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उत्तरकाशी सुरंग हादसा: इन मशीनों और 'चूहा' तकनीक के बिना मजदूरों का बाहर आना और मुश्किल होता

इस पूरे रेस्क्यू ऑपरेशन में ऑगर मशीन, रैट माइनिंग तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है. 2018 में मेघालय की खदान में 15 मजदूर फंस गए थे, तब रैट माइनिंग से उन्हें बचाया गया था.

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uttarkashi tunnel using rat mining for rescue
उत्तरकाशी में फंसे मजदूरों को निकालने का प्रयास जारी है. (फोटो-आजतक)
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मानस राज
28 नवंबर 2023 (Updated: 28 नवंबर 2023, 20:04 IST)
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उत्तरकाशी जिले की सिलक्यारा टनल में 15 दिनों से फंसे 41 मजदूर कभी भी बाहर आ सकते हैं. उनका रेस्क्यू ऑपरेशन अपने आखिरी चरण में है. इस काम के लिए फौज को भी लगाया गया. सेना की कोर ऑफ इंजीनियर्स से मद्रास इंजीनियर ग्रुप (मद्रास सैपर्स) के सैनिक इस बचाव अभियान का काम देख रहे हैं. मलबे को बड़े-बड़े पाइप्स के माध्यम से भेदने के लिए लगाई गई ऑगर मशीन के ब्लेड टूट गए, तो उन्हें काट कर अलग किया गया. पहाड़ के ऊपर से वर्टिकल ड्रिलिंग शुरू हो गई है. और मैनुअल ड्रिलिंग भी जारी है. माने सुरंग को हाथ से भी खोदा जा रहा है. इसके लिए खास तौर पर ‘रैट माइनिंग’ में माहिर लोगों को बुलाया गया है.

बचाव अभियान में इस्तेमाल हो रही मशीनों और तकनीकी चीजों के मायने समझते हैं.

क्या है ‘ऑगर' ड्रिलिंग मशीन?

आपने घरों में पानी के लिए ड्रिलिंग या बोरिंग होते हुए देखा होगा. उसी बोरिंग मशीन का थोड़ा सा बदला हुआ रूप है ऑगर ड्रिलिंग मशीन. ऑगर का मोटामाटी मतलब एक घूमने वाले ब्लेड से है, जो किसी स्क्रू की तरह सुराख करते हुए आगे बढ़ता है. पीछे मलबा निकलता जाता है. आपने कुछ इसी तरह के ऑगर का इस्तेमाल पेड़ लगाने के लिए भी होते हुए देखा होगा. पर एक बेसिक अंतर है. सामान्य ऑगर मशीन को बोरिंग आदि में इस्तेमाल किया जाता है. सामान्यतः हम इन्हें वर्टिकल (Vertical) यानी ऊपर से नीचे की ओर ड्रिलिंग करते देखते हैं. 

उत्तरकाशी में इस्तेमाल की जा रही ड्रिलिंग मशीन हॉरिजॉन्टल (Horizontal) ऑगर है. माने ये ऊपर से नीचे नहीं, क्षैतिज बोर बनाती है. सादी भाषा में - सीधी खुदाई करती है, वैसे ही जैसे आप दरवाज़े या दीवार पर स्क्रू कसते हैं. हॉरिज़ॉन्टल ऑगर मशीन का इस्तेमाल अक्सर भूमिगत केबल या पाइपलाइन डालने के लिए किया जाता है. इससे गहराई तक पूरी सतह को खोदने की ज़रूरत नहीं पड़ती. यही प्रयास सिलक्यारा वाली सुरंग में भी किया जा रहा है. ताकि बार-बार धंसक रहे मलबे को बिना ज़्यादा छेड़े एक मोटा पाइप मज़दूरों तक भेजा जा सके, जिसके सहारे वो सुरंग से बाहर आ जाएं.

मशीन में एक इंजन चलता है, जो हाइड्रॉलिक प्रेशर बनाता है. माने एक खास किस्म के तेल में बहुज्जोर का प्रेशर. अब इस तेल से कोई पिस्टन आगे-पीछे किया जा सकता है, ब्लेड वाला स्क्रू चलाया जा सकता है, और पाइप भी धकेले जा सकते हैं. मशीन में आगे की ओर लगा ऑगर या ब्लेड घूमता है जिससे मिट्टी, चट्टान या किसी भी बाधा को काटकर रास्ता बनता रहता है. इसे चलाने के लिए अधिकतर हाइड्रोलिक सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है. जैसे-जैसे ऑगर आगे बढ़ता है, वो काटी हुई मिट्टी, पत्थर को एक ड्रिल स्ट्रिंग के जरिये बाहर निकालता जाता है. 

मशीन में कार जैसा ही एक स्टीयरिंग सिस्टम भी है जिससे इसे चलाने वाले ऑपरेटर इसकी दिशा और एंगल को कंट्रोल करते हैं. जब मशीन के मुंह पर लगा कटिंग एज चट्टान को काटने का काम करता है तो गोल-गोल दिखने वाली प्लेट्स मलबे को बाहर खींचने का काम करती हैं. ड्रिल करने के लिए जो कटिंग एज लगता है, उसे बनाने के लिए टंगस्टन कार्बाइड का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इससे सख्त सतह को काटना आसान होता है.

उत्तरकाशी में ड्रिलिंग करती ऑगर मशीन (फोटो-आजतक)

हॉरिजॉन्टल मशीनों में कई और तरह के उपकरण भी लगे होते हैं जिससे इसकी एक्यूरेसी बनी रहे. क्योंकि सुरंग में ड्रिल करने के दौरान एक-एक इंच भी महत्वपूर्ण होता है. इसीलिए इन मशीनों को एडवांस गाइडेंस सिस्टम, जीपीएस सिस्टम और इलेक्ट्रॉनिक ट्रैकिंग से लैस किया गया है. एक बार पूरी ड्रिलिंग हो जाए तो ऑगर को बाहर निकाल लिया जाएगा और अंदर फंसे मजदूरों तक एक सुरंग तैयार हो जाएगी जिससे वो बाहर आ पाएंगे.

उत्तरकाशी में चल रहे रेस्क्यू ऑपरेशन में 'अमेरिकन ऑगर 60-1200' नाम की एक बड़ी और पावरफुल हॉरिजॉन्टल ड्रिलिंग मशीन (HDD) का इस्तेमाल किया जा रहा है. इस मशीन को एक अमेरिकन कंपनी ने बनाया है. अमेरिकन ऑगर्स नाम की ये कंपनी इस तरह के कंस्ट्रक्शन में एक माहिर कंपनी मानी जाती है. मशीन के नाम में ‘60-1200’ का मतलब है कि वो मशीन कितने व्यास (diameter) का ड्रिल कर सकती है. अन्य ऑगर मशीनों की तरह 60-1200 ऑगर मशीन भी ट्रेंचलेस तकनीक का उपयोग करती है. बड़ी खुदाइयों में भी ये बिना सतह को डिस्टर्ब किए भूमिगत बोर करने में सक्षम है.

अब सवाल है कि सिल्क्यारा टनल में ऑगर ड्रिलिंग का ही इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है. क्या और कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे अंदर फंसे 41 मजदूरों को रेस्क्यू किया जाए.
शुरुआत में सुरंग के एंट्रेंस पर जमे मलबे को हटाने के लिए बड़ी मशीनों का इस्तेमाल किया गया पर ये तरीका काम नहीं आया. इसके बाद ये तय किया गया कि ऑगर मशीन ज्यादा बेहतर विकल्प है. ये मलबे के बीच में से एक पैसेज बना सकती है जिससे अंदर फंसे मजदूरों तक पहुंचा जा सकता है.

ये तो हुई उपकरणों, मशीनों की बात. अब आते हैं एक ऐसी तकनीक पर जिसका इस रेसक्यू ऑपरेशन में इस्तेमाल किया जा रहा है. इसका नाम है 'रैट माइनिंग'.

रैट माइनिंग क्या है?

जैसा कि नाम से जाहिर है, रैट माइनिंग. यानी चूहों की तरह बिल खोदना. ऐसी खुदाई (mining) को अंजाम देने वाले वर्कर्स को रैट माइनर्स कहा जाता है. ये लोग बिल्कुल चूहों की भांति हाथ या छोटे उपकरणों, मसलन फावड़ों, से सुरंग खोदते हैं. वैसे तो भारत की अधिकतर खदानें सरकार के स्वामित्व की हैं. यानी इन पर सरकार का कंट्रोल है. इनसे कुछ भी निकालना हो, मसलन खनिज, कोयला आदि, तो सरकार की अनुमति चाहिए होती है.

रैट माइनिंग करते रेस्कयू वर्कर्स(फोटो-आजतक)
कहाँ होती है रैट माइनिंग?

वैसे तो ये कोई पुख्ता तकनीक नहीं है, फिर भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. पूर्वोत्तर के राज्य मेघालय में सबसे अधिक रैट माइनिंग होती है. वजह है यहां जमीन के अंदर दबा खनिज का भंडार. यहां के लोग व्यक्तिगत स्तर पर रैट माइनिंग करते हैं. यानी खुद से रैट होल बनाकर संकरी सुरंगों के अंदर घुसते हैं और खनिज निकाल के लाते हैं. इन रैट होल्स में न खड़े होने की जगह होती है न बैठने की, इसलिए इसमें रेंग कर आना-जाना पड़ता है. अगर बारिश आई तो इन सुरंगों में पानी भरने की वजह से मजदूर अंदर ही फंस जाते हैं.

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने 2014 में रैट-होल खनन पर प्रतिबंध लगा दिया, और 2015 में प्रतिबंध बरकरार रखा. यह बैन अवैज्ञानिक और श्रमिकों के लिए असुरक्षित होने के आधार पर लगाया गया था. एनजीटी का आदेश न केवल रैट-होल खनन, बल्कि सभी "अवैज्ञानिक और अवैध खनन" पर प्रतिबंध लगाता है. मेघालय में जयंतिया पहाड़ियों के इलाके में बहुत सी गैरकानूनी कोयला खदाने हैं. पहाड़ी इलाका होने के चलते यहां मशीनों से काम लेना काफी मुश्किल है, क्योंकि उन्हें ऊपर चढ़ाना ही संभव नहीं होता. इसीलिए सीधे मजदूरों से काम लेना ज्यादा आसान होता है. चूंकि, वे रैट्स यानी चूहों की तरह इन खदानों में घुसते हैं, इसलिए इसे ‘रैट माइनिंग’ कहा जाता है. 2018 में मेघालय की खदान में 15 मजदूर फंस गए थे, तब इसी रैट माइनिंग से उन्हें बचाया गया था.

(यह भी पढ़ें:नवीन पटनायक की विरासत किसे मिलेगी, इशारा हो गया है )

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