temple Relocation: हाल ही में हमारे साप्ताहिक शो Guest in the newsroom में Ashish Vidyarthi आए थे. इंटरव्यू के दौरान उन्होंने मिस्र के Abu Simbel Temple का ज़िक्र किया. आपको बताते हैं इस प्राचीन 'मंदिर' का इतिहास और इसे एक से दूसरी जगह बसाने की पूरी कहानी.
‘बिच्छू’ में आशीष विद्यार्थी (Ashish Vidyarthi) के अभिनय के फैन न हुए हों, तो उनके फ़ूड व्लॉग्स ने तो शर्तिया आपका दिल जीत ही लिया होगा. लेकिन एक बात, जो शायद आपको ना मालूम हो, वो ये कि विद्यार्थी साइंस वगैरह में भी काफी दिलचस्पी रखते हैं. हाल ही में उन्होंने लल्लनटॉप के शो Guest in the Newsroom में इससे जुड़ा एक किस्सा सुनाया.
बाबा से वर्ल्ड की बातें होती थीं. नेशनल जियोग्राफिक की कॉपियां वो लेकर आते थे. एक या दो रुपये में. वो पढ़ने का मुझे बहुत शौक था. इसी मैग्जीन में मैंने इजिप्ट के अबु सिंबल टेम्पल (Abu Simbel) के बारे में भी पढ़ा.
आगे वो बताते हैं कि एक बार दोस्तों और उनके बच्चों के साथ वो इजिप्ट पहुंचे थे, और सामने से ‘अबु सिंबल टेम्पल’ देखकर वो भावुक हो उठे, क्योंकि वो अपने पिता को यह टेम्पल नहीं दिखा पाए.
उन्होंने इस टेम्पल की खासियत के बारे में बताया. दरअसल, अबु सिंबल टेम्पल को नासेर झील की बाढ़ से बचाने के लिए निचली जगह से ऊपर पहुंचाया गया. आशीष ये भी बताते हैं कि इस टेम्पल को उठाकर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का पूरा प्रोसेस उन्होंने मैग्जीन में पढ़ा था.
अब अबु सिंबल के टेम्पल की बात निकली है, तो दूर तलक जाएगी. लोग खामखा टेम्पल को उठाकर दूसरी जगह पहुंचाने का प्रोसेस पूछेंगे. ये भी पूछ सकते हैं कि ऐसा करने की जरूरत पड़ी क्यों? इसीलिए स्वतः संज्ञान लेकर हम ही सब बता देते हैं.
चैप्टर एक: रेत समाधिआज से कुछ 210 साल पहले. मिस्र से सटे नुबिया का रेगिस्तान. जमीन के ऊपर चारों तरफ रेत ही रेत. और, जमीन के नीचे करीब 100 फुट ऊंचा प्राचीन अबु सिंबल का टेम्पल. करीब 3000 साल से इंतजार में था. इंतजार स्विस रिसर्चर जोहान लुडविग बर्खारट (Johann Ludwig Burckhardt) का, कि वो आएं और मिस्र की इस विरासत को रेत समाधि से निकालें. उसकी तस्वीरें दुनिया के सामने रखें.
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प्राचीन अबु सिंबल टेम्पल के मुहाने पर करीब 70 फुट ऊंचे बुत हैं. मिस्र के 19वीं राजवंश के फैरो रामसे-2 के बुत. मिस्र के सबसे ताकतवर शासकों में से एक. साथ में उनकी पत्नी और प्राचीन मिस्र के तमाम देवी-देवताओं की मूर्तियां. विशालकाय मूर्तियां. बावजूद इसके, फैरो रामसे-2 की मूर्तियों के सामने बौनी नजर आती थीं.
साथ ही टेम्पल में एक अंधेरा कमरा था, जिसमें साल में दो बार ही सूरज की रौशनी पहुंचती थी. 60 फीट के गलियारे से होते हुए. एक बार फरवरी, दूसरी बार अक्टूबर के महीने में. ये रौशनी कमरे आती तो थी, पर पड़ती थी इस कमरे में मौजूद चार में से महज तीन मूर्तियों पर. रौशनी से बची रह जाती बस एक मूर्ति: अंडरवर्ल्ड के गॉड की. जो रहती अंधेरे में.
लेकिन ये नायाब टेम्पल, कमाल की कारीगरी और प्राचीन विज्ञान का नमूना एक दिन पानी के भीतर समाने को था.
चैप्टर दो: जल समाधिमिस्र की नील नदी. लाखों लोगों का पेट भरने के लिए खेती का एकमात्र जरिया. पर ये जरिया काफी लोगों के लिए नाकाफी पड़ रहा था. फिर मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अबदेल नासिर ने सोचा कुछ किया जाए. (इनकी और भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की दोस्ती के चर्चे 1950-60 के दशक में अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खूब हुआ करते थे.)
खैर, एक दिन राष्ट्रपति नासिर ने नील नदी पर एक बांध बनाने का प्लान बनाया - असवान हाई डैम (Aswan High Dam). ताकि इससे खेती बेहतर हो और बाढ़ से नदी के आसपास के इलाकों को बचाया जा सके. साथ ही इसकी मदद से बनने वाली बिजली से उद्योगों को भी मदद मिले.
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मगर इस बांध के बनने के साथ सब कुछ अच्छा-अच्छा नहीं था. क्योंकि साथ में बनानी पड़ी एक विशालकाय झील. 300 किलोमीटर से भी ज्यादा लंबी, ‘लेक नासिर’. अब इसकी वजह से करीब 90 हजार लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा. हर चीज एक रात में तो विस्थापित नहीं की जा सकती थी. यानी कुछ चीजों का डूबना तय था. इन्हीं में एक था, मिस्र-सूडान सीमा के करीब बना अबु सिंबल कॉम्प्लेक्स.
तो क्या ये प्राचीन धरोहर यूं ही डूब जाती? अगर नहीं, तो इसे बचाया कैसे गया?
चैप्टर तीन: ‘महान’ विस्थापन60 के दशक में यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल साइंटिफिक ऐंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन (UNESCO) की एग्जिक्यूटिव कमिटी ने एक अंतरराष्ट्रीय कैम्पेन लॉन्च किया. नुबिया के डूबने वाले स्मारकों को बचाने का कैम्पेन. इन्हींं में अबु सिंबल टेम्पल कॉम्प्लेक्स भी शामिल था.
दुनिया के तमाम देश इस मुहीम में आगे आए. पचास से भी ज्यादा देशों ने खर्चे में हिस्सेदारी दी. करीब 30 देशों ने नुबिया स्मारकों के स्टैम्प जारी किए. ताकि इन्हें बचाने के लिए पैसा जुटाया जा सके. लेकिन इन स्मारकों को बचाना एक रेस थी. समय नहीं था, क्योंकि 1966 तक नासिर झील लगभग पूरी भरने वाली थी.
गनीमत से समय रहते पैसा-रुपया जुटा लिया गया. कई देशों के एक्सपर्ट्स की टीम बनी. सब ने अपने-अपने आइडिया दिए. फिर 1963 में तय किया गया कि प्राचीन स्मारक को बचाने का एक ही तरीका है, कि इसे हजारों टुकड़ों में काटकर किसी ऊंची जगह तक पहुंचा दिया जाए.
मगर ये सब सुनने में जितना आसान लगता है, उतना था नहीं. टेम्पल कॉम्प्लेक्स तक जरूरी समान पहुंचाने का एक साधन था, नील नदी. यूरोप से सामान पहुंचने में करीब पांच महीने का समय लग जाता था. तो सामान कैसे लाया जाए? नदी के बढ़ते पानी से टेम्पल की जगह को सूखा कैसे रखा जाए?
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इसका जुगाड़ निकाला गया. टेम्पल को बचाने के लिए एक छोटा टेम्पररी बांध बनाया गया. ताकि टेम्पल को काटकर ले जाने तक साइट को सूखा रखा जा सके. सड़कें बिछाई गईं. बिजली के जनरेटर जमा किए गए. काम करने वालों के रहने के लिए घर तैयार किए गए. लेकिन ये सब तो बस अंगड़ाई थी, आगे बहुत लड़ाई थी.
आर्कियोलाजी की दुनिया में ये लड़ाई आज भी याद की जाती है. पहले टेम्पल के भीतर स्टील की रॉडें लगाई गईं. क्योंकि आगे जो होना था, उसके लिए इन्हें मजबूती चाहिए थी. बाहरी इमारत को रेत से ढका गया, ताकि गिरने वाली चट्टानों से मूर्तियां न टूटें.
फिर ऑटोमैटिक आरियों और तमाम दूसरे औजारों की मदद से पूरी इमारत को हजारों हिस्सों में काटा गया. 20-30 टन भारी इन टुकड़ों को एक जगह जमा किया गया. हर हिस्से को फिर से असेम्बल करने के लिए नंबर दिए गए. ताकि जब टेम्पल को दोबारा असेंबल किया जाए, तो ध्यान रहे कि कौन सा हिस्सा कहां लगाना है.
सटीक गणित लगाकर सिस्टम वापस ऐसा बनाया गया कि दो ही महीनों में सूरज की लाइट आए. फिर पूरी की पूरी आर्टिफिशियल पहाड़ी टेम्पल के आस-पास बनाई गई, ताकि ये अपने ओरिजनल रूप में फिर से नजर आए. और ऐसा हुआ भी. बाढ़ टेम्पल की पुरानी साइट तक पहुंचने से पहले इसे बचा लिया गया.
क्या आपको ऐसा कोई और प्रोजेक्ट याद आता है, जब कई देशों ने मिलकर किसी नायाब इमारत को बचाया हो?
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