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इज़रायल के पड़ोसी देश लेबनान की सीमा पर भारतीय सेना के जवान क्या कर रहे हैं?

15 मार्च की तारीख. लेबनान इजरायल के हमले-कब्जे की शिकायत करने संयुक्त राष्ट्र जनरल काउंसिल पहुंचा. कहा कि PLA से हमारा कोई लेनादेना नहीं है. इजरायल सच नहीं बोल रहा है. 19 मार्च को संयुक्त राष्ट्र की जनरल काउंसिल ने एक रेसोल्यूशन पारित किया. और इजरायल से कहा कि वो लेबनान के हिस्सों से अपनी फौज वापिस खींच ले, कब्जा किये इलाकों को तुरंत फ्री करे और युद्ध रोक दे. इजरायल ने ये बात मानने में देर लगा दी.

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UN Peacekeeping forces and rocket attacks in Israel Hamas war(Photo: India today)
यूएन पीसकीपिंग फोर्स में भारतीय सेना के जवान और इज़रायल हमास युद्ध की तस्वीर(फोटो: इंडिया टुडे)
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सिद्धांत मोहन
19 अक्तूबर 2023 (Published: 20:15 IST)
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क्या आप जानते हैं कि इजरायल हमास युद्ध के बीच भारतीय सेना के जवान मौजूद हैं? आर्मी के ये जवान इस युद्ध में क्या भूमिका निभा रहे हैं? इजरायल ने पीएम मोदी से क्या उम्मीद बांधी है? पीएम मोदी इजरायल की मदद कैसे कर सकते हैं? और भारत पर क्या कोई कूटनीतिक किस्म का दबाव है? ये वही बातें हैं जिनके जवाब हम आज ढूँढने की कोशिश करेंगे. भारतीय सेना के जवानों की बात करने के लिए इजरायल के बगल में मौजूद एक देश में चलते हैं - लेबनान. जब इजरायल और हमास के बीच बमबारी के बाद लड़ाई शुरू हुई, तो लेबनान में मौजूद चरमपंथी संगठन हिजबुल्ला ने भी हमला कर दिया. ये ऐसे ही किसी खुन्नस में किया गया हमला नहीं था. लेबनान और इजरायल पर अपनी पुरानी खुन्नस उतारी थी. ये दोनों आपस में पहले भी लड़ चुके हैं. 11 मार्च 1978 की तारीख में चलते हैं. इस दिन फिलिस्तीनी लिबरेशन आर्मी (PLA) ने इज़रायल में हमला करके 37 नागरिकों की जान ले ली. ये हमला इजरायल के उस हिस्से में हुआ था, जो लेबनान से सटा हुआ है. इजरायल ने भी पलटकर हमला किया. इजरायल डिफेंस फोर्स यानी IDF के लड़ाके फिलिस्तीन के परंपरागत इलाकों जैसे गाज़ा पट्टी या वेस्ट बैंक नहीं गए. IDF के लोग सीधे लेबनान में जाकर घुस गए. लेबनान के दक्षिणी हिस्से में मौजूद लितानी नदी के पार PLA का ठिकाना हुआ करता था. इजरायल का लक्ष्य था कि उन्हें जड़ से खत्म कर दिया जाए. इजरायल घुसा. फायरिंग हुई और उसने लेबनान के पूरे दक्षिणी हिस्से पर कब्जा कर लिया.

फिर आई 15 मार्च की तारीख. लेबनान इजरायल के हमले-कब्जे की शिकायत करने संयुक्त राष्ट्र जनरल काउंसिल पहुंचा. कहा कि PLA से हमारा कोई लेनादेना नहीं है. इजरायल सच नहीं बोल रहा है. 19 मार्च को संयुक्त राष्ट्र की जनरल काउंसिल ने एक रेसोल्यूशन पारित किया. और इजरायल से कहा कि वो लेबनान के हिस्सों से अपनी फौज वापिस खींच ले, कब्जा किये इलाकों को तुरंत फ्री करे और युद्ध रोक दे. इजरायल ने ये बात मानने में देर लगा दी. फौज वापिस खींचने की प्रक्रिया अटकी रही. साल 2000 आते-आते इज़रायल ने सैनिक वापिस खींचने शुरू कर दिए. अब इतने लंबे समय तक चली घुसपैठ थी कि इजरायल और लेबनान के दक्षिणी हिस्से में बाउंड्री एकदम ब्लर हो गई थी. सीमा विवाद शुरू हुआ. तो अब फिर से बाउंड्री खींचने की बारी थी. UN ने इस काम के लिए दोनों देशों को बुलाया.  लेकिन लेबनान में बॉर्डर खींचने की कार्रवाई में हिस्सा लेने से मना कर दिया. तो UN को ये जिम्मेदारी उठानी पड़ी. जिसके बाद इजरायल और लेबनान के बीच उनकी अंतर्राष्ट्रीय सीमा से अलग एक बाउंड्री खींची गई, और उसे नाम दिया गया ब्लू लाइन. एक युद्धशांति लाइन, जिसकी लंबाई थी कुल 120 किलोमीटर.

लेबनान में भारतीय सेना क्या कर रही है?

अब जो हालिया युद्ध चल रहा है, उसके बीच अगर आप बहुत सावधानी से और सुरक्षित तरीके से लेबनान की साइड से इस ब्लू लाइन के पास जाते हैं तो आपको जाने-पहचाने चेहरे दिखेंगे. भारतीय लोगों के चेहरे. इन लोगों के शरीर पर भारतीय सेना के यूनिफ़ॉर्म होंगे. कंधे पर उजले नीले रंग का बिल्ला होगा, बॉडी पर इसी रंग का एक बुलेटप्रूफ जैकेट या वेस्ट, और सिर पर इसी रंग की हेलमेट या बैरे कैप होगी.  इन नीले रंग की चीजों पर दो अक्षर  लिखे होंगे  - UN. यानी यूनाइटेड नेशंस.  भारतीय सेना के ये जवान और अधिकारी दरअसल संयुक्त राष्ट्र की पीसकीपिंग फोर्स का हिस्सा हैं. जब साल 1978 में un ने इजरायल से फौज वापिस खींचने के लिए कहा था तो अपनी इस पीसकीपिंग फोर्स की एक यूनिट यहाँ बिठा दी थी. जो आज भी कायम है. इस यूनिट को कहा गया UNIFIL (यूनीफिल) यानी UN Interim Force in Lebanon. इस टुकड़ी में भारत के लगभग 900 जवान हैं. भारत के अलावा इटली, फ्रांस, स्पेन, तुर्की, चीन, घाना जैसे देशों के सैनिक भी देखने को मिलेंगे. कुल 10 हजार से ज्यादा जवान दुनिया भर के.

Indian peacekeepers deployed with UNMISS honoured with UN medal for  exemplary service - India Today
UN पीस कीपिंग फोर्स(फोटो: इंडिया टुडे)

ये सैनिक एक दूसरे के साथ काम करते हैं. मिलकर काम करते हैं. कैसे काम करते हैं? और पीसकीपिंग फोर्स की कहानी क्या है ये हम आपको आगे बताएंगे. लेकिन पहले ये संक्षिप्त में आपको ये बताएंगे कि ये सैनिक काम क्या करते हैं. इन सैनिकों ने इजरायल को फिर से लेबनान में घुसने से और हिजबुल्ला को इजरायल पर फिर से हमला करने से रोक रखा है. अगर सैनिक फ्रन्ट पर से हट जाएंगे तो इजरायल 1978 की तरह फिर से घुसपैठ कर सकता है. या ऐसा भी हो सकता है कि इजरायल पर रॉकेट दाग रहा हिजबुल्ला और व्यापक तौर पर हिंसक हो जाए. तो इन जवानों का इस मोर्चे पर बने रहना जरूरी है.

ये UN पीसकीपिंग फोर्स है क्या?

पीसकीपिंग फ़ोर्स का शाब्दिक तर्जुमा है, शांतिरक्षक सेना. यानी, ऐसी सेना जो किसी हिंसाग्रस्त इलाके में शांति स्थापित करने में मदद करे.
पीसकीपिंग फ़ोर्स का इस्तेमाल क्यों किया जाता है?
- शांति समझौतों को मॉनिटर करने के लिए.
- शांति समझौते को लागू कराने में मदद के लिए.
- विवादित इलाकों में अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन कराने के लिए.
- शांतिपूर्ण चुनाव में मदद कराने के लिए.

आमतौर पर इन परिस्थितियों में पीसकीपिंग फ़ोर्स की तैनाती की जाती है. मगर उनका दायरा यहीं तक सीमित नहीं है. इनका मकसद देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से बदलता रहता है. इंटरनैशनल लॉ के के हिसाब से, पीसकीपिंग फ़ोर्स न्यूट्रल होतीं है. वो किसी का पक्ष नहीं लेती. इसके अलावा, उन्हें युद्धग्रस्त इलाकों में आम नागरिकों की तरह के अधिकार मिले होते हैं. यानी, पीसकीपिंग फ़ोर्स पर हमले को वॉर क्राइम माना जा सकता है.

एक धारणा ये है कि पीसकीपिंग फ़ोर्स सिर्फ़ यूनाइटेड नेशंस के पास है. ऐसा नहीं है. NATO, यूरोपियन यूनियन, अफ़्रीकन यूनियन के पास भी अपनी पीसकीपिंग फोर्स है. लेकिन सबसे प्रभावशाली और ताकतवर फोर्स यूएन की है. इसमें उन उन देशों के सैनिक काम करते हैं, जो देश संयुक्त राष्ट्र में शामिल हैं. देशों के सैनिक अपनी सेना की यूनिफ़ॉर्म पहनते हैं, साथ में लगाना होता है वो नीली कैप, जैकेट और बिल्ला.

UN पीसकीपिंग फोर्स बनी कैसे? 

साल 1945. बहुत सारी लाशें गिराकर, खून गिराकर दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हुआ. जीतने वाले देश एक नए संगठन की बुनियाद रख रहे थे. एक ऐसा संगठन, जिसमें दुनिया के अधिकतर देश शामिल हों और जो उन देशों के बीच सामंजस्य बिठाकर रखे. ऐसा संगठन क्यों बनाना था? ताकि फिर एक विश्वयुद्ध न हो. इस तरह अक्टूबर 1945 में यूनाइटेड नेशंस अस्तित्व में आया.
यूएन को सारी समस्याओं का हल माना जा रहा था. लेकिन दुनिया इतनी भी उदार नहीं थी. दूसरे विश्वयुद्ध के तुरंत बाद दुनिया दो ध्रुवों में बंट गई. सोवियत संघ और अमेरिका में तकरार शुरू हो चुकी थी. कोल्ड वॉर का चैप्टर खुल चुका था. इसी समय दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में देश औपनिवेशिक शासन से आज़ाद हो रहे थे. इस नए निर्माण में विध्वंस भी शामिल था. देशों की आज़ादी के साथ सीमायी विवादों का दायरा बढ़ रहा था.

मसलन, 15 अगस्त 1947 को भारत को आज़ादी हासिल हुई. साथ में बंटवारे का दंश भी. भारत के दो हिस्से हो गए. हिंदुस्तान और पाकिस्तान. पाकिस्तान की नीयत में खोट था. उसने अपने सैनिकों को कबीलाई लड़ाकों के भेष में जम्मू-कश्मीर में उतार दिया. भारत ने उसका जवाब दिया. दूसरा बड़ा घटनाक्रम मिडिल-ईस्ट में घटा. मई 1948 में इज़रायल की स्थापना हुई थी. और स्थापना के एक दिन बाद ही अरब देशों ने इज़रायल पर हमला कर दिया. ये अरब देश फ़िलिस्तीन के साथ खड़े थे. ये इजरायल के occupation यानी कब्जा करने का विरोध करते रहे थे.

उस समय यूएन ने कश्मीर और फ़िलिस्तीन में ऑब्जर्वर्स की एक टीम भेजी. ये औपचारिक तौर पर पीसकीपिंग फ़ोर्स नहीं थी. इनका काम दोनों पक्षों में समझौता होने तक बफ़र ज़ोन क्रिएट करने और शांति समझौते पर नज़र रखना था. ये अलग बात है कि दोनों समस्याएं आज तक बरकरार हैं. यूएन के कागजों और लिखापढ़ी ममें पीसकीपिंग फ़ोर्स जैसी किसी चीज़ का कोई ज़िक्र नहीं था. इसकी ज़रूरत वक़्त के साथ पड़ी और आगे बढ़ती ही गई. कुछ सालों तक टीम रही, वापिस आ गई. साल आया 1956 का. मिस्र  में स्वेज़ संकट आया. भूगोल और सामान्य ज्ञान की किताब में अपने स्वेज़ नहर के बारे में पढ़ा होगा. ये नहर भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ती है. बहरहाल, 1956 में मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नासेर ने स्वेज़ नहर का राष्ट्रीयकरण किया. कहा कि अब इस नहर पर जहाजों के पास करने पर जो चुंगी लगती है, उस पर मिस्र का हक होगा. यूरोप के देश इससे खुश नहीँ थे. क्योंकि वो सीधे तौर पर इस नहर से प्रभावित होते थे. 

ब्रिटेन, फ़्रांस के साथ मिलकर इज़रायल ने मिस्र पर हमला कर दिया. इन तीनों ने अमेरिका को इस हमले के बारे में पहले कोई जानकारी नहीं दी थी. अमेरिका इससे नाराज़ था. उसने प्रतिबंध लगाने की धमकी दी. उधर सोवियत संघ परमाणु हमले की चेतावनी दे रहा था. इस स्थिति में मामला यूएन पहुंचा. यूएन ने ब्रिटेन, फ़्रांस और इज़रायल की सेनाओं को बाहर निकलने के लिए कहा. तब पहली बार पीसकीपिंग फ़ोर्स की औपचारिक स्थापना हुई. UN की सिक्युरिटी काउंसिल के आदेश पर जिस पीसकीपिंग यूनिट की पोस्टिंग हुई, उसे UNEF यानी United Nations Emergency Force कहा गया . यूनिट का एक बड़ा हिस्सा मिस्र में पोस्टेड किया गया, और एक हिस्सा गाज़ा पट्टी के दक्षिणी हिस्से में.  क्योंकि मिस्र से झगड़े की आड़ में इजरायल ने इस साल गाज़ा में भी हमला कर दिया था. ये भारत के लिए पहला अवसर था, जब भारतीय सेना के जवान un की पीसकीपिंग पोस्टिंग में कहीं देश के बाहर गए. इसमें भारत के लगभग 12 हजार जवान शामिल हुए. और इन्हें लीड कर रह थे लेफ्टिनेंट जनरल पीएस ज्ञानी. पीसकीपिंग फोर्स के जवान तब तक मोर्चे पर डटे रहे, जब तक हमला करने वाली तमाम फोर्स और यूनिट्स बाहर नहीं निकल गईं. इस प्रैक्टिस में भारत के 27 जवान  शहीद हुए. उस वक्त भारत ने इजरायल की सरकार को भरसक आड़े हाथों भी लिया था और डिमांड की थी कि वो शहीद हुए जवानों के परिवारों को उचित मुआवजा दें. और आखिर में साल 1967 में भारत ने ग्लोब के इस हिस्से से अपने जवानों को वापिस बुला लिया.

तब से अब तक यूएन की पीसकीपिंग फ़ोर्स को 70 से अधिक बार तैनात किया जा चुका है. यूएन ने DR कॉन्गो, सिनाई पेनिनसुला कॉन्फ़्लिक्ट, रवांडा, बोस्निया एंड हर्जेगोविना, कोरियन वॉर जैसे अंतरराष्ट्रीय विवादों में अपनी शांतिरक्षक सेना भेजी है. कई बार वो शांति स्थापित करने में सफल भी हुए हैं. कई बार उन्हें असफलता का सामना भी करना पड़ा है. भारत भी इनमें से कई मौकों पर un के साथ रहा है. पीसकीपिंग फ़ोर्स पर नियंत्रण किसका होता है? जवान किसके आदेश फॉलो करते हैं? रणनीति कौन बनाता है? इन सवालों का जवाब है - यूएन सिक्योरिटी काउंसिल. सिक्योरिटी काउंसिल ही किसी इलाके में पीसकीपिंग फ़ोर्स भेजने का फ़ैसला लेती है. हालांकि, फ़ंडिंग यूएन के सभी सदस्य देते हैं. ऐसा माना जाता है कि सिक्योरिटी काउंसिल के परमानेंट सदस्यों की ज़िम्मेदारी अधिक है, इसलिए फ़ंडिंग का सबसे बड़ा हिस्सा वही देते हैं. इजरायल लेबनान बॉर्डर के अलावा भी उस हिस्से में कहीं भारतीय सैनिक पोस्टेड हैं? हां. इजरायल और सीरिया बॉर्डर पर. ये लेबनान वाले बॉर्डर से सटा हुआ है. ये सैनिक UN की disengagement Force यानी (UNDF) का हिस्सा हैं. 

इज़रायल को भारत से क्या उम्मीद है?

भारतीय सेना के जवान और अधिकारी पूरी शिद्दत के साथ मौके पर हैं. एकमात्र कोशिश ये, कि युद्ध खत्म हो जाए. लेकिन युद्ध खत्म होने के साथ आता है रक्तपात का रुकना और बंधक बनाए गए लोगों का छूटना. और इजरायल ने अपने बंधकों के लिए उम्मीद जताई है भारत से. भारत में इजरायल के राजदूत नॉर गिलन ने कहा है कि इजरायल के जिन लोगों को हमास या इस्लामिक जिहाद ने बंधक बनाया हुआ है, उनको छुड़ाने में भारत मदद करे. उनके मुताबिक, इजरायल के बंधक बनाए गए नागरिकों की संख्या 200 से ज्यादा है.

India stands with Israel': PM Modi speaks to Israeli PM on Hamas attacks - India  Today
PM मोदी और इज़रायल के राष्ट्रपति बेंजामिन नेतन्याहू (फोटो: इंडिया टुडे)


दरअसल गिलन अखबार इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत कर रहे थे. जब उनसे भारत से मिले समर्थन और संभावित मदद पर सवाल पूछे गए, तो उन्होंने जवाब दिया. कहा कि वो भारत से मिले समर्थन पर अभिभूत हैं.  कहा,

“हमें ये बात अच्छी लगी कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली प्रतिक्रिया बहुत जल्द आई, तब जब (इजरायल हमास युद्ध की) पूरी तस्वीर भी साफ नहीं हुई थी. इसके कुछ रोज बाद ही उन्होंने इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से बात करके फिर से एकजुटता दिखाई. सिर्फ भारतीय प्रधानमंत्री ही नहीं, हमें भारत सरकार से सभी स्तरों पर समर्थन मिला है - यहां के अधिकारी, मंत्री और नागरिक सभी हमें सपोर्ट कर रहे हैं.”

गिलन ने आगे कहा कि

“कई देश उन निर्दोष नागरिकों की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए हमास पर दबाव डालने की कोशिश कर रहे हैं. गाजा में हमारे लोग इस्लामिक स्टेट द्वारा बंधक बनाए गए लोगों की तरह ही हमास की क्रूरता और हिंसा का सामना कर रहे हैं... हमास के शीर्ष कमांडर्स इस्तांबुल और कतर जैसी जगहों पर विलासिता की जिंदगी जी रहे हैं. यदि भारत ऐसे लोगों से बात करने में सक्षम है जिनका इन कमांडर्स पर प्रभाव है, तो हम इसका स्वागत करेंगे. हम समझते हैं कि भारत का विश्व में एक विशेष स्थान है.”

 

भारत कैसे मदद करेगा?

जाहिर है कि भारत की मदद देने-पहुंचाने की राह इतनी आसान नहीं है. भारत पर एक डिप्लमैटिक किस्म का दबाव है. कैसा दबाव?दबाव कि भारत युद्ध में अपनी स्थिति साफ करे.  
इसको कुछ समीकरणों की मदद से समझिए. 18 अक्टूबर को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इज़रायल पहुंचे. बहाना गिनाया कि वो इज़रायल की योजनाओं के आकलन के लिए पहुंचे हैं. अपनी तमाम बयानबाजियों से बाइडन ने कुछ समीकरण साफ कर दिए. एक तरफ़ इज़रायल और अमेरिका है. साथ में कुछ यूरोपीय देश. और दूसरी तरफ़ फ़िलिस्तीन है, ईरान है, और अरब देश हैं. बीच में हमास और हिज़बुल्लाह जैसे संगठन हैं -- जो इस इक्वेशन को और जटिल बना रहे हैं. भारत के सामने विकल्प हैं कि वो किसी एक खेमे को पकड़े. मगर जंग के वक़्त विकल्प सीमित हो जाते हैं और उनका चुनाव जटिल. और भारत की जो डी-हाइफ़नेशन की नीति है, उस वजह से भारत पर प्रेशर और ज्यादा पड़ रहा है. डी-हाइफ़नेशन यानी इजरायल और फिलीस्तीन से अलग-अलग संबंध रखे जा सकते हैं. दोनों को साथ में देखना जरूरी नहीं. इस प्रैक्टिस को हमने ज्यादा विस्तार से 9 अक्टूबर के लल्लनटॉप शो में समझाया था, आप वहाँ इसे देख सकते हैं. लिंक नीचे डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा.
अब भारत पर जो दबाव है, उसको विशेषज्ञों की मदद से समझते हैं. एक विशेषज्ञ भारत के स्टैंड की सराहना कर रहे हैं, और दूसरे विशेषज्ञ भारत के स्टैंड को एक क्रिटिकल नजर से देख रहे है. पहले विशेषज्ञ ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के उपाध्यक्ष और किंग्स कॉलेज लंदन में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रोफे़सर हर्ष वी. पंत हैं. उन्होंने NDTV में एक कॉलम लिखा है. क्या लिखते हैं डॉ पंत? वो कह रहे हैं कि

“अभी जो तनाव चल रहा है, उस पर दुनिया तो पूरी तरह से बंट ही गई है. देशों के अंदर भी मतभेद हैं. पश्चिमी देश घरेलू फूट पर क़ाबू पाने की जुगत कर रहे हैं. पश्चिम में विश्वविद्यालय भी युद्ध के मैदान बन गए हैं. नैरेटिव की जंग छिड़ी हुई है. अब मिडिल ईस्ट (यानी अरब देशों में) में भारत के हित हैं, उनके साथ संबंध हैं. इस साझेदारी को देखते हुए हम भी जंग से अछूते नहीं रह सकते. अरब देशों के साथ हमारे जैसे संबंध हैं, इसके लिए मोदी सरकार की विदेश नीति क़ाबिल-ए-तारीफ़ है.”

अब दूसरा पक्ष क्या है? दूसरा पक्ष आता है दूसरे विशेषज्ञ से. वो हैं 'फ़ोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया' के संस्थापक सुधीन्द्र कुलकर्णी - जिन्होंने भारत के पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के तौर पर भी काम किया था. उन्होंने Quint में नरेंद्र मोदी की नीति पर एक कॉलम लिखा है. कहा

“1947 से आज तक भारत ने लगातार इस बात पर ज़ोर दिया है कि इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच स्थायी शांति केवल 'टू-स्टेट सल्यूशन' से ही आ सकती है. दिल्ली की विदेश नीति में हमेशा से ही एक आज़ाद फ़िलिस्तीन का समर्थन निहित रहा है. इस बैकग्राउंड में अगर मोदी सरकार केवल हमास आतंकवाद की निंदा करती रही, और इज़रायली सेना के फ़िलिस्तीनी नरसंहार पर चुप रही, तो भारत को बिला-शक इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी.”

उन्होंने कुछ क़ीमत भी गिनवाई है. जैसे, ग्लोबल साउथ में भारत की पोज़िशन कमज़ोर हो सकती है. अरब देशों में रह रहे भारतीयों के लिए भी असहज करने वाली स्थिति बन सकती है. भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक कॉरिडोर जैसे समझौतों पर काम बिगड़ सकता है. सुधीन्द्र ने मोदी सरकार को एक नसीहत भी दी है -- 'सिद्धांतवादी बनिए. नैतिक बनिए. हमास और नेतन्याहू दोनों की निंदा करिए.'
इसके अलावा कुछ और बातें भारत के रुख को लेकर लिखी जा रही हैं. जैसे स्टेनफ़र्ड यूनिवर्सिटी के विज़िटिंग फ़ेलो सुमित गांगुली और लीडेन यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर निकोलस ब्लारेल ने लिखा है  

“मई 2021 में जेरुसलम की अल-अक्सा मस्जिद में हिंसा भड़कने के बाद भारत ने हिंसा के लिए हमास और इज़राइल, दोनों की ही निंदा की थी. न इज़रायल के साथ संबंधों की परवाह की, न फ़िलिस्तीन के 'कॉज़' से किनारा किया. फिर हालिया संघर्ष के प्रति भारत के रुख में बदलाव क्यों है?”

सुमित और निकोलस कुछ फ़ैक्टर्स गिनवाते हैं. पहला, लोकसभा चुनाव 2024. इज़रायल के साथ भारत के संबंध 'विश्वगुरू इमेज' को सूट करता है. भारत ने लंबे समय से पाकिस्तान की ज़मीन से होने वाले आतंकवादी हमलों की मुख़ाल्फ़त की है. इसीलिए हमास के हमलों के प्रति अडिग रुख रखना - देश में तो अच्छा संदेश देता ही है, साथ ही इस्लामाबाद को भी एक मौन संदेश पहुंचाता है. इसके अलावा, प्रधानमंत्री मोदी ने पहले भी भारत की सर्जिकल स्ट्राइक्स की बात करते हुए इज़रायल के मिशन्स का ज़िक्र किया है. जानकार कहते हैं कि भारत के रुख में अरब देशों की प्रतिक्रिया भी एक फ़ैक्टर है. मिस्र से लेकर सऊदी अरब, किसी भी देश ने हमास की करतूतों को खुला समर्थन नहीं दिया है. ज़्यादा से ज़्यादा इज़रायली कार्रवाई की निंदा करते हुए अपील की है कि जंग और न बढ़े. अरब देशों की ऐसी प्रतिक्रिया नई दिल्ली को इतनी कूटनीतिक छूट देती है, कि हम इज़रायल के साथ खड़े दिख सकें. और, हमास की आलोचना करने से भारत अमेरिका को भी बता रहा है कि हम उनके सहयोग की कितनी क़दर करते हैं. 

बात इतनी है कि देश का स्टैंड साफ होना चाहिए. लेकिन देश का स्टैंड कोई चौराहे की चायबाज़ी नहीं है कि एक चुस्की में और किसी मज़ाक या गुस्से में बदल जाए. उसके स्टैंड में बहुत सारी कूटनीतिक सोच और भविष्य की बहुत सारी प्लानिंग होती है. ताकि देश का और देश के नागरिकों का हित सुरक्षित रहे. और इस सुरक्षा और शांति की उम्मीद के साथ खबरों का सिलसिला यहीं रोकते हैं, और चलते हैं उम्मीद की बात की ओर.

उम्मीद की बात

आपने न्यूटन फिल्म देखी है? पंकज त्रिपाठी और राजकुमार राव वाली. चुनाव ड्यूटी लगी माओवाद से ग्रस्त एक गाँव में. वहाँ वोटिंग केंद्र खोला गया. बस एक छोटे-से गाँव के लिए एक पोलिंग सेंटर. अब ऐसा ही असल में हुआ है.छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के शेराडांड गांव में हैं सिर्फ पांच वोटर, फिर भी ऐलान हुआ है पोलिंग बूथ बनाने का. 7 और 17 नवंबर को राज्य में वोटिंग है. इस पोलिंग सेंटर का नंबर आएगा 17 को. गाँव में बुनियादी ढांचे जैसा कीवर्ड गायब है. फिर भी गाँव का कहना है कि वो वोट जरूर डालेंगे. 

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