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60 साल पहले जिस अफगानिस्तान में औरतें स्कर्ट पहनती थीं, वहां अब उनका सांस लेना क्यों मुश्किल हुआ?

तालिबान के काले शासन की कड़वी सच्चाई चीख-चीखकर बता रही ये तस्वीरें.

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लेफ्ट टू राइट: तालिबान के शासन के पहले अफगानिस्तान में औरतें अपने मन के कपड़े आज़ादी से पहनती थीं. तालिबान के शासन के दौरान औरतों को पूरा कवर रहना पड़ता था. (गेटी इमेजेस)
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लालिमा
16 अगस्त 2021 (Updated: 16 अगस्त 2021, 13:21 IST)
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15 अगस्त को जब भारत अपनी आज़ादी का जश्न मना रहा था. तब हमारे पड़ोसी देश अफगानिस्तान की आज़ादी छिन रही थी. नई दिल्ली से करीब हज़ार किलोमीटर दूर काबुल पर तालिबान का कब्ज़ा हो रहा था. अब अफगानिस्तान की जनता एक बार फिर तालिबान के शासन में जीने को मजबूर हो गई. अफगानिस्तान के कई इलाकों में इस वक्त भगदड़ मची हुई है. तालिबान के अत्याचार से बचने के लिए लोग अपना देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर हैं. इन सबके बीच, अगर किसी को सबसे ज्यादा डर सता रहा है, तो वो हैं अफगानिस्तान की औरतें. उन्हें 1996 से 2001 के बीच का समय याद आने लगा है. उन्हें डर है कि कहीं एक बार फिर उन पर बेवजह, घटिया पाबंदियां न लगा दी जाएं. उनका ये डर पूरी तरह से जायज़ भी है. क्योंकि महिलाएं ऐसा बुरा वक्त देख एक बार देख चुकी हैं. आज हम बात करेंगे अफगानिस्तान की औरतों के बारे में. उनकी तीन तस्वीरें हम आपको दिखाएंगे, जो अलग-अलग समय को दिखाती हैं. बताएंगे कि कैसे औरतों पर शिकंजा कसा गया.


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तालिबान लड़ाकों ने 15 अगस्त को राष्ट्रपति के महल में कब्ज़ा कर लिया. (फोटो- PTI)

कैसा था पहले अफगानी औरतों का जीवन?

साल 1926 की बात है. अफगानिस्तान में उस वक्त एमीर अमानुल्लाह खान का शासन था. वो अपने देश को आधुनिकता की तरफ ले जाने की कोशिश कर रहे थे. वो कोशिश कर रहे थे कि हर अफगानी को बराबर अधिकार और आज़ादी मिले. उनकी पत्नी थीं क्वीन सोराया. वो भी इस काम में अपने पति का पूरा साथ दे रही थीं. 1926 में क्वीन सोराया ने अफगान की औरतों के लिए कहा था-

"ये मत सोचिए कि केवल आदमियों को ही देश की सेवा करने की ज़रूरत है. औरतों को भी हिस्सा लेना चाहिए, बिल्कुल वैसे ही जैसे औरतों ने इस्लाम के शुरुआती बरसों में लिया था. औरतों द्वारा जो भी कीमती सेवाएं दी गईं, उन्हें हमेशा याद रखा गया. हमें भी हमारे देश के विकास के लिए योगदान देना है. और ये बिना ज्ञान के नहीं हो सकता. इसलिए हमें ज्यादा से ज्यादा ज्ञान हासिल करना होगा, ताकि हम अपनी सेवा दे सकें."

अफगान के इस शासक और उनकी पत्नी की ये बातें 'canadian women for women in afghanistan' की एक रिपोर्ट में लिखी गई हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक, क्वीन सोराया ने औरतों से ये भी कहा था कि वो पर्दा छोड़ दें, और उन्होंने खुद सार्वजनिक तौर पर ऐसा किया था. इधर अमानुल्लाह खान ने भी औरतों के हालात बेहतर करने के लिए कई तरह के सोशल रिफॉर्म्स किए. इनमें शामिल था नया ड्रेस कोड, जो काबुल में औरतों को परमिशन देता था कि वो अपने चाहें तो पर्दा न करें औऱ उन्हें वेस्टर्न कपड़े पहनने की भी आज़ादी दी गई. अमानुल्लाह खान ने कहा-

"धर्म में ये ज़रूरी नहीं है कि औरतें अपने हाथ, पैर और चेहरा ढकें."

20 वीं सदी की शुरुआत से ही अफगानिस्तान में महिलाओं की आज़ादी और विकास को लेकर काम शुरू कर दिया गया था. 'एमनेस्टी इंटरनेशनल' की मानें तो अफगानिस्तान में औरतों को 1919 में ही वोट देने का अधिकार मिल गया था. उनके ऊपर कपड़ों, पढ़ाई, नौकरी इन सारे मुद्दों को लेकर ज्यादा रोक-टोक नहीं थी. लड़कियों की पढ़ाई के लिए स्कूल खुल रहे थे. 1923 में औरतों को शादी की पसंद को लेकर कानूनी अधिकार मिल गए थे. 1928 में अफगानिस्तान की औरतों का पहला ग्रुप टर्की में स्कूल अटेंड करने गया. 1940 से 50 के बीच औरतें नर्स, डॉक्टर और टीचर्स बनीं. 1959 से 1965 के बीच सिविस सर्विस में भी औरतों की एंट्री हुई. स्पोर्ट्स में भी औरतें खुलकर पार्टिसिपेट करने लगीं.

1960 का दशक ऐसा था, जहां अफगानिस्तान के शहरी इलाकों की सड़कों पर वेस्टर्न कपड़े पहनी हुई लड़कियां भी दिखती थीं और बुर्का पहनी हुई भी नज़र आती थीं. ये उनका अधिकार था कि वो क्या पहनना चाहती हैं. काबुल यूनिवर्सिटी में भी लड़कियों की संख्या दिन पर दिन बढ़ने लगी. 1965 में पहली बार दो महिला सीनेटर्स को भी अपॉइंट किया गया. 1966 से 71 के बीच अदालतों में 14 महिला जज अपॉइंट हुईं. 1960 के आंकड़े बताते हैं कि अफगानिस्तान में औरतों की कुल जनसंख्या का 8 फीसद हिस्सा पैसे कमाने लगा था. ये थी अफगानिस्तान की महिलाओं की पहली तस्वीर. जो तालिबान के आने के पहले तक रही. औरतों को कानूनी तौर पर कई अधिकारी मिले थे. वो खुलकर जीती थीं. कई बार तो अफगानिस्तान की औरतों के फैशन सेन्स की भी चर्चा हुई.


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अफगानिस्तान की औरतें 70 के दशक तक अपने हिसाब से अपनी मर्ज़ी से कपड़े पहनती थीं. (फोटो- गेटी)

दूसरी तस्वीर बड़ी डरावनी बनी

ये मंज़र बदलना शुरू हुआ पिछली सदी के सातवें दशक के आखिरी कुछ बरसों में. 1978 में सोवियत संघ की देखरेख में अफगानिस्तान में क्रांति हुई. अमेरिका ने कम्युनिस्ट सोवियत संघ के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए एक गुप्त ऑपरेशन को मंजूरी दी. इसके तहत अफगानिस्तान में कट्टर इस्लामिक विचारधारा वाले लड़ाकों (मुजाहिद्दीनों) को तैयार किया गया. जिन्होंने लगातार कमजोर हो रहे सोवियत संघ को हरा दिया. 1989 में सोवियत की वापसी हो गई. लेकिन कई मुजाहिद्दीन जंग के मैदान पर बने रहे. 90 के दशक में अफगानिस्तान में एक अंतरिम सरकार बनी. इस बीच मुजाहिद्दीनों के अलग-अलग ग्रुप सत्ता पाने के लिए लड़ने लगे. इन्हीं में से एक ग्रुप कांधार शहर के उन धार्मिक छात्रों का भी था, जिन्हें लोग ‘तालिब’ बुलाते थे. लेकिन इस ग्रुप को एक लीडर की ज़रूरत थी, तालिब ग्रुप को 90 के दशक के शुरुआती बरसों में अपना लीडर मिल गया, जिसका नाम था- मुल्ला मुहम्मद ओमर. और इसके बाद इस ग्रुप का नाम पड़ा तालिबान, इसका गठन हुआ 1994 में. तालिबान ने कहा कि वो सत्ता के लिए लड़ रहे अलग-अलग समूहों को हराकर देश में इस्लाम का राज कायम करेगा. 1996 में तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया, और यहां से अफगानिस्तान की औरतों की दूसरी तस्वीर की शुरुआत हुई. वो तस्वीर जो ये औरतें कभी याद नहीं करना चाहती थीं.

अफगानिस्तान में तालिबान का शासन साल 2001 तक रहा. इन पांच बरसों में तालिबान ने शरिया कानून लागू कर दिया और औरतों पर कई तरह की पाबंदियां लगा दीं. जैसे-

- लड़कियों के स्कूल जाने पर, उनकी शिक्षा पर रोक लगा दी गई

- औरतें बाहर जाकर काम नहीं कर सकती थीं

- औरतें अकेले घर के बाहर नहीं निकल सकती थीं, अगर उन्हें बाहर जाना भी होता था तो उनके साथ परिवार के किसी पुरुष का होना ज़रूरी था

- औरतों का पर्दा करना अनिवार्य कर दिया गया, वो घर के बाहर ऐसे कोई कपड़े नहीं पहन सकती थीं, जिनसे उनके शरीर का कोई अंग दिखे

- महिलाएं पुरुष डॉक्टर्स से चेकअप नहीं करवा सकती थीं, और दूसरी तरफ महिलाओं के काम पर भी रोक लगा दी गई थी, ऐसे में इन पांच बरसों में औरतें पूरी तरह से हेल्थ केयर सर्विस से दूर रहीं

- औरतों को पब्लिक प्लेस पर बोलने की आज़ादी नहीं थी और न वो किसी पॉलिटिक्स में शामिल हो सकती थीं.

- काबुल में रहने वाले लोगों को आदेश दिया गया था कि वो अगर ग्राउंड फ्लोर में रहते हैं या फर्स्ट फ्लोर में, तो अपने घर के दरवाज़ें-खिड़कियां बंद रखें, ताकि बाहर से कोई घर की औरत को न देखे.

अगर औरतें इन नियमों का पालन नहीं करती थीं, तो सबके सामने उन्हें बुरी तरह से पीटा भी जाता था. मेकअप पर भी रोक लगा दी गई थी. 1996 में एक महिला के अंगूठे को केवल इसलिए काट दिया गया था, क्योंकि उसने नेलपॉलिश लगाई थी. लड़कियों को अगर उनके परिवार वाले स्कूल भेज भी देते, तो परिवार वालों को मारा जाता था या उनकी हत्या कर दी जाती थी. इस दौरान औरतों और लड़कियों के रेप और हिंसा की घटनाएं भी बहुत ज्यादा बढ़ गई थीं. यानी अफगान में औरतों के पास 1996 से लेकर साल 2001 तक कोई भी अधिकार नहीं था, वो केवल अपने-अपने घरों में कैद होकर रह गई थीं.


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औरतों को तालिबान के शासनकाल में शरीर को पूरी तरह से ढककर रहना पड़ता था. (फोटो- गेटी)

कैसे बदली ये तस्वीर?

सितंबर 2001 में यूएस में सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था. नाम आया था ओसामा बिन लादेन का. पता चला कि उसे तालिबान से संरक्षण मिला हुआ है. अमेरिका ने पहले तालिबान से लादेन को सौंपने के लिए कहा और तब तालिबान ने ऐसा करने से मना कर दिया, इसके बाद अमेरिका ने अपनी सेनाएं अफगानिस्तान में भेज दीं. और इसके बाद तालिबान का शासन खत्म हुआ. यहां से अफगान की महिलाओं की तीसरी तस्वीर की शुरुआत हुई.

साल 2004 में अफगानिस्तान का संविधान बना, औरतों को कई तरह के अधिकार मिले. कई स्कूलों के दरवाज़ें लड़कियों के लिए खुल गए, औरतों ने दोबारा काम पर जाना शुरू कर दिया. कई सारे ऑर्गेनाइज़ेशन्स अफगानिस्तान में खुले, जो औरतों के अधिकारों को लेकर काम करने लगे. उन्हें शिक्षित करने, हेल्थ की सुविधा देने, ज़िंदगी को बेहतर बनाने और स्किल ट्रेनिंग की दिशा में इन ऑर्गेनाइज़ेशन्स ने काम किया. पार्लियामेंट में औरतों को चुना गया. एक फीमेल कैंडिडेट मसूदा जलाल ने प्रेसिडेंट का चुनाव लड़ा, प्रांतों में गवर्नर्स के चुनावों में भी महिलाओं ने हिस्सा लिया. इस पद तक भी महिलाएं पहुंचीं. दोबारा स्कूलों में पढ़ाना शुरू किया, जज के पद पर भी महिलाओं ने अपनी पहुंच बनाई. तालिबान ने औरतों को बुरी तरह कुचल दिया था, ये औरतें किसी तरह खुद के हालात को सुधार ही रही थीं कि तालिबान का शिकंजा एक बार फिर कसना शुरू हो गया.


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तालिबान के जाने के बाद लड़कियों के लिए स्कूल फिर से खुले थे.

अभी क्या हो रहा है?

अमेरिका के जो सैनिक अफगानिस्तान में तैनात थे, उन्हें यूएस के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने वापस बुलाने का फैसला ले लिया. अफगानिस्तान की धरती पर कभी अमेरिकी सैनिक एक लाख से ज्यादा हुआ करते थे, लेकिन 2 जुलाई के बाद से इनकी संख्या कम होने लगी. और तालिबान को मौका मिल गया फिर से पैर पसारने का. तालिबान की करतूतों की खबरे धीरे-धीरे तेज़ होने लगीं. और 15 अगस्त को तालिबान लड़ाके काबुल में राष्ट्रपति के आवास में घुस गए. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने देश छोड़ दिया. और इस तरह एक बार फिर तालिबानी शासन की शुरुआत हो गई.

तालिबान के लौटने पर अफगानिस्तान की औरतों कि चौथी तस्वीर भी बनती दिख रही है. वो तस्वीर जिसमें अंधेरा है, जो धुंधली है. जिसका ख्याल ही डराने वाला है. कई परिवार घर छोड़ने पर मजबूर हैं. लड़कियों को स्कूल जाने से रोका जा रहा है, औरतों के काम पर जाने पर पाबंदी लगा दी गई है. महिला जजों और पत्रकारों पर गोलियां चलाई जा रही हैं. जीन्स पहनने पर मौत के घाट उतारा जा रहा है. सड़कों पर कोड़े तक बरसाए जा रहे हैं. ऐसी बहुत सी मीडिया रिपोर्ट्स आई हैं, जिनमें बताया गया है कि अफगानिस्तान के अलग-अलग इलाकों में कब्जा करने के बाद तालिबान वहां के युवा पुरुषों को मौत के घाट उतार रहा है और महिलाओं को सेक्स स्लेव के तौर पर अपने साथ ले जा रहा है. इन सबके बीच अफगानिस्तान की औरतें मदद मांग रही हैं. आज़ादी मांग रही हैं. अपना दर्द किसी तरह से बयां कर रही हैं. फिल्म मेकर सहारा करीमी ने 13 अगस्त को एक ओपन लेटर लिखा. कहा-

"जब तालिबान सत्ता में था, तब स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या शून्य थी. तब से, स्कूल में 9 मिलियन (90 लाख) से अधिक अफगान लड़कियां हैं. तालिबान द्वारा जीते गए तीसरे सबसे बड़े शहर हेरात में इसके विश्वविद्यालय में 50% महिलाएं थीं. ये अविश्वसनीय उपलब्धियां हैं, जिन्हें दुनिया नहीं जानती. इन कुछ हफ्तों में तालिबान ने कई स्कूलों को तबाह कर दिया है और 20 लाख लड़कियों को फिर से स्कूल से निकाल दिया है. मैं इस दुनिया को नहीं समझती. मैं इस चुप्पी को नहीं समझती. मैं खड़ी हो जाऊंगी और अपने देश के लिए लड़ूंगी, लेकिन मैं इसे अकेले नहीं कर सकती. मुझे आप जैसे सहयोगी चाहिए. हमारे साथ क्या हो रहा है, इस पर ध्यान देने में इस दुनिया की मदद करें."


अफगानिस्तान की महिला अधिकार कार्यकर्ता मरियम अताही ने जर्मनी के न्यूज़ पोर्टल डॉयचे विले से बात की. उन्होंने कहा-

"मुझे डर है कि वो लोग आएंगे और मुझे मार डालेंगे. क्योंकि मैं बीते 20 बरसों से तालिबानी विचारधारा के खिलाफ जाकर महिलाओं के अधिकारों की बात कर रही हूं."

'द गार्डियन' ने काबुल की रहने वाली एक महिला का आर्टिकल छापा है. इस आर्टिकल में वो महिला लिखती हैं-

"अपने ऑफिस का पीसी बंद करते हुए मुझे बेहद तकलीफ हुई. वो पीसी जिसका इस्तेमाल मैंने चार साल तक लोगों की सेवा के लिए किया. मैंने जब अपनी डेस्क छोड़ी तब मैं रो रही थी. मुझे पता था कि ये मेरी नौकरी का आखिरी दिन है. घर पहुंचते ही मैंने और मेरी बहन ने हमारी आईडी और सर्टिफिकेट्स छुपा दिए. जिन चीज़ों पर हमें गर्व होना चाहिए, वो हमें छुपाना पड़ रहा है. मुझे लगता है कि अब मैं कभी ज़ोर से हंस नहीं पाउंगी, कभी अपनी पसंद का गाना नहीं सुन पाउंगी. अपने दोस्तों से नहीं मिल पाउंगी, अपनी पसंद के कपड़े नहीं पहन पाउंगी, न मेकअप लगा पाउंगी. मैं कोई जॉब नहीं कर पाउंगी. और जिन डिग्रियों के लिए मैंने इतने साल मेहनत की, वो भी पूरी नहीं कर पाउंगी."

'न्यूज़ 18' वेबसाइट ने दिल्ली में मौजूद एक अफगानी महिला से बात की, जिनका नाम खतेरा है. जो एक पुलिसकर्मी थीं. खतेरा पिछले साल अक्टूबर में तालिबानियों के टॉर्चर का शिकार हुई थीं, तब जब दो महीने की प्रेगनेंट थीं. जब खतेरा पिछले साल अपने घर जा रही थीं, तब तीन तालिबानी फाइटर्स ने उनकी आईडी चेक की, फिर उन पर गोलियां चलाईं. चाकू से भी वार किया. आंख तक फोड़ डाली, जब खतेरा बेहोश हो गईं, तो उन्हें छोड़कर भाग निकले. खतेरा तालिबानियों के बारे में कहती हैं-

"वो पहले हम औरतों को टॉर्चर करते हैं, फिर हमारे शरीर को चोटिल करते हैं, ताकि वो सज़ा का स्पेसिमेन दिखा सकें. फिर कई बार हमारे शरीर को कुत्तों को खिला देते हैं. मैं बहुत लकी थी कि मैं सर्वाइव कर गई. उनकी नज़रों में औरतें कोई जिंदा व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि केवल मांस और खून हैं."

15 अगस्त के दिन एयर इंडिया की एक फ्लाइट 129 लोगों को काबुल से दिल्ली लेकर आई. दिल्ली पहुंची एक महिला ने रोते हुए अपना दर्द बयां किया. उसने कहा-

“मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि दुनिया ने अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया है. हमारे दोस्त मारे जाएंगे. तालिबान हमें मार डालेगा. हमारी महिलाओं को कोई भी अधिकार नहीं मिलने वाले.”

महिलाएं भले ही अफगानिस्तान में अपनी हिफाजत को लेकर चिंता जता रही हैं, लेकिन तालिबान अलग ही दावा कर रहा है. वो महिलाओं को नौकरी की इज़ाजत देने की बात कर रहा है. तालिबान प्रवक्ता जैबुल्ला मुजाहिद ने इंडिया टुडे टीवी से कहा-

“महिलाओं को शरिया नियम-कानूनों को मानते हुए काम करने की आजादी होगी. बच्चों को भी पढ़ाई की इज़ाजत मिलनी चाहिए. अफगानिस्तान में बेहतर शिक्षा की बहुत जरूरत है.”

तालिबान के इस बयान पर फेमस राइटर तसलीमा नसरीन ने रिएक्ट किया है. उन्होंने ट्विटर पर कहा-

"तालिबान कह रहा है कि शरिया कानून के तहत वो औरतों और अल्पसंख्यकों के अधिकार और आज़ादी की रिस्पेक्ट करेगा. लेकिन दिक्कत ये है कि शरिया कानून में न तो औरतों को और न ही अल्पसंख्यकों को अधिकार और बोलने की आज़ादी दी गई है."


तालिबान का दोबारा अफगानिस्तान में कब्ज़ा पाना, औरतों के लिए सबसे खतरनाक है. 20 साल में जो कुछ भी अफगान की औरतों ने हासिल किया, उन्हें डर है कि कहीं एक झटके में ये सब खत्म न हो जाए. तालिबान हमेशा से महिलाओं को लेकर काफी सख्त शरिया कानून लागू करने का हिमायती रहा है. इनमें उनके पहनावे से लेकर काम न करने के नियम तक शामिल हैं. इसलिए औरतों को डर है कि कहीं 1996 से 2001 के बीच का समय वापस न आ जाए.


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