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नोबेल प्राइज़ विनर प्रधानमंत्री की सज़ा बढ़ती क्यों जा रही है?

सुनवाई के बारे में कोई भी जानकारी जनता और मीडिया को नहीं दी गई. सू ची के वकीलों को भी कार्यवाही के बारे में कुछ भी बोलने की इजाज़त नहीं थी.

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Aung San Suu Kyi
आंग सान को पहले भी कई मामलों में दोषी ठहराया गया था जिस वजह से वो जेल में बंद हैं.
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सोनल पटेरिया
16 अगस्त 2022 (Updated: 16 अगस्त 2022, 18:12 IST)
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भारत के पड़ोसी मुल्क़ म्‍यांमार (Myanmar) से नोबेल पुरस्कार विजेता और पूर्व स्टेट काउंसिलर आंग सान सू ची (Aung san suu kyi) से जुड़ी खबर आई है. म्यांमार की सैन्य अदालत ने उन्हें भ्रष्टाचार के चार मामलों में दोषी करार दिया है. इन मामलों में उन्हें छह साल की सज़ा सुनाई गई है. सू ची पहले से ही जेल में हैं. उन्हें अब तक 17 बरस की सज़ा सुनाई जा चुकी है. सू ची के ऊपर 18 मामले दर्ज़ हैं. इनमें भ्रष्टाचार, घूसखोरी से लेकर चुनावों में धांधली तक के आरोप हैं. अगर उनके ऊपर लगे सभी आरोप सही साबित हुए तो उन्हें लगभग दो सौ सालों की जेल हो सकती है.

सू ची के ख़िलाफ़ अदालती कार्यवाही बंद दरवाज़े के पीछे चल रही है. अंदर के घटनाक्रम के बारे में मीडिया को कुछ पता नहीं चलता. सू ची के वकीलों को बाहर कुछ भी बताने की मनाही है.

म्यांमार में मिलिटरी हुंटा का शासन चल रहा है.

म्यांमार में फ़रवरी 2021 से मिलिटरी हुंटा का शासन चल रहा है. 01 फ़रवरी 2021 को सेना ने लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार का तख़्तापलट कर दिया था. आंग सान सू ची उस समय देश की स्टेट काउंसिलर के पद पर थीं. उनकी पार्टी चुनाव जीतकर दूसरी बार सरकार बनाने वाली थी. लेकिन सेना ने चुनावों में धांधली का आरोप लगाकर सरकार पलट दी. सू ची और उनके करीबियों को गिरफ़्तार कर लिया गया. तब से उन्हें किसी अज्ञात जगह पर रखा गया है.

आंग सान सू ची कौन हैं ?

अगर एक वाक्य में कहें तो, आंग सान सू ची म्यांमार के आधुनिक इतिहास का सबसे ज़रूरी और सबसे ख़ास अध्याय है. उनका जन्म जून 1945 में तत्कालीन बर्मा के रंगून में हुआ था. बर्मा को बाद में म्यांमार के नाम से जाना गया और रंगून को यांगून से. 
सू ची के पिता थे, आंग सान. वो बर्मा की आज़ादी की लड़ाई के सबसे बड़े नायकों में से एक थे. आंग सान ने  ब्रिटेन के साथ मिलकर बर्मा को जापान से आज़ाद कराया था. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उन्हें बर्मा का प्रीमियर भी बनाया गया. ब्रिटेन के सहयोग से. लेकिन ये सबको रास नहीं आया. एक विरोधी धड़े ने आंग सान की हत्या कर दी. उस समय सू ची महज दो साल की थीं.
1948 में बर्मा आज़ाद हो गया. सू ची की शुरूआती पढ़ाई बर्मा से हुई. फिर वो भारत आ गईं. दिल्ली यूनिवर्सिटी के लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. उसके बाद वो ऑक्सफोर्ड चली गईं. वहां उनकी मुलाकात माइकल ऐरिस से हुई. मुलाक़ात प्यार में बदली और दोनों ने शादी कर ली. सू ची विदेश में ही बस गईं थी.

इधर, उनके अपने देश में बड़ा राजनैतिक उलटफेर हो चुका था. लोकतंत्र को दबा दिया गया था. सेना ने सत्ता का कंट्रोल अपने हाथों में ले लिया था. सेना के दमन के ख़िलाफ़ बोलने वालों का शोषण हो रहा था. आलोचना के लिए जगह नहीं बची थी. इसी दौर में जब सब्र का बांध टूटा, तब अगस्त 1988 में एक बड़ा आंदोलन हुआ. सेना ने हिंसा की. तीन हज़ार से अधिक लोग मारे गए. इस घटना को 8888 के नाम से भी जाना जाता है. सेना ने आंदोलन को कुचल दिया था. लेकिन इन सबके बीच एक नौजवान महिला उभर कर सामने आई. वो अपनी बीमार मां को देखने म्यांमार लौटी थी. वो आंग सान सू ची थी. सू चीन ने सेना के अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाई.

उन्हें नज़रबंद कर दिया गया. फिर सेना ने एक प्रस्ताव दिया. कहा कि सू देश छोड़कर चली जाएं. अगर वो ऐसा करतीं हैं, तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा. लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. कहा कि देश में जबतक लोगों के द्वारा चुनी सरकार नहीं आती और राजनीतिक कैदियों को रिहा नहीं किया जाता तब तक वो कहीं नहीं जाएंगी.

फिर एक साल बाद 1990 में म्‍यांमार में चुनाव हुए. सू ची की पार्टी  नैशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी (NLD) ने चुनाव में 80 प्रतिशत सीटें जीती, मगर सेना ने नतीजों को रद्द कर दिया.  सू ची नज़रबंदी में बनीं रही.

1991 में उन्हें नोबेल पीस प्राइज़ दिया गया. लेकिन वो पुरस्कार लेने नहीं जा सकीं. 1995 में सू को रिहा किया गया लेकिन कुछ पाबंदियां लगाई गई.  रंगून के बाहर जाने पर मनाही थी. 
फिर 2000 में प्रतिबंध को तोड़ने के चलते उन्हें फिर नजरबंद किया गया.  2002 में रिहा हुईं लेकिन 2003 में वापस बंद कर दिया गया. इसके खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में आवाज़ उठने लगी. 2009 में यूएन ने हस्तक्षेप किया और फिर 2011 में सू की पर लगी पाबंदियों में ढील दी गई.

सू को राष्ट्रपति से ज़्यादा शक्तियां कैसे मिली?

2012 में सू ची ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया.  उनकी पार्टी ने आसानी से जीत हासिल की.  म्‍यांमार के संविधान के मुताबिक, अगर किसी का पति/ पत्नी या बच्चे विदेशी नागरिक हैं तो वो व्यक्ति राष्ट्रपति पद का चुनाव नहीं लड़ सकता.  इसलिए, वो राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ सकतीं थी.  हालांकि उनकी पार्टी ने ही जीत दर्ज की और उनके भरोसेमंद तिन क्यॉ को 2016 में राष्ट्रपति बनाया गया.

सू ची ने राष्ट्रपति के मंत्री, ऊर्जा, शिक्षा और विदेश मंत्री के तौर पर काम संभाला.  फिर म्‍यांमार के कानून में बदलाव कर सू ची को स्टेट काउंसिलर बनाया गया.  ये प्रधानमंत्री के पद जितना ताकतवर पद था.  इस पद पर बैठे व्यक्ति को राष्ट्रपति से ज़्यादा ताकत दी गई.  ज़ाहिर है, सेना ने इसका विरोध किया था.

सू से नोबल पुरस्कार वापिस लेने की मांग क्यों हुई?

सू ची की छवि ह्यूमन राइट ऐक्टिविस्ट के रूप में थी.  लेकिन उन्ही के शासन के दौरान म्‍यांमार के रखाइन में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ सेना ने बर्बरता की.  2016 - 2017 के बीच रोहिंग्या मुसलमानों  के साथ सेना का झगड़ा हुआ. सेना ने उनके ऊपर हमला किया. म्यांमार सेना पर रोहिंग्या मुस्लिमों के नरसंहार के आरोप लगते हैं. सेना ने उनके गांव के गांव जला दिए. महिलाओं का बलात्कार किया. इसके कारण लाखों रोहिंग्या मुस्लिमों को म्यांमार छोड़ना पड़ा.
जब ये सब हो रहा था, उस समय सू ची सरकार की मुखिया थीं. फिर भी उन्होंने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया. उनकी चुप्पी ने दुनियाभर के मानवाधिकार संगठनों को नाराज़ किया. उनसे नोबेल पुरस्कार वापस लेने की मांग होने लगी.

आंग सान अपनी कैबिनेट में शामिल सैन्य शासकों की तारीफ़ों के पुल बांधा करती थीं. ये सेना का समर्थन पाने के लिए ज़रूरी भी था.
फिर आया साल 2021.  1 फरवरी को सेना ने तख्तापलट कर शासन अपने हाथ में ले लिया.   तभी से आंग सान सू समेत कई नेताओं को कैद कर रखा गया है.

सू ची पर क्या-क्या आरोप हैं?

कोर्ट ने 15 अगस्त को चार मामलों में फैसला सुनाया. सू ची पर आरोप थे कि उन्होंने सरकारी ज़मीन को बाज़ार के दर से कम पैसों पर किराए पर दिया.  इस तरह उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग किया.  इन चार मामलों में उन्हें तीन-तीन साल की सज़ा दी गई. सू ने अपने ऊपर लगे आरोपों से इनकार किया है.  वो इस फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत जा सकती हैं. हालांकि, वहां भी राहत की गुंज़ाइश कम ही है.


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