'राजा-मंत्री-चोर-सिपाही', सुरंग में फंसे मजदूरों के बचपन में लौटने की कहानी
उत्तराखंड के ही चंपावत के रहने वाले पुष्कर सिंह अरि उस समय को याद करते हैं जब वो अपने 40 मजदूर साथियों के साथ अंदर फंसे हुए थे.
उत्तरकाशी की सिल्क्यारा टनल (Silkyara Tunnel) से सभी 41 मजदूरों के सुरक्षित बाहर आने के बाद से उनके साहस और संघर्ष की भी कहानियां बाहर आ रही हैं. हर तरफ यही चर्चा है कि कैसे उन्होंने 17 दिनों तक बिना हिम्मत हारे इस उम्मीद में इंतजार किया कि उन्हें रेस्क्यू कर लिया जाएगा. इन्हीं मजदूरों में से एक पुष्कर सिंह अरि ने इस बारे में बताया है.
सुरंग में कैसे काटे 17 दिन?उत्तराखंड के ही चंपावत के रहने वाले पुष्कर सिंह अरि उस समय को याद करते हैं जब वो अपने 40 मजदूर साथियों के साथ अंदर फंसे हुए थे. एनडीटीवी से बातचीत में पुष्कर कहते हैं,
"हमें कोई उम्मीद नहीं थी. हमें कोई अंदाजा नहीं था कि बाहर क्या स्थिति है. हम पूरी तरह से शून्य हो चुके थे. वहां ऑक्सीजन का कोई स्त्रोत नहीं था. पीने के पानी के लिए हम पहाड़ से टनल में टपकते पानी पर निर्भर थे. हमारे पास पीने का पानी भी नहीं था."
पुष्कर सिंह अरि के मुताबिक टनल का हादसा सुबह करीब 5 बजे हुआ था, जबकि उनकी कंपनी को उनसे संपर्क साधने में आधी रात तक का समय लग गया. ये पूछने पर कि इस तरह के माहौल में भी उन्होंने किस तरह हिम्मत और जोश बनाये रखा, पुष्कर बताते हैं,
"हम में से अधिकांश लोग युवा थे. कुछ सीनियर्स भी थे. हमने एक दूसरे का हौसला बढ़ाया. हमें समझ आ चुका था कि हम फंस गए हैं और घबराहट या झुंझलाहट से कुछ नहीं होगा. तो हमने एक दूसरे की मदद की. कोई पानी भरता तो कोई कंबल बिछाता."
पुष्कर के मुताबिक फंसे हुए मजदूरों में इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, मशीन ऑपरेटर और फोरमैन शामिल थे. इसलिए कोई भी समस्या आती तो सब लोग अपने स्किल्स का इस्तेमाल कर उस समस्या को दूर करते थे. इसी तरह उन्होंने वहां 17 दिन काटे. पुष्कर बताते हैं,
"शुरुआती कुछ घंटों में हमने अपनी कंपनी से संपर्क साधने की कोशिश की. एक बार संपर्क हो जाने पर हमें खाना और ऑक्सीजन की सप्लाई मिलने लगी. हमने खेलने के लिए कार्ड (ताश के पत्ते) बनाए. हमने वो खेल खेलने शुरू किए जिन्हें हम बचपन में खेला करते थे- जैसे कि चोर-सिपाही-राजा-मंत्री. एक तरह से बचपन के दिन लौट आए थे. हमने क्रिकेट भी खेला. अपने मोजे के अंदर हमने कपड़े भरे और उसे गेंद का रूप दे दिया जैसा बचपन में किया करते थे. सुरंग में पड़ी छड़ियों से हमने बैट बना लिया."
पुष्कर सिंह अरि आगे बताते हैं कि शुरुआती दिनों में वो बस ड्राई फ्रूट्स पर निर्भर रहे. आखिरी के 12 दिनों से उन्हें पका हुआ खाना मिलने लगा. रेस्क्यू टीम भी उतना ही भेज सकती थी जितना एक 4 इंच के पाइप में से गुजर सके. वहां बस एक ही पाइप था जिससे खाना, ऑक्सीजन और बाहर के लोगों से संपर्क हो या रहा था. पुष्कर उस पाइप को लाइफलाइन कहते हैं.
वो ये भी बताते हैं कि जब रेस्क्यू ऑपरेशन फाइनल स्टेज में था तो 2 सबसे सीनियर मजदूर, गब्बर सिंह नेगी और सबा अहमद ने पहले बाकी सबको बाहर निकाला और आखिरी में खुद निकले.
पुष्कर सिंह अरि फिलहाल अस्पताल में भर्ती हैं. वहां उनका चेक-अप हो रहा है. उनके भाई विक्रम उनकी देखभाल कर रहे हैं.
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