अगर मुर्गे की चार टांगें होतीं, तो क्या एक भी लड़कियों की प्लेट तक पहुंच पाती?
भारतीय रसोई में खाने की तमाम चीजें हैं. जैसे पनीर, चिकन, मशरूम इत्यादि. रसोई में ज्यादातर स्त्रियां ही खाना पकाती हैं. वही सलाद भी काटती हैं. रोटी पर घी भी वही लगाती हैं. पर ना जाने कैसे सलाद, अक्सर घर के पुरुषों की प्लेट में अधिक चला जाता है. उनकी दाल की कटोरी में अधिक घी पहुंच जाता है.
कुछ साल पहले दूरदर्शन पर एक एनिमेटेड शो आया करता था. नाम था 'मीना'. शो का एक एपिसोड मुझे आज भी याद है. इसमें मीना अपने घर के पास के एक पेड़ से आम तोड़ कर लाती है और अपनी मां को दे देती है. मीना की मां आम को तीन हिस्सों में काटती हैं. एक हिस्सा मीना को मिलता है और दो हिस्से मीना के भाई राजू को.
मीना अपनी मां से सवाल करती है कि अगर आम वह तोड़ कर लाई थी, तो राजू को इसके दो हिस्से क्यों मिले? जवाब मिलता है कि राजू लड़का है. उसी रात जब सब लोग खाना खाने बैठते हैं, तो मीना की खाने की प्लेट में परोसा खाना राजू से अलग होता है. मीना फिर अपनी मां से पूछती है. इस बार जवाब मिलता है, 'राजू बड़ा हो रहा है, उसे ज्यादा पोषण की ज़रूरत है.' हाल में आई फिल्म 'लापता लेडीज' के एक सीन में कुछ महिलाएं खाने को लेकर आपस में बात करती हैं. एक महिला बात-बात में कहती है कि क्या अब औरतों की पसंद का खाना बनेगा?
यहां घटनाएं, समाज से पहले टीवी के जरिए मेरे पास पहुंच रही हैं. और कुछ अनजान सवाल खड़े हो रहे हैं. जैसे एक ही घर में रहने और एक ही स्कूल में जाने वाले भाई-बहन के टिफिन का खाना एक जैसा क्यों नहीं होता? पिछले दिनों मेरी ऑफिस कलीग ने बताया कि जब उनकी मां छोटी थीं, तो उनके भाई को पीने के लिए गाय का दूध दिया जाता था और उन्हें पाउडर वाला. साथ ही खाने की चीजों में मां और भाई की थाली एक जैसी ही होती थी, लेकिन उसमें परोसे गया खाना अलग.
मेरी मां और मेरी मासी भी इस अनुभव से गुज़र चुकी हैं. उन्हें छोटी उम्र में खाने के वक्त आधे अंडे दिए जाते थे और उनके भाइयों को पूरा एक अंडा या दो भी. मां इस बात से परेशान नहीं होती थीं. लेकिन मासी होती थीं. परेशान इस बात से भी होती थीं जब वो ट्यूशन पढ़ने के लिए किसी टीचर को खोजकर लाती थीं, तो उनके भाई उस टीचर को टिकने नहीं देते थे.
घर में मासी तभी पढ़ सकती थीं जब उनके भाई पढ़ते थे. मासी के लिए अलग से ट्यूशन नहीं लगवाया जा सकता था. जो सवाल मासी के मन में थे, वही मेरे मन में भी हैं. उस स्कूल की दोस्त के मन में भी होंगे, जिसके हिस्से की सब्जी में कटौती कर दी जाती थी और ये उसके भाई की थाली में पहुंच जाती थी.
लगभग हर घर में पुरुषों को ही प्राथमिकता दी जाती है. उन घरों में भी, जो संपन्न होते हैं या जिन्हें आधुनिक विचारों वाला माना जाता है. और ऐसा क्यों होता है? इस सवाल का जवाब हमें मिलता ही नहीं! ना ही हमें जवाब मिलने की कोई उम्मीद होती है. आखिर ऐसी कितनी ही कहानियां हैं और कितने ही संस्मरण हैं, जिन्हें लिखा-कहा जा सकता है.
खाने की प्लेट में ज्यादा-कम काफी लंबे समय से चलता आ रहा है. अपनी नॉर्मल स्पीड में. यह एक अलिखित नियम है कि वही महिलाएं जिनके हिस्से का भोजन उन्हें नहीं मिला, वही आगे चलकर अपने बेटों को अधिक तवज्जो देने लगती हैं. भारत की रसोई में खाने की कई बेहतरीन चीजें हैं. वेज-नॉनवेज दोनों ही कैटेगरी में. पनीर, मशरूम, पुआ, आलू दम, मछली और चिकन-मटन.
इनमें से कुछ चीजों को खास मौके पर ही पकाया जाता है. चिकन का ही उदाहरण लें तो मिडल क्लास परिवारों में चिकन महीने में एक या दो बार ही बनता है. जिस शाम चिकन पकाया जाता है उस समय सबकी नजर लेग पीस पर ही होती है. चिकन पक जाने के बाद मां अपने मन से ही लेग पीस को त्याग देती हैं. मां का दिल तो मां का दिल है! ये सदियों से चला आ रहा एक वाक्य है, जिसकी आढ़ में हम अपनी मां के सामान्य से सामान्य अधिकार छीन लेते हैं.
माओं के साथ ये होता है और फिर उनमें से कई ये उम्मीद करती हैं कि उनकी बेटियां भी यहीं करें. ना जाने वो ये क्यों चाहती हैं कि चिकन लेग पीस उनके पति और बेटे की प्लेट में जाए! कई बार बेटियां भी मां की तरह त्याग कर देती हैं. लेकिन हो सकता है उनके मन में यह बात चिपक गई हो. जब वो छोटी रही हों तो किसी कोने में उदास हुई हों या फिर रोई भी हों. और जैसा कि होता आया है, शायद उन्हें आदत पड़ जाती हो! और उनका ध्यान अब चिकन लेग पीस पर जाता ही न हो. उन्होंने यह भी मान लिया हो कि उन्हें चिकन में पसंद की पीस चुनने की आजादी नहीं है. वो वही खा सकती हैं, जो उनके पिता और भाई के खाने के बाद बच गया हो.
आपको लग रहा होगा जिस हिंदुस्तान में लगभग 20 करोड़ लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हों, उसी देश में ज़ायके के कितने प्रयोग उपलब्ध हैं. जहां एक बड़ी आबादी कुपोषित है, वहां एक लड़की भरे पेट ये सब क्या ही लिख रही है! भोजन में कुछ स्पेशल और इक्वल मात्रा में मिल जाना एक आश्चर्य है. या शायद कोई बहुत मामूली सुख. या यह कोई वैसा दुख है, जिसमें मन कचोटकर रह जाता है. जिससे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता. लेकिन शायद पड़ता भी है. या बहुत पड़ता है.
स्त्रियां बच्चे पैदा करने के अधिकार, मैटरनिटी लीव, इक्वल ‘पे’ जैसे ना जाने कितने मसलों से जूझ रही हैं. जेंडर डिस्क्रिमिनेशन की बहुत लंबी लिस्ट है. बहुत गहरी भी. हमारी आपकी थाली में मिलने वाले पकवानों जितनी साधारण. दरअसल, बात सिर्फ लेग पीस की नहीं है. उस कॉन्फिडेंस की भी है, जिसके कमज़ोर होते रहने का सिरा नहीं मिलता. जिसके पीछे का कारण थाली में मिलने वाला भोजन भी है और और मंदिरों में प्रवेश ना मिल पाने की सूचनाएं भीं. अपने ही घर में पूरी तरह अपनापन न महसूस करने का बारीक संदेह भी है.
हमारी रसोई में ज्यादातर स्त्रियां ही खाना पकाती हैं. वही सलाद भी काटती हैं. रोटी पर घी भी वही लगाती हैं. पर ना जाने कैसे सलाद, अक्सर घर के पुरुषों की प्लेट में अधिक चला जाता है. उनकी दाल की कटोरी में अधिक घी पहुंच जाता है. मेरे जैसी तमाम लड़कियों के मन में थाली को लेकर अनेक संस्मरण है. अच्छे-बुरे दोनों. जो बुरे हैं, उनकी आवाज़ कांच के टूटने जितनी कर्कश तो नहीं है, लेकिन साधारण भी नहीं है.
मुर्गे की दो टांगें ही होती हैं. इसलिए एक पति की प्लेट में जाती है और दूसरी बेटे की प्लेट में. शायद उसे हमारी प्लेट में आने लिए अभी समय लगेगा. लेकिन मैं सोचती हूं कि अगर मुर्गे की चार टांगें होतीं! तो क्या उनमें से एक भी लड़कियों की प्लेट तक पहुंच पाती?
ये भी पढे: 'Gen Z', 'मिलेनियल्स' और 'अल्फा' जैसे नाम किस मीटिंग में तय किए जाते हैं?
वीडियो: ट्रांसजेंडर वाले पार्लर में ऑडनारी टीम को क्या देखने को मिला?