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इज़रायल और गाजा में हाहाकार है, लेकिन मणिपुर के हालात कैसे हैं?

क्या मणिपुर में खबरें दबाने की कोशिश की जा रही है?

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Central forces deployed in manipur
मणिपुर में केंद्रीय बलों की तैनाती
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सिद्धांत मोहन
13 अक्तूबर 2023 (Published: 22:35 IST)
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जब इजरायल और हमास के बीच युद्ध हुआ, तो दुनिया भर से प्रतिक्रियाएं आईं पीएम मोदी ने भी एक्स पर अपनी भावनाएं जताईं. कहा कि वो इस हमले में इजरायल के साथ हैं. लेकिन जैसे ही पीएम मोदी ने समर्थन की बात की तो सोशल मीडिया पर मणिपुर विषयक बातें होने लगीं. एक बड़े खेमे ने कहा कि भारतवासी इजरायल हमास युद्ध में अपनी सहूलियत के हिसाब से साइड ले रहे हैं. लेकिन हमारे देश में है मणिपुर, उसके बारे में क्यों सन्नाटा है. देश दुनिया से जान जोखिम में डालकर युद्ध कवर करने तेलअवीव गए पत्रकारों से पूछा जाने लगा कि क्या वो मणिपुर गए हैं?

ऐसे में ये बात होनी जरूरी है कि मणिपुर की स्थिति क्या है? वहाँ की पहाड़ियों और घाटी में क्या हो रहा है? सरकार कैसे आदेश पास कर रही है? और सबसे जरूरी सवाल कि क्या मणिपुर में खबरें दबाने की कोशिश की जा रही है?

और साथ ही बात करेंगे सुप्रीम कोर्ट की, जहां पर गर्भपात यानी अबॉर्शन को लेकर एक केस की सुनवाई हो रही है. क्या है ये केस? सुप्रीम कोर्ट के जजों में इस घटना को लेकर किस तरह के मतभेद हैं? क्योंकि जज महिला के अधिकारों और बच्चे के अधिकारों को लेकर फंसे हुए हैं - इन सवालों को भी अड्रेस करेंगे.

मणिपुर. जब मई 2023 शुरू हुआ तो देश के इस अभिन्न राज्य में हिंसा शुरू हुई. अक्टूबर का मध्य चल रहा है और हिंसा में कोई कमी नहीं है. लेकिन मणिपुर प्रशासन की पूरी कोशिश है कि बदस्तूर जारी इस हिंसा की तस्वीरें और वीडियो मीडिया के सामने न आएं. लोग शेयर न करें, लोग सोशल मीडिया पर अपलोड न कर दें.

दरअसल 11 अक्टूबर को मणिपुर राज्यपाल की ओर से एक आदेश पास किया गया. और इसे जारी किया था मणिपुर सरकार के गृह विभाग ने. इस आदेश में साफ कहा गया है कि हिंसा से जुड़ी तस्वीरें या वीडियो सोशल मीडिया पर या आपस में शेयर करना प्रतिबंधित है. अगर किसी ने भी ऐसा किया, तो उनके खिलाफ पुलिस केस किया जाएगा, कार्रवाई की जाएगी. आदेश में ये भी कहा गया है कि अगर किसी व्यक्ति के पास हिंसा से जुड़े ऐसे वीडियो या फ़ोटो मौजूद हैं, तो वो सबसे करीबी पुलिस अधीक्षक के पास जाएं, वीडियो के बारे में बताएं, ताकि कार्रवाई की जा सके.

अब यहां पर ये समझिए कि ये पूरी एक्सरसाइज़ क्यों की जा रही है? दरअसल बीते दिनों मणिपुर से कई तस्वीरें और वीडियो हमारे बीच आए. एक वीडियो पर तो प्रधानमंत्री मोदी को भी अपनी चुप्पी तोड़नी पड़ी. ये वीडियो था इम्फाल में दो कुकी महिलाओं को निर्वस्त्र करके परेड करवाने का.

जब ये वीडियो आया तो मीडिया एक बड़ा जत्था, जिसने लंबे समय से मणिपुर पर चुप्पी ओढ़ी हुई थी, वो मणिपुर पहुँच गया. और इन तमाम घटनाओं की कवरेज शुरू हो गई.

इसके बाद कुछ तस्वीरें सितंबर के महीने में वायरल होने लगीं. तस्वीरें थीं एक मैतेई कपल की. दोनों अपने घर से निकले थे, लेकिन लौटे नहीं. 25 सितंबर के दिन जैसे ही मणिपुर में इंटरनेट की सुविधा दो दिनों के लिए शुरू की गई, इन दो युवाओं की डेडबॉडी की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल होने लगी. एक तबके ने कहा कि इन युवाओं को कुकी उग्रवादियों ने बदले की कार्रवाई में मार दिया. एक तबके ने कहा कि इन्हें मैतेई उग्रवादियों ने हॉनर किलिंग में मार दिया. सच सामने आने तक मामले की सीबीआई जांच जारी है. लेकिन जैसे ही इनकी डेडबॉडी की तस्वीर सामने आई, इम्फाल में प्रदर्शन होने लगे. स्कूली यूनिफ़ॉर्म पहने सैकड़ों युवा सड़कों पर आकर न्याय की मांग करने लगे. पुलिस और अर्धसैनिकों बलों ने बल का प्रयोग किया. इंटरनेट फिर से बंद किया गया, तब जाकर 3-4 दिनों के भीतर इस हिंसा पर काबू पाया जा सका.

लेकिन कुछ ही दिनों के भीतर एक और वीडियो में मणिपुर हिंसा और सरकार की नाकामी की पोल खोल दी. अक्टूबर के पहले हफ्ते में एक वीडियो वायरल होना शुरू हुआ. इस वीडियो में एक घायल पड़े व्यक्ति को जिंदा जलाया जा रहा था. इस वीडियो में वो व्यक्ति यथासंभव कराहकर चीखकर बचने की कोशिश कर रहा था. लेकिन उसे आग लगाते लगे लोग उसका वीडियो बनाने और ये सुनिश्चित करने में व्यस्त थे कि वो जलता रहे. जब ये वीडियो आया तो शेयर करने वालों ने कहा कि जलने वाला शख्स कुकी समुदाय से ताल्लुक रखता है. दावा किया गया कि ये वीडियो 3-4 मई की तारीख का ही है, जब मणिपुर में हिंसा भड़की थी.

अब सरकार ने वीडियो शेयर करना बंद कर दिया है. शेयर तो फिर होगी. अभी भी गोलीबारी हो रही है, गोलीबारी हो रही है तो कहीं न कहीं वीडियो बनाए जा रहे हैं, शेयर करेंगे तो केस हो जाएगा. महिलाएं सुरक्षा बलों का रास्ता रोक रही हैं , उन्हें काम नहीं करने दे रही हैं, इसके भी वीडियो बन जा रहे हैं, इन्हें भी शेयर करेंगे तो केस होगा. हत्या करने, शवों को क्षत-विक्षत करने के वीडियो भी सामने आ रहे हैं, इन्हें भी शेयर नहीं कर सकते शेयर करेंगे तो क्या होगा, आपको पता ही है. सरकार ये पता नहीं लगने देना चाहती है कि नागरिक किस बर्बरता और हिंसा के शिकार हो रहे हैं. सवाल जायज है कि ये वीडियो सामने आएंगे तो किसका नुकसान होगा? क्या सरकार प्रोटेस्ट और प्रोटेस्ट के बाद होने वाली हिंसा से बच रही है? पाँच महीने से हिंसा चल रही है, राज्य की बीरेन सिंह सरकार और केंद्र की मोदी सरकार से ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या सूचना का फ़्लो रोक देने से, इंटरनेट बंद कर देने से हिंसा रुक सकती है तो पाँच महीने के बाद भी शांति जैसा शब्द मणिपुर की शब्दावली से गायब क्यों है?

मणिपुर में सूचनाओं, फ़ोटो वीडियो को लेकर और भी कई सारी समस्याएं चल रही हैं. वहाँ के मानवाधिकार संगठनों के बीच इनफार्मेशन वॉरफेयर चल रहा है. एक दूसरे के नाम से फर्जी प्रेस रिलीज निकाली जा रही हैं. कई केसों में फर्जी वीडियो और फ़ोटो भी शेयर किये जा रहे हैं. और ये भी सरकारों के लिए एक चैलेंज है. 

जाहिर है कि सूचना का पुख्ता होना बहुत जरूरी है, लेकिन साथ ही जरूरी है उस पुख्ता सूचना का बाहर आना. तभी सरकारों से सही परिमाण में सवाल पूछे जा सकेंगे. तभी शायद शांति स्थापित की जा सकेगी.

मणिपुर के बाद चलते हैं अब सुप्रीम कोर्ट.

एक महिला हैं. उम्र 27 साल. हम उनका नाम नहीं बता रहे हैं. वो अपने पति और दो बच्चों के साथ रहती हैं. महिला अपने तीसरे बच्चे के साथ गर्भवती हैं. उन्हें प्रेग्नेंट हुए 26 हफ्ते या लगभग साढ़े 6 महीने बीत चुके हैं. उन्होंने अदालत में अर्जी लगाई है कि उन्हें ये तीसरा वाला गर्भ गिराने की अनुमति दी जाए. अनुमति क्यों? क्योंकि कानूनन गर्भ गिराने की सीमा 20 अक्टूबर तक की ही है, तो डॉक्टर उनका अबॉर्शन करने से मना कर रहे हैं. लिहाजा महिला कोर्ट की शरण में है.

महिला का तर्क है कि उसकी पहले की दो डिलीवरी सी-सेक्शन डिलीवरी थीं. सी सेक्शन यानी यानी जो गर्भाशय होता है, उसे चीरा जाता है, और बच्चे को गर्भाशय से सीधे बाहर निकाल लिया जाता है. फिर टांके लगा दिए जाते हैं. आम डिलीवरी में महिला को जोर लगाना होता है, तो बच्चा वजाइना से बाहर आता है. अमूमन जब महिलाओं को पहला बच्चा सी सेक्शन से होता है तो बाकी बच्चे भी सी सेक्शन से ही पैदा होते हैं. ये आम केस की बात है, अपवाद यहां भी होते है. अब जिस महिला ने याचिका दायर की हैं, उनका कहना है कि वो तीसरे बच्चे को जन्म देने के लिए तैयार नहीं हैं वो और उनके पति दो बच्चों के साथ संतुष्ट हैं उन्होंने ये तर्क दिया है कि वो शारीरिक, मानसिक या आर्थिक रूप से गर्भावस्था को जारी रखने के लिए तैयार नहीं हैं.

अब इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है. 11 अक्टूबर को इस केस को दो जजों की बेंच ने सुना. जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने. आदेश पास किया तो दोनों जजों का ऑर्डर स्प्लिट था, यानी फैसला बंटा हुआ था. एक जज अबॉर्शन के पक्ष में, तो एक जज अबॉर्शन के पक्ष में नहीं. कारण अपने-अपने और अपनी जगह वाजिब. फिर बेंच बदली.  CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारडीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की ट्रिपल बेंच ने इस मामले को सुनना शुरू किया. 12 अक्टूबर को भी बहस हुई और अब ये बहस 13 अक्टूबर को भी जारी है.

पहले केस की थोड़ी टेक्नीकल जानकारी जानिए

अपना केस दायर करते हुए महिला ने कहा था कि जब वो प्रेग्नेंट हुईं तो उन्हें पता नहीं चला. एकबानगी सुनने में ये बात अटपटी लग सकती है, लेकिन इसको थोड़ा नजदीक से समझना होगा. दरअसल महिला ने बताया है कि दूसरा बच्चा पैदा होने के बाद उन्होंने एक LAM (लैक्टेशनल एमेनोरिया मेथड) अपनाया था. LAM क्या है? महिलाएं प्रसवोत्तर अवधि में यानी बच्चा पैदा करने के बाद  वाले पीरियड में प्रेग्नेंट न हों, उसके लिए ये तरीका अपनाया जाता है. प्राकृतिक तरीका होता है. हर महीने आने वाले पीरियड लेट होते हैं. और उनके प्रेग्नेंट होने की संभावना कम होती है. ध्यान रहे कि ये तरीका प्रेग्नेंसी की संभावना को कम करता है, खत्म नहीं करता है.

अब मौजूदा केस में महिला जब प्रेग्नेंट हुईं तो उन्हें पीरियड लेट होने पर भी अंदाज नहीं हुआ. बाद में उन्होंने चेक किया तो उन्हें पता चला.

जब पता चला, तो उन्होंने गर्भपात के लिए कई डॉक्टर्स से संपर्क किया लेकिन डॉक्टरों ने हवाला दिया मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी ऐक्ट (MTP Act 1971) का वही 20 हफ्ते वाला नियम.

लेकिन इस MTP एक्ट में और भी प्रावधान हैं, और खास परिस्थितियों में इसे 20 हफ्ते से ज्यादा बढ़ाया जा सकता है. जैसे -

- 20 हफ़्ते तक शादीशुदा महिला को गर्भपात का अधिकार है

- यौन उत्पीड़न या अनाचार से पीड़ित महिलाओं, नाबालिगों, शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग महिलाओं या वैवाहिक स्थिति में बदलाव जैसे कुछ विशेष केस होते हैं, जिनमें दो डॉक्टर्स की राय पर 24 हफ़्तों तक का समय भी दिया गया है

-  24 हफ़्ते बीत जाने पर सिर्फ मेडिकल बोर्ड की सलाह पर ही गर्भपात करवाया जा सकता है

अब फिर से चलते हैं केस पर.

6 अक्टूबर को महिला AIIMS में एक मेडिकल बोर्ड के सामने पेश हुई तब भ्रूण 25 हफ़्ते और 5 दिन का था बोर्ड ने रिपोर्ट सौंपी, कि गर्भपात पर फिर से विचार किया जाना चाहिए क्योंकि बच्चा पैदा हो सकता है और उसके सर्वाइव करने की पूरी संभावना है

9 अक्टूबर को ये केस सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस कोहली और जस्टिस नागरत्ना की बेंच के सामने आया बेंच ने महिला को गर्भपात की अनुमति दे दी लेकिन अगले ही दिन केंद्र सरकार ने इस कोर्ट में एक अर्जी लगाई कि कोर्ट आदेश वापस ले ले केंद्र सरकार की तरफ़ से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने तर्क दिया कि अदालत को अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार की रक्षा करने पर विचार करना चाहिए फिर 11 अक्टूबर को जस्टिस कोहली और जस्टिस नागरत्ना की बेंच ने एक स्प्लिट-वर्डिक्ट दिया

अपने फ़ैसले में जस्टिस कोहली का कहना था कि उनका न्यायिक विवेक इस अर्ज़ी को स्वीकारने की इजाज़त नहीं देता क्योंकि कोई भी अदालत ये नहीं कहेगी कि जिस भ्रूण में जान हो, उसकी धड़कनें छीन लो

वहीं, जस्टिस नागरत्ना इससे सहमत नहीं थीं उन्होंने कहा कि भ्रूण और मां की पहचान अलग नहीं होती मां के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य पर ख़तरा होने के बावजूद उसका प्रेग्नेंसी रखना जोख़िम से भरा होगा रिप्रोडक्टिव हेल्थ के अधिकार में गर्भपात का अधिकार भी शामिल है और इसीलिए महिला को गर्भपात की हक़ न देना, संविधान के अनुच्छेद-21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) और 15-(3) (महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने की राज्य की शक्तियां) के विपरीत होगा

अब जजों के इस तर्क को एक बड़े लेंस से देखने की जरूरत है. बड़ा लेंस है पूरी दुनिया में गर्भपात को लेकर एक बहस.

Pro-Life बनाम Pro-Choice. मोटामोटी अनुवाद करें तो जीवन का समर्थक होना बनाम व्यक्ति के चुनाव का समर्थक होना.

प्रो-लाइफ़ के पक्षधरों का तर्क है कि जीवन गर्भाधान से शुरू होता है और इसलिए अजन्मे भ्रूण को भी जीवन का मौलिक अधिकार है वो गर्भपात को वैध बनाने का विरोध करते हैं और मानते हैं कि अजन्मे बच्चे के अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य को इसे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए गर्भपात के विकल्पों - जैसे गोद लेना - को बढ़ावा दिया जाना चाहिए मोटामोटी जो तर्क है जस्टिस कोहली का.

इसके उलट प्रो-चॉइस समर्थकों का कहना है कि एक महिला को अपने शरीर से जुड़े निर्णय लेने का पूरा अधिकार है वो प्रेग्नेंसी रखना चाहती है या नहीं -- ये उसका चयन है वो गर्भपात के अधिकार को महिला की शारीरिक स्वायत्तता और प्रजनन अधिकारों से जोड़ कर देखते हैं उनका तर्क है कि हर महिला और हर गर्भावस्था की स्थिति अलग होती है और इसीलिए केवल एक महिला ही अपने लिए सही निर्णय ले सकती है वो राज्य से सुरक्षित और क़ानूनी गर्भपात सेवाओं मुहैया करवाने की मांग करते हैं यानी जस्टिस नागरत्ना का तर्क.

ये बहस बहुत जटिल है इसमें संस्कृति, धर्म, नैतिकता और व्यक्तिगत अनुभवों की वजह से अलग-अलग नज़रिए हैं इसी वजह से राजनीति और समाज में बहस चलती रहती है अलग-अलग देशों में क़ानून भी अलग-अलग हैं जैसे, बीते साल जून महीने में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के गर्भपात के संवैधानिक हक़ को ख़त्म कर दिया 1973 के चर्चित 'Roe vs Wade' के फ़ैसले को पलट दिया, जिसमें महिला के गर्भपात के अधिकार को सुनिश्चित किया गया था अब इस मुद्दे को एक्सपर्ट के नजरिए से लेकिन तमाम बहसों के बावजूद महिलाओं को कुछ अधिकार दिए गए हैं. MTP एक्ट है ही, जिसके जरिए अलग-अलग स्थितियों में महिलाएं गर्भपात करा सकती हैं. इसे एक प्रोग्रेसिव कानून के नजरिए से देखा जाता है. फिर भी ये कानून क्या कुछ सुधार की गुंजाइश रखता है? 

बहरहाल, दो जजों की बेंच के बाद ये केस गया, तीन जजों की बेच के पास. 12 अक्टूबर को CJI ने कहा कि किसी बच्चे की हत्या नहीं की जा सकती उन्होंने कहा,

"अजन्मे बच्चे के अधिकारों पर विचार करना होगा बिला शक महिला की स्वायत्तता अहम है अनुच्छेद 21 के तहत उसका अधिकार है, लेकिन साथ ही, हमें इस तथ्य के लिए भी सचेत रहना चाहिए कि जो कुछ भी किया जाएगा, वो अजन्मे बच्चे के अधिकारों को प्रभावित करेगा"

इस टिप्पणी के साथ तीन जजों की बेंच ने महिला से कुछ और हफ्त़ों तक गर्भावस्था जारी रखने का भी आग्रह किया ताकि बच्चा शारीरिक और मानसिक विकृति के साथ पैदा न हो साथ ही 13 अक्टूबर यानी आज हुई बहस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस केस में अगली बहस सोमवार यानी 16 अक्टूबर को होगी. उसके पहले डॉक्टर महिला और फ़ीटस - यानी बच्चे की हेल्थ पर एक रिपोर्ट तैयार करें. 

बहस लंबी है और जटिल भी है. इसमें एक साइड नहीं ली सकती है. आप बच्चे के अधिकारों को तरजीह देंगे तो महिला और उसके शरीर पर उसके चुनाव की बहस जटिल हो जाएगी. महिला के चुनाव को तरजीह देंगे, तो अजन्मे बच्चे की जान सांसत में होगी. बेहद मुस्तैदी और संवेदनशीलता के साथ इस केस का फैसला हो, यही आशा है.

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