बिहार के उस सीएम की कहानी जिसने लालू को नेता बनाया
वो CM जिसे बस कंडक्टर के चक्कर में कुर्सी गंवानी पड़ी.
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अंक 1
झारखंड पार्टी का बिहार में खेल
1970 का साल बीतने को था. बिहार में दारोगा प्रसाद राय की सरकार थी. राय कांग्रेस आर के नेता थे. कई दलों के सहयोग से मुख्यमंत्री बने थे. सब दुरुस्त था. मगर हैपी न्यू ईयर से पहले ही एक कांड हो गया. एक बस में.बिहार राज्य पथ परिवहन में काम करने वाले एक आदिवासी कंडक्टर को निलंबित कर दिया गया. काम में लापरवाही का चार्ज लगा. ये सरकारी कर्मचारी सस्पेंड होने के बाद पहुंचा झारखंड पार्टी के नेता बागुन सुम्ब्रई के पास. बागुन ने पूरा मामला सुना और फिर सीधे दारोगा प्रसाद के पास पैरवी करने पहुंच गए. सीएम ने टाल दिया. बागुन फिर पहुंचे. सीएम ने कहा, देखते हैं. एक हफ्ता बीता. मामला का जस का तस.
ऐसे में बागुन ने सरकार को ही देख लिया. 11 विधायकों के नेता ने समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया. दारोगा प्रसाद को लगा, सरकार बच जाएगी. मगर दिसंबर 1970 के तीसरे हफ्ते में जब फ्लोर टेस्ट का नतीजा घोषित हुआ, तो उनके समर्थन में 144 वोट निकले और विपक्ष में 164. झारखंड पार्टी के अलावा कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के भी कई विधायकों ने दारोगा के साथ दांव कर दिया था. 16 फरवरी, 1970 को सीएम बने दारोगा 10 महीने में ही भूतपूर्व हो गए.
लेकिन अभूतपूर्व वजह से भूतपूर्व हुए दारोगा की कहानी शुरू कहां से हुई थी.
सारण (छपरा) जिले के बजहिया गांव से. बाप का अरमान था कि बेटा पढ़ लिखकर पुलिस वाला बने. इसलिए दारोगा नाम रख दिया. बालक पढ़ाई के साथ आजादी की लड़ाई में भी शामिल रहा. गांधी जी की हत्या के बाद मास्टर बन चुके दारोगा सर्वोदयी संघ में एक्टिव हो गए. एक दफा उनके स्कूल में संघ का एक कार्यक्रम हुआ. चीफ गेस्ट थे बिहार से आने वाले कांग्रेस नेता और नेहरू कैबिनेट के मेंबर बाबू जगजीवन राम. उन्हें मास्टर का तेवर और तर्क जोरदार लगे. कांग्रेस में एक्टिव होने को कहा और फिर 1952 के विधानसभा चुनाव में परसा सीट से टिकट भी दिलवा दिया.
अंक 2
बहुगुणा आए बिहार का मुख्यमंत्री चुनने
विधायक दारोगा सेकंड टर्म से ही मंत्री भी बनने लगे. सिलसिला 1967 तक चला. उसके बाद गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं. 1969 में मध्यावधि चुनाव हुए. बिहार में फिर हंग एसेंबली. कांग्रेस ने हरिहर सिंह के नेतृत्व में जोड़ तोड़ कर सरकार बनाई. मुख्यमंत्री पद पर दारोगा ने भी दावा किया, मगर समर्थन देने वाले कुछ दल उनके नाम पर वीटो कर गए. दारोगा मंत्री पर ही रह गए.लेकिन कुछ ही महीनों में उनके धैर्य का फल मिला. तब तक हरिहर सिंह की कांग्रेसी और भोला पासवान शास्त्री गैरकांग्रेसी सरकार गिर चुकी थी. और राज्य में राष्ट्रपति शासन था. इसकी भी छह महीने की मियाद पूरी हो रही थी. कोई भी राजनीतिक दल एक साल के अंदर चुनाव के लिए तैयार नहीं था. ऐसे में सरकार बनाने की नए सिरे से कवायद शुरू हुई.
इससे पहले देश की सियासत में एक बड़ा बदलाव आ चुका था कांग्रेस विभाजन के रूप में. बिहार में भी कांग्रेस के विधायक दो गुटों में बंट चुके थे. 60 विधायक जगजीवन राम की अध्यक्षता वाली इन्दिरा गांधी की कांग्रेस (आर) में चले गए जबकि बाकी 58 विधायक ओल्ड गार्ड्स के साथ संगठन कांग्रेस में रह गए.
दरोगा प्रसाद राय की एक तस्वीर
फरवरी 1970 में कांग्रेस (आर) के महासचिव हेमवती नंदन बहुगुणा दिल्ली से पटना आए. केदार पांडे, राम लखन यादव सरीखे कई नेताओं ने उनके सामने दावा रखा. मगर बहुगुणा ने मैडम से सलाह कर साफ छवि के नाम पर दारोगा प्रसाद को आगे किया और सबको चुप होना पड़ा. दरअसल पार्टी ने संविद सरकार के अनुभवों से सीख ओबीसी चेहरे पर मन बना लिया था. इस पैमाने के साथ दावेदारी की बात करें तो राम लखन सीनियर थे, मगर 1969 में उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते टिकट नहीं मिला था.
विधायक दल के चुनाव के बाद बारी थी बहुमत के नंबर को मैनेज करने की. शोषित दल, झारखंड पार्टी और कुछ निर्दलीय विधायकों को सरकार में शामिल होने को राजी किया गया. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सीपीआई ने बाहर से समर्थन देना स्वीकार किया. इसके बाद दरोगा प्रसाद राय ने शपथ ले ली.
अंक 3
मंडल से पहले पिछड़ों का मसीहा
मुख्यमंत्री बनने के बाद दरोगा प्रसाद राय की सरकार ने बिहार सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित करने के वास्ते एक कमीशन बनाया. इसके मुखिया थे उनकी ही पार्टी के नेता मुंगेरी लाल. मजेदार बात ये है कि ओबीसी कमीशन के लिए चुने गए नेता खुद अनुसूचित जाति पासवान से आते थे. मुंगेरी लाल कमीशन ने पिछड़ों को आरक्षण की वकालत की. लेकिन कांग्रेस की सरकारों ने इस सलाह पर चुप्पी साथ ली.इसके बाद मुंगेरी लाल का नाम लोगों ने सात साल बाद राष्ट्रीय स्तर पर सुना, जब इंदिरा ने उन्हें 1977 में अपने बागी मंत्री जगजीवन राम के खिलाफ सासाराम सीट से चुनाव लड़ने को कहा. मुंगेरी ये चुनाव हार गए. कुछ ही महीनों बाद उनका नाम फिर चर्चा में आ गया. बिहार में सत्ता में आई जनता पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के एक फैसले के चलते.
कर्पूरी ठाकुर
कर्पूरी ने मुंगेरी लाल कमीशन की धूल खा रही सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया. पिछड़ों को 20 फीसदी रिजर्वेशन दिया. इस पर विधायक दल में बवाल कट गया और अंततः कुछ महीने बाद कर्पूरी की गद्दी चली गई. इसी दौरान पिछड़ों की मान मनव्वल के लिए मंडल कमीशन बनाया था केंद्र में मोरार जी सरकार ने. ये कुछ विषयांतर हो गया. वापस दारोगा के किस्से पर लौटते हैं. जो सरकार गिरने के बाद विपक्ष की बेंच पर बैठे भोला पासवान और फिर कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बनते और फिर एक और मध्यावधि चुनाव का ऐलान होते देख रहे थे.
अंक 4
ट्यूबवेल की धार में बह गए दारोगा
1972 के चुनाव में दारोगा फिर परसा से जीते. उनकी पार्टी कांग्रेस आर को स्पष्ट बहुमत मिला. लेकिन इस दफा इंदिरा ने उनके बजाय सख्त छवि वाले केदार पांडे के नाम पर मुहर लगाई मुख्यमंत्री पद के लिए. दारोगा को कृषि मंत्री का पद मिला. कुछ बरसों में केदार हटे तो अब्दूल गफूर आए. दारोगा फिर मंत्री बन गए. वित्त महकमा. मगर तब तक उनके ऊपर एक घोटाले में शामिल होने के इल्जाम लगने लगे थे. कहा जा रहा था कि बतौर खेती मंत्री उन्होंने ट्यूबवेल लगवाने में हेरा फेरी की. जल्द ही बिहार के लोकायुक्त ने इसकी जांच शुरू कर दी. करप्शन रोकने के लिए बने इस पद पर उस वक्त बैठे थे रिटायर्ड आईसीएस श्रीधर वासुदेव सोहनी. सोहनी ने शुरुआत में ही साफ कर दिया कि वह किसी राजनीतिक दबाव में नहीं आएंगे.ये सुन दारोगा दबाव में आ गए और पहुंच गए सीएम गफूर के पास. फिर क्या हुआ. इसका हमारे पास सटीक विवरण है. इंदिरा राज में प्रधानमंत्री कार्यालय में ताकतवर अधिकारी रहे बिशन टंडन के हवाले से. टंडन अपनी किताब, 'आपातकाल : एक डायरी' में 27 दिसंबर 1974 की कैबिनेट की एक बैठक और आगे की घटनाओं का जिक्र करते हुए लिखते हैं,
"मंत्रिमंडल की आज एक बैठक हुई और इसमें कोई विशेष महत्व की बात नहीं हुई. प्रधानमंत्री ने आज दरोगा प्रसाद राय के केस के बारे में बात की. दरोगा राय प्रधानमंत्री पर जोर दे रहे हैं कि बिहार के लोकायुक्त सोहनी (Retd. I.C.S. श्रीधर वासुदेव सोहनी) ने उनपर जो जांच शुरू की है उसे समाप्त कर दिया जाए. दरोगा प्रसाद राय को आशंका है कि लोकायुक्त सोहनी उनके साथ न्याय नहीं करेंगे. उनकी यह आशंका निराधार नहीं है लेकिन जांच समाप्त करने के लिए जो तरीके वह अपना रहे हैं वह सरासर गलत है. प्रधानमंत्री ने इस मामले में अपना हस्तक्षेप ललित बाबू (रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र) के कहने पर शुरू किया था जिसका संक्षिप्त विवरण मैं नीचे दे रहा हूं :-मैंने आपको विस्तार से ये सब ब्यौरे क्यों सुनाए. ताकि आप मैकियाविलियन पॉलिटिक्स के कल पुर्जे समझ सकें. रही दारोगा की बात तो बाद में ये मामला दब गया. करियर भी इसके बाद धीमा पड़ गया.
सोहनी ने जब दरोगा प्रसाद राय के विरूद्ध ट्यूबवेल संबंधी एक मामले की जाँच करने का निश्चय किया तब अब्दुल गफुर (मुख्यमंत्री) और दरोगा राय ने मिलकर सोहनी की बतौर लोकायुक्त नियुक्ति को ही असंवैधानिक घोषित करने की एक स्कीम बनाई. सोहनी की लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति केदार पांडे के मुख्यमंत्रित्व काल में हुई थी. दरोगा राय ने अपनी मुर्खता का परिचय इस सीमा तक दिया कि उन्होंने स्वयं इस संबंध में हाईकोर्ट में मुकदमा दायर करने की सोची. वे केदार पांडे के मंत्रिमंडल के सदस्य थे और अब भी मंत्री हैं. अतएव यह बहुत ही अटपटी बात होती कि सरकार के एक निर्णय के विरुद्ध स्वयं सरकार का ही एक मंत्री मुकदमा दायर करे. खैर, वे किसी तरह माने लेकिन बाद में संगठन कांग्रेस के तीन विधायकों से हाईकोर्ट में एक रिट दायर करवा दी. यहाँ तक गनीमत लेकिन सरकार की ओर से जो पैरवी हो रही थी, उसका प्रयोजन यह था कि रिट मंजूर हो जाए. अजीब बात थी. राज्य के विधि मंत्री जगन्नाथ मिश्र (ललित बाबू के भाई) ने जब इस मामले की ठीक से पैरवी करने के आदेश दिए तो विधि विभाग उनसे वापस ले लिया गया. रिट मंजूर होने से न केवल सोहनी की नियुक्ति रद्द होती बल्कि कुछ ऐसे कानूनी मामले भी खड़े होते जिससे केन्द्र सरकार को भी कठिनाई का सामना करना पड़ता. इस स्टेज पर प्रधानमंत्री ने हस्तक्षेप किया.
प्रधानमंत्री ने फोन पर मुझे यह सब बताया और कहा कि 'गृह मंत्री (उमाशंकर दीक्षित) और विधि मंत्री (एच आर गोखले) को इसमें बीच में पड़ना चाहिए और देखना चाहिए की राज्य सरकार की ओर से ठीक से पैरवी हो. तब इस मामले में दीक्षित जी और गोखले जी ने कई मिटिंग्स की और मैं भी उन सब में उपस्थित था. तब जाकर बात कुछ ढंग में लाई गई.
अब दरोगा राय प्रधानमंत्री से यह कह रहे हैं कि दीक्षित जी ने उनसे जो वादा किया था वह पूरा नहीं किया जा रहा है. उनका कहना है कि दीक्षित जी की राय थी कि दरोगा राय मुकदमा दायर करें. यह बात गलत है. दीक्षित जी ने दरोगा राय को एक पत्र में स्पष्ट लिखा था कि 'उन्हें न्यायालय नहीं जाना चाहिए.' आगे की कार्रवाई के लिए दीक्षित जी ने दरोगा राय को जो राय दी थी उसपर उन्होंने काम नहीं किया. आज जब प्रधानमंत्री ने बात उठाई तो मैंने क्रमानुसार उन्हें विवरण दिया. प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया कि उन्हें बीच में नहीं पड़ना चाहिए था. गृह मंत्रालय जो उचित होगा वह करेगा. साथ ही उन्होंने एकाध वाक्य ऐसा कहा जिससे स्पष्ट है कि आजकल दीक्षित जी से वे अप्रसन्न हैं."
अंक 5
गुरुपुत्र बने लालू के समधी
1977 की जनता लहर में दरोगा प्रसाद राय पहली बार चुनाव हारे. परसा विधानसभा सीट पर उन्हें जनता पार्टी के रामानंद प्रसाद यादव ने हराया. तीन साल बाद फिर 1980 में चुनाव हुए तो दारोगा सांतवी और आखिरी दफा परसा से विधायक बने. दस महीने बाद 15 अप्रैल 1981 को 59 वर्ष की अवस्था में उनका देहांत हो गया.दारोगा के जाने के बाद उनके परिवार ने इस सीट पर परचम गाड़ दिया. उपचुनाव में पत्नी पार्वती देवी विधायक बनीं. अगले चुनाव तक बेटा वयस्क हो गया था. उनका नाम आपने सुना होगा. चंद्रिका राय. लालू यादव के समधी यानी ऐश्वर्या के पापा चंद्रिका राय. परसा सीट से छह दफा विधायक और लालू सरकार में मंत्री रहे चंद्रिका राय. अब दोनों नेताओं के बीच संबंध कैसे हैं, सब जानते हैं. मगर एक दौर था. 1970 की शुरुआत का. जब चंद्रिका के पिता दारोगा ने ही लालू को पटना यूनिवर्सिटी की पॉलिटिक्स में खड़े होने में मदद की थी. समय, संबंध और सियासत. परिवर्तन ही स्थायी तथ्य है इसका.
लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव की शादी दारोगा प्रसाद राय की पोती ऐश्वर्या से हुई है. फिलहाल दोनों ने तलाक के लिए आवेदन किया हुआ है.
ये थी दारोगा प्रसाद राय की कहानी. जाते जाते आपको एक ट्रिविया देकर जाता हूं. उनकी सरकार कंडक्टर के मुद्दे पर झारखंड पार्टी के बागुन सुम्ब्रई ने गिराई. फिर सरकार बनी कर्पूरी ठाकुर की. इसमें बागुन मंत्री बने. परिवहन विभाग के. और अपनी कलम से उनका पहला फैसला था, कंडक्टर की बहाली का.
कभी सुनाऊंगा आपको बागुन के किस्से. शरीर पर सिर्फ एक धोती पहनने वाले. 40 शादियां करने वाले. पांच बार सांसद और चार बार विधायक रहे. झारखंड के पहले बड़े आदिवासी नेता.
और नेता जो मुख्यमंत्री बने, उनकी कहानियां तो आप सुन ही रहे हैं.