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'इतनी बड़ी विफलता..' नेतन्याहू के पीछे पड़े इज़रायल के अख़बार, क्या-क्या लिख डाला?

इज़रायल-फ़िलिस्तीन जंग को बाकी दुनिया का मीडिया तंत्र कैसे देख रहा है? इसके लिए चलना होगा, मीडिया संस्थानों के संपादकीय पन्नों की तरफ़.

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Editorials on Israel-Palistine war
इज़रायल-फ़िलिस्तीन जंग पर मीडिया संस्थानों के संपादकीय पन्ने (फोटो- AP)
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निहारिका यादव
12 अक्तूबर 2023 (Updated: 13 अक्तूबर 2023, 16:27 IST)
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कनाडा की लेखिका मार्गरेट एटवुड एक कमाल की बात कहती हैं - "War is what happens when language fails.” यानी युद्ध तब शुरू होते हैं, जब हमारी कहने, सुनने और समझने की सीमा खत्म हो जाती है.

ये युद्ध की विभीषिका है. जिस भाषा और सूचना तंत्र का इस्तेमाल युद्ध के ताप को कम करने के लिए होना था, उससे उन्माद फैलाया जा रहा है. ये हमारे आसपास रोज़ाना हो रहा है. इससे आप लगातार रूबरू हो रहे होंगे. लेकिन बाकी दुनिया का मीडिया तंत्र इस युद्ध को कैसे देख रहा है? इसके लिए चलना होगा, मीडिया संस्थानों के संपादकीय पन्नों की तरफ़. बताते हैं कि वहां क्या छप रहा है?

शुरुआत इज़रायली अख़बार हारेत्ज़ से. हारेत्ज़ लगातार सरकार पर हमलावर है. मोसाद की नाकामी को लेकर भी अख़बार ने कड़ी आलोचना की है और सख़्त सवाल पूछे हैं.

9 अक्टूबर को एलोन पिंकास ने अख़बार में लिखा, 

 'इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को इसी वक़्त पद से हटा देना चाहिए. इसके लिए युद्ध, करप्शन ट्रायल या चुनाव का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है. इस आशंका को लेकर पर्याप्त सबूत हैं कि हमास के ख़िलाफ़ युद्ध में उनके फ़ैसले व्यक्तिगत, कानूनी और क्षुद्र राजनीतिक विचारों से प्रेरित होंगे. लेबनान से लेकर चीन तक के मामलों में वो बुरे प्रधानमंत्री साबित हुए हैं. किसी को भी उनसे इस्तीफे की उम्मीद नहीं है. सिर्फ इसलिए नहीं कि, उनमें इज़रायल के इतिहास के सबसे बुरे दिन के बाद ऐसा करने की शालीनता और ईमानदारी का अभाव है. इसकी वजह उन पर लगे आपराधिक आरोप भी हैं. उन्होंने सारी वैधता खो दी है और उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता.’

एक और इज़रायली अख़बार ‘टाइम्स ऑफ़ इज़रायल’ में सहर वरदी का ब्लॉग ध्यान खींचता है. सहर, फ़िलिस्तीन में अवैध कब्ज़े के ख़िलाफ़ काम करती रही हैं. उनके ब्लॉग का टाइटल काफ़ी दिलचस्प है: Dual Loyalty (यानी, दोतरफ़ा वफ़ादारी).

सहर ने जंग के बीच के इज़रायल की दिनचर्या बयान की है. पूरा पढ़ने लायक है. कुछ हिस्सा इस प्रकार है. सहर लिखती हैं,  

हमारे जैसे वामपंथी विचारधारा के लोगों पर अक्सर दोहरी वफ़ादारी का आरोप लगता है. इस तरह के दिनों में, ये शब्द काफ़ी चुभता है.

11 अक्टूबर की सुबह जेरूसलम के बाज़ार में एक संगीतकार शोकगीत गा रहा है. बाज़ार पूरी तरह खाली है. एक महिला अपनी दोस्त से बात कर रही है कि उसे वो सब्ज़ीवाला नहीं दिख रहा, जिससे वो रोज़ सामान खरीदती थी. उसे आज दुकान खोलने की इजाज़त नहीं मिली है. अरब लोगों की सारी दुकानें बंद हैं. एक मोहल्ले में कुछ परिवारों के लोग दो कारों से उतरते हैं. वे लोग पहले से रो रहे हैं. बाकियों की आंखों में असहनीय दुख दिखता है. या तो उनका कोई अपना मारा गया या किडनैप हो चुका है. फिर आपकी नज़र के सामने एक सफाई कर्मचारी का वीडियो आता है. जिसे सिर्फ़ इसलिए पीटा गया, क्योंकि वो अरब है और आपकी घूरती नज़रों से नहीं घबराया.

'दोहरी वफ़ादारी’ दोनों को देखती है. वो भी आंसुओं के साथ. शायद वफ़ादारी सही शब्द नहीं है. ये दोहरा दुख है, दोहरा दर्द है, प्यार है. ये सबकी मानवता को बचाने की अपील है. ऐसा करना मुश्किल है. यहां पर मानवता दिखाना मुश्किल है. ये थका देने वाला है. कभी-कभी ऐसा लगता है कि सब कुछ समय के हवाले कर देना चाहिए. कोई एक पक्ष चुनना बेहद आसान है. ये मैटर नहीं करता कि आप कौन सा पक्ष चुन रहे हैं. बस एक साइड पकड़िए और उसी तरफ़ खड़े रहिए. इससे कम से कम आपका दुख तो कम होता है.

इज़रायली अख़बार इज़रायल हयोम में तामीर हायमन लिखते हैं,

रणनीतिक स्तर पर, इज़रायल के तीन मकसद हैं, गाज़ा पट्टी में हमास के शासन को समाप्त करना, हमास की सैन्य क्षमताओं का विनाश, और बंधकों की रिहाई के लिए स्थितियां बनाना.

इसके लिए दो विकल्प है: पहला विकल्प मिलिटरी ऑपरेशन का है, जिसका अंत हमास के साथ युद्धविराम के साथ समाप्त होता है. इज़रायल इसी विकल्प को अब तक अपनाता रहा है. लेकिन इससे हमास का शासन समाप्त नहीं किया जा सकता. ऐसे में दूसरा विकल्प आता है - गाज़ा पट्टी पर पूर्ण कब्ज़ा और विसैन्यीकरण - चाहे इसमें कितना भी समय लगे. ऐसा करना ही होगा, जब तक कि हमास का मिलिटरी विंग बर्बाद ना हो जाए. हालांकि, दूसरे विकल्प पर अमल करने में काफी समय लगेगा और भारी लागत भी आएगी.

फ़िलिस्तीन क्रॉनिकल अमेरिका से चलता है. ये फ़िलिस्तीन का पक्ष रखने वाले सबसे मुखर मीडिया संस्थानों में से है. 09 अक्टूबर को उनकी वेबसाइट पर एक आर्टिकल छपा. शीर्षक था - Netanyahu’s Impossible Options in Gaza: To Invade or Not to Invade. यानी, नेतन्याहू के सामने बहुत मुश्किल विकल्प हैं: हमला करें कि ना करें.

रिपोर्ट में लिखा है:

‘नेतन्याहू ये दिखाने के लिए बेताब हैं कि इज़रायल एक शक्तिशाली देश और एक क्षेत्रीय शक्ति बना हुआ है.'

लेकिन फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध नेतन्याहू से जो चाहता है, वो संकटग्रस्त प्रधानमंत्री के लिए भुगतान करना नामुमकिन. फ़िलिस्तीनी नेताओं की मांगे सटीक और स्पस्ट हैं. पहली मांग है, सभी फ़िलिस्तीनी कैदियों की रिहाई. दूसरी बात, जेरूसलम में फ़िलिस्तीन के पवित्र स्थलों की पवित्रता का सम्मान करना. और, तीसरी बात, गाज़ा की घेराबंदी खत्म करना.

इन मांगों को सही माना जाना चाहिए, लेकिन नेतन्याहू और उनकी धुर दक्षिणपंथी सरकार के लिए इन्हें पूरा करना लगभग असंभव है.  यदि वे मान जाते हैं, तो उनकी सरकार फौरन गिर जाएगी. 

अगर इज़रायल गाज़ा पर फिर से कब्जा कर लेता है, तो उसे रोजाना और संभवत: आने वाले कई बरसों तक फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध से लड़ना होगा. ये स्पष्ट नहीं है कि नेतन्याहू कौन सी दिशा चुनेंगे. आने वाले दिनों और हफ्तों में चाहे कुछ भी हो, इज़रायल कई मायनों में युद्ध हार चुका है.

09 अक्टूबर को लंदन से चलने वाले मीडिया संस्थान मिडिल ईस्ट आय में डेविड हर्स्ट ने लिखा, 

हमास के हमले के असली ज़िम्मेदार वे लोग हैं, जिन्होंने फ़िलिस्तीनियों को इंसान मानना छोड़ दिया था.

डेविड लिखते हैं कि 1948 में इज़रायल बनने के बाद पहली बार इस तरह के दृश्य देखने को मिले हैं. ये 1973 के अरब-इज़रायल युद्ध से भी बदतर है. डेविड ने इंटरनेशनल कम्युनिटी की चुप्पी पर भी सवाल उठाया. लिखा कि उनका पूरा ध्यान लाल सागर और हाइफ़ा के बीच के व्यापार मार्ग पर है. यदि कोई इस रक्तपात और नागरिकों के नरसंहार ज़िम्मेदार है वो है ये सभी विदेशी नेता जो कहते हैं कि इज़रायल उनके मूल्यों को साझा करता है.

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने अपने संपादकीय में अमेरिकी नेताओं पर निशाना साधा है. लिखा है,

इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष में घी डालने वाली अमेरिकी राजनेताओं की टिप्पणियां संवेदनहीन हैं.

ये कहना ज़रूरी है कि पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका ने फ़िलिस्तीन मुद्दे हाशिए पर रखा. ये बेहद क्रूर है. पश्चिमी अभिजात माने एलीट वर्ग अक्सर वास्तविक मानवीय आपदाओं को नजरअंदाज कर देते हैं. ये पाखंड है. हम अभी भी देख रहे हैं कि अमेरिका और कई पश्चिमी देशों का रवैया वास्तव में, स्थिति को कंट्रोल करने की बजाय आग को भड़काने का काम कर रहा है.

कनाडा से प्रकाशित होने वाले नेशनल पोस्ट ने वहां प्रो-फ़िलिस्तीन रैलियों में हुई नारेबाज़ी की तरफ़ ध्यान खींचा. माइकल हिगिन्स ने अपने लेख में लिखा,

ट्रूडो को कनाडा को शर्मसार करने वाली इन अश्लील रैलियों की निंदा करनी चाहिए.

दरअसल, फ़िलिस्तीनी समर्थकों ने हमास के हमले का जश्न मनाने के लिए कनाडा की सड़कों पर प्रदर्शन किए. आतंकी हमले के तुरंत बाद कनाडा के कई शहरों में लोगों को फ़िलिस्तीन के झंडे लहराते, कार के हॉर्न बजाते और धार्मिक नारे लगाते देखा गया.

इसपर अखबार ने लिखा, 

ये बोलने की आज़ादी हो सकती है, लेकिन ये अभी भी नफ़रत का एक भौंडा प्रदर्शन है. हमारी सड़कों पर अश्लीलता, हमारी अंतरात्मा पर शर्म की बात है. ट्रूडो ने हमास के बर्बर, क्रूर आतंकवादी हमलों की सही निंदा की है, लेकिन कनाडा में तेजी से बढ़ती फ़िलिस्तीन समर्थन रैलियों पर अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है.

अख़बार आगे लिखता है कि इनकी निंदा ज़रूरी है. क्या ट्रूडो अब इन रैलियों की निंदा करेंगे या वो चुप्पी साधे रहेंगे?

ब्रिटिश अख़बार गार्डियन ने भी इज़रायल-हमास जंग को प्रमुखता से कवर किया. 08 अक्टूबर के संपादकीय में उन्होंने लिखा - मिडिल-ईस्ट में एक नया और घातक अध्याय शुरू हुआ. 

टिप्पणी की,

इस संघर्ष की सबसे बड़ी विफलता खुफिया और सुरक्षा की नहीं, बल्कि राजनीति की है. कुछ ही महीने पहले यूएन के मिडिल-ईस्ट मामलों के एम्बैस्डर ने सिक्योरिटी काउंसिल को बताया था कि ये विवाद बढ़ रहा है. 2005 में दूसरा इंतिफ़ादा ख़त्म होने के बाद 2022 का बरस इज़रायल, वेस्ट बैंक और जेरूसलम में सबसे ख़ूनी साल रहा. पिछले दो दशकों की तुलना में इस साल वेस्ट बैंक में इज़रायली सेना की रेड्स बढ़ीं.

फ़िलिस्तीनियों ने दशकों का कब्ज़ा झेला है. अपने देश का सपना धीरे-धीरे खत्म हो रहा है और सेटलर्स की हिंसा बढ़ रही है. 15 बरसों की नाकेबंदी ने गाज़ा की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया है और आधी आबादी को ग़रीबी में धकेल दिया है. चुनिंदा आर्थिक विकास इस राजनैतिक संकट का स्थानी समाधान नहीं है, जिसे एक ऐसे फ़िलिस्तीनी नेतृत्व ने बिगाड़ दिया है, जिसके पास ना तो शक्ति है और ना ही वैधता. और तो और, नेतन्याहू ने कट्टर राष्ट्रवादियों और नस्लभेदी नेताओं के हाथ में सत्ता की चाबी सौंप दी है

08 अक्टूबर को ही अमेरिकी अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी शिमरित माएर की टिप्पणी पढ़ने लायक है. माएर इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री नफ़्ताली बेनेट की सलाहकार रह चुकीं हैं. उन्होंने लिखा, 

समस्या हमास तक सीमित नहीं है.

आगे टिप्पणी की, 

07 अक्टूबर 2023 को इज़रायल के इतिहास में सबसे विनाशकारी दिनों में गिना जाएगा. इन घटनाओं में बार-बार हमास का ज़िक्र आ रहा है. लेकिन इसके अलावा दो और चीज़ों पर ध्यान देने की ज़रूरत है.पहली, दुश्मन को खुश करने की नीति. इस उम्मीद में कि हमास अंत में अपने जिहादी मूल से बाहर निकल जाएगा. दूसरी बात, हम अपने आंतरिक राजनैतिक मतभेदों से बाहर नहीं निकल सके. इसने हमारे समाज और सेना, दोनों को बांट दिया. इज़रायली राजनेताओं और सैन्य अधिकारियों ने पिछले दो साल जनता को यह विश्वास दिलाने में बिताए हैं कि हमास डर गया है, उसे युद्ध में कोई दिलचस्पी नहीं है और वह गाज़ा की वैध सरकार के रूप में अपनी भूमिका निभा रहा है.

पाकिस्तानी अखबार डॉन में जावेद नक़वी ने सवाल पूछा - "क्या हम यहूदियों की बजाय यहूदीवाद से नहीं लड़ सकते?"

नक़वी लिखते हैं,

इज़रायल की दक्षिणपंथी सरकार इस हमले को भड़काने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है. इस सरकार ने ही पवित्र अल-अक्सा मस्जिद को यहूदी चरमपंथियों द्वारा अपवित्र करने की अनुमति दी. इनके सैनिक गाज़ा और वेस्ट बैंक में फिलिस्तीनियों को मार रहे हैं और वहां बसने वालों को बेखौफ होकर अधिक जमीन लूटने की इजाजत दे रहे हैं. हमास के हमले ने इज़रायल को झटका दिया है और प्रधानमंत्री नेतन्याहू को शर्मसार कर दिया है.

सऊदी अरब के अख़बार अरब न्यूज़ के मुख्य संपादक फ़ैसल जे अब्बास ने 07 अक्टूबर को संपादकीय में लिखा - Hamas has crossed the Rubicon. What now?
यानी, हमास ने पहला मोर्चा जीत लिया है. अब क्या?

फ़ैसल लिखते हैं,

इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद में जो उबाल आया है, उसने एक ही समय पर कई संकेत दिए हैं. पहली बात, हमास ने इस हमले के पीछे महीनों की प्लानिंग रही होगी. हक़ीक़त में, लगातार दमन और बुनियादारी अधिकारों को नज़रअंदाज़ करने की वजह से ऐसा होना तय हो गया था. जो ये दावा कर रहे हैं कि हमला बेवजह हुआ, वे ग़लत हैं.
लेकिन क्या इससे आम लोगों की हत्या और किडनैपिंग को जायज़ ठहराया जा सकता है? कतई नहीं. इससे फर्क़ नहीं पड़ता कि कौन विलेन है और कौन पीड़ित. 
तो, अब क्या हो सकता है? हालिया समय के इतिहास को देखें, नतीजा काफ़ी हद तक प्रत्याशित है. इज़रायल कहेगा कि उसे अपनी रक्षा करने का अधिकार है, वो फ़ुल-स्केल वॉर का ऐलान करेगा और जवाबी कार्रवाई में भरपूर नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेगा. नतीजा चाहे जो रहे, हमास कहेगा कि हमारी जीत हुई है. बहुत सारे फ़िलिस्तीनी भागते इज़रायली लोगों और किडनैप किए गए सैनिकों की तस्वीरें देखकर जश्न मनाएंगे. थोड़े समय बाद, वही फ़िलिस्तीनी इज़रायली टैंक्स और फ़ाइटर जेट्स की बमबारी से हताहत होंगे. उसके बाद अरब देश रेस्क्यू के लिए आएंगे और गाज़ा के पुनर्निर्माण की कोशिश करेंगे.

फ़ैसल ने जो 07 अक्टूबर को लिखा था, इज़रायल-हमास युद्ध कमोबेश उसी दिशा में बढ़ रहा है. इज़रायल ने फ़ुल-स्केल वॉर का ऐलान कर दिया है. और, 03 लाख सैनिकों को लेकर गाज़ा पट्टी में घुसने वाला है. आगे क्या होता है? इससे जुड़ी अपडेट्स पर हमारी नज़र बनी रहेगी. आप बने रहिए लल्लनटॉप के साथ.

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