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तलाक के बाद मुस्लिम महिला भी मांग सकती है गुजारा भत्ता? कोर्ट ने शाहबानो केस पर अब क्या कह दिया?

Supreme Court में अब्दुल समद नाम के एक व्यक्ति ने याचिका दायर की है. इसमें उन्होंने अपनी तलाकशुदा पत्नी को अंतरिम गुजारा भत्ता देने के हाई कोर्ट (High Court) के निर्देश को चुनौती दी है. कोर्ट ने क्या कहा है?

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Supreme Court reserved decision on muslim divorced woman
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है. (फोटो - आजतक)
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हरीश
20 फ़रवरी 2024 (Published: 12:07 IST)
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मुस्लिम तलाकशुदा महिला CrPC की धारा 125 के तहत पति से गुजारा भत्ता लेने की हकदार है या नहीं? ऐसी महिलाएं भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं या नहीं? ऐसे मामलों में CrPC लागू होगा या मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986. इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने सोमवार, 19 फ़रवरी को सुनवाई पूरी कर फ़ैसला सुरक्षित कर लिया है. जस्टिस बीवी नागरत्ना (Justice B. V. Nagarathna) और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह (Justice Augustine George Masih) की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की है.

क्या है मामला?

अब्दुल समद नाम के व्यक्ति ने अपनी तलाकशुदा पत्नी को अंतरिम गुजारा भत्ता देने के हाई कोर्ट (High Court) के निर्देश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. 9 फरवरी को पहली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट इस सवाल पर विचार करने के लिए तैयार हो गया था. सुप्रीम कोर्ट में पति ने दलील दी कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला CrPC की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार नहीं है. जहां तक भरण-पोषण में राहत की बात है, तो 1986 का कानून मुस्लिम महिलाओं के लिए ज़्यादा फायदेमंद है. याचिकाकर्ता पति का कहना है कि इद्दत (तय समय, जिसमें महिला दूसरी शादी नहीं कर सकती) यानी तलाक के बाद एकांतवास की अवधि (90 से 130 दिन) के दौरान महिला को भरण-पोषण के रूप में 15,000 रुपये का भुगतान किया था.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़, 12 फ़रवरी को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सीनियर वकील गौरल अग्रवाल को न्याय मित्र नियुक्त किया था और उनके विचार मांगे थे. 19 फरवरी को सुनवाई के दौरान गौरव ने कहा कि शाह बानो केस के बाद भी धारा 125 की कार्यवाही पूरी तरह चलने लायक है. उन्होंने कहा कि 1986 के अधिनियम की व्याख्या इस तरह की जानी चाहिए कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला भरण-पोषण के सभी अधिकारों की हकदार हो, जैसा देश में दूसरी तलाकशुदा महिलाओं के लिए उपलब्ध है. देश के एक वर्ग से ही तलाकशुदा महिलाओं के अधिकार नहीं छीने जा सकते. ऐसा न हो कि इससे संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन हो.

इस पर याचिकाकर्ता की तरफ से एस वसीम क़ादरी ने कहा कि अगर संसद का इरादा मुस्लिम महिलाओं को CrPC की धारा 125 के तहत केस फाइल करने की अनुमति देना था, तो 1986 के अधिनियम की कोई ज़रूरत ही नहीं थी.

जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा,

‘1986 अधिनियम यह नहीं कहता कि धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं द्वारा कोई याचिका दायर नहीं की जाएगी. उन्हें ऐसा कहना चाहिए था. जब अधिनियम में ये नहीं लिखा है तो क्या हम उसमें ये प्रतिबंध जोड़ सकते हैं? मुद्दा ये है.’

सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के बाद फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है.

हाई कोर्ट में इस मामले पर क्या हुआ?

इस मामले में एक तलाकशुदा महिला ने याचिका दायर कर अपने पति से CrPC की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ते की मांग की थी. याचिका पर सुनवाई करते हुए फैमिली कोर्ट ने आदेश दिया था कि पति 20,000 रुपये प्रति माह अंतरिम गुजारा भत्ता दे. अब्दुल समद ने इस फ़ैसले को तेलंगाना हाईकोर्ट में चुनौती दी. अपनी याचिका में समद ने कहा था कि उसने 2017 में मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक़ तलाक लिया था. उसके पास तलाक सर्टिफिकेट भी है. लेकिन फैमिली कोर्ट ने उस पर विचार नहीं किया.

मामले में सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के भरण-पोषण के निर्देश को रद्द नहीं किया. हालांकि, अदालत ने भुगतान की जाने वाली राशि को 20,000 रुपये से घटाकर 10,000 रुपये प्रति माह कर दिया था. साथ ही, बकाया राशि का 50 फीसदी हिस्सा 24 जनवरी, 2024 तक और बाकी 13, मार्च 2024 तक महिला को भुगतान करने का आदेश दिया था. इसके अलावा, हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट को 6 महीने के भीतर मामले का निपटारा करने का निर्देश भी दिया था.

ये भी पढ़ें - शाह बानो केस में राजीव को SC के फैसले के खिलाफ जाने से क्यों रोकना चाहती थीं सोनिया?

शाह बानो केस क्या था?

1985 की बात है. सुप्रीम कोर्ट ने तब मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. उस समय सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सर्वसम्मत से लिए अपने फैसले में कहा था कि सीआरपीसी की धारा 125 धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है और ये मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है. हालांकि, कुछ लोगों को ये फैसला स्वीकार नहीं था. इसे धार्मिक और व्यक्तिगत कानूनों पर हमले के रूप में देखा गया था. फैसले के बाद हंगामा हुआ. जिसके बाद राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 के अधिनियमन के तहत फैसले को रद्द करने की कोशिश की. इसमें तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को 90 दिनों तक सीमित कर दिया गया था.

वीडियो: तारीख: क्या था शाह बानो केस जिसने भारतीय राजनीति को पूरी तरह से बदल दिया?

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