एक सेल्फी जीवन में तूफान ला दे, उससे पहले ये सब जान लीजिए
कई बार ऐप्स और वेबसाइट्स में अपनी पहचान वेरिफाई करने के लिए सेल्फी लेने को कहा जाता है. ऐसा करना कितना सेफ है?
आज से 185 साल पहले अमेरिका में पेशे से केमिस्ट और फोटोग्राफी के शौकीन Robert Cornelius के दिमाग में एक आइडिया सूझा. कुछ अलग करने का. उन्हें खुद की तस्वीर खींचनी थी. बकायदा कैमरे से. उन दिनों सेल्फी का ईजाद नहीं हुआ था. लेकिन कोर्नेलियस को अपनी तस्वीर तो लेनी ही थी. इसके लिए उन्होंने कैमरा सेट कर लिया. फिर बटन दबाकर फौरन दौड़े कैमरे के आगे और फ्रेम में जा खड़े हो गए. इस तरह उन्होंने अपनी तस्वीर ली. इसे खुद की तस्वीर लेना कहा जा सकता है या ‘Self portrait’. इतिहास इसे दुनिया की पहली सेल्फी बताता है. लेकिन ये जो शब्द है न सेल्फी इसकी खोज कई सालों बाद हुई. कैसे ?
2002 में आस्ट्रेलिया के एक शख्स Nathan Hope ने खुद की फोटो खींचकर इंटरनेट पर पोस्ट की. उनके होंठ पर चोट लगी थी. जिसे दिखाते हुए कैप्शन में लिखा- “sorry about the focus, it was a selfie”. रिपोर्ट्स की मानी जाए तो पहली बार इस शब्द का इस्तेमाल ऑस्ट्रेलिया के Nathan Hope ने ही किया था. सेल्फी शब्द सेल्फ पोर्ट्रेट का स्मॉल वर्जन है. जैसे वेस्टर्न कल्चर में शब्दों या नाम के आगे "-ie" prefix लगाकर इसे फनी या कैची बनाने की कोशिश की जाती रही है.
धीरे- धीरे सोशल मीडिया फोरम पर ये शब्द ऐसा चमका कि साल 2013 में Oxford Dictionaries ने इसे word of the year अनाउंस कर दिया. भारत ने 2015-16 में डिजिटल पुश की शुरुआत की थी. ये तूफान ऐसा आया कि शादी, एनिवर्सरी, डेट, मुंडन से लेकर शोक- दुख में भी लोग सेल्फी लेने लगे. सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक हमारी रोजमर्रा जिंदगी का ये हिस्सा बन गया. इस कड़ी में मॉर्निंग सेल्फी, मिरर सेल्फी, बेडफाई सेल्फी, डक फेस सेल्फी, फिटनेस सेल्फी, फुल बॉडी सेल्फी और प्रोफाइल वाली सेल्फी की खोज हुई.
और कुछ यूं सेल्फी बन गई हमारी आइडेंटिटी. इसी कड़ी में ऑनलाइन सर्विसेज ने इसे कस्टमर्स की पहचान को वेरीफाई करने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. आपके साथ भी हुआ होगा कि कभी ऐप्स और वेबसाइट्स में अपनी पहचान वेरिफाई करने के लिए सेल्फी लेने को कहा गया होगा. इसे सेल्फी ऑथेंटिकेशन कहा जाता है. ऐसी टेक्नॉलजी जिसका इस्तेमाल ये चेक करने के लिए किया जाता है कि आप वही हैं, जो होने का दावा कर रहे हैं.
सेल्फी ऑथेंटिकेशन होता कैसे है?-सबसे पहले सेल्फी लेने को कहा जाता है.
-सेल्फी को डिजिटल फॉर्मेट में बदला जाता है. फेशियल कैरेक्टर की आईडी कार्ड से तुलना करने के लिए.
इसके लिए खास सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया जाता है. इस प्रक्रिया को अक्सर एन्क्रिप्ट किया जाता है ताकि बायोमेट्रिक डेटा तक सीधे पहुंचे बिना पहचान की जा सके. इसका मतलब है कि असली बायोमेट्रिक जानकारी को सीधे स्टोर या एक्सेस नहीं किया जाता है. इसके बजाय, उस जानकारी को सुरक्षित (कोड के तौर पर) रखा जाता है. ताकि अगर कोई इसे एक्सेस करने की कोशिश भी करे, तो उसे आपकी पर्सनल जानकारी ना मिले.
सेल्फी ऑथेंटिकेशन और बेहतर से समझते है. इंडिया टु़डे से जुड़ीं अंकिता चक्रवर्ती की रिपोर्ट के मुताबिक, हाल ही में एयरटेल पेमेंट्स बैंक अपने कस्टमर्स के लिए फेस मैच फीचर लेकर आया है, जिसमें सेल्फी का अहम रोल है.
ये काम कैसे करता है?फेस मैच एक स्मार्ट सिक्योरिटी टेक्निक है. जो ये देखरेख करता है कि आप अपने अकाउंट को कैसे यूज कर रहे है. यानी कि लॉग इन कितनी बार हो रहा है, लॉग इन लोकेशन क्या है, लेनदेन का पैटर्न क्या है. और अगर इस बीच कुछ भी असामान्य दिखता है तो ये खतरा इंडिकेट करेगा. कैसे?
एयरटेल पेमेंट्स बैंक आपको आपके फोन पर एक सूचना देगा, जिसमें बताया जाएगा कि फेस मैच एक्टिव हो गया है. आपको ऐप का इस्तेमाल करके तुरंत एक सेल्फी लेने के लिए कहा जाएगा. फिर इस सेल्फी की तुलना उस फोटो से की जाती है जो आपने खाता खोलते समय दी थी. सेल्फी आपकी तस्वीर से मेल खाती है, तो आप आगे बढ़ सकते हैं और बिना किसी परेशानी के अपना लेनदेन पूरा कर सकते हैं. लेकिन अगर मेल नहीं खाती है, तो सिस्टम लेनदेन को ब्लॉक कर देगा, और आपको अपने फिंगरप्रिंट का इस्तेमाल करके आगे की वेरिफिकेशन के लिए नजदीकी बैंक जाने के लिए कहा जाएगा.
सेल्फी से कैसे होता है फ्रॉड?हमारी पर्सनल जानकारियां या तस्वीर साइबर क्रिमिनल्स के लिए गिफ्ट है. जिसे वो डार्क वेब पर बेच सकते हैं, थेफ्ट अटैक या फिशिंग में इस्तेमाल कर सकते हैं. होता ये है कि कई संस्थान अक्सर सेल्फी आईडेंटिटी वेरिफिकेशन के लिए थर्ड पार्टी पर निर्भर होते है, जो कई बार हमारी पर्सनल और संवेदनशील जानकारियां ठीक से संभाल नहीं पातीं या कई बार उसका दुरुपयोग होता है. इसी को कहते है डेटा ब्रीच यानी कि डेटा का उल्लंघन.
डीपफेक्स
आपकी तस्वीर का इस्तेमाल डीपफेक के लिए किया जा सकता है. डीपफेक का मतलब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से की जाने वाली नकल है. इसमें किसी की तस्वीर से नकली फोटो और वीडियो बनाना शामिल है. इसमें वॉयस की नकल का भी इस्तेमाल किया जाता है.
फिशिंग अटैक
साइबर अपराधी आपको फिशिंग ईमेल या एसएमएस भेजते हैं, जिनमें आपको एक लिंक पर क्लिक करने के लिए कहा जाता है. जब आप उस लिंक पर क्लिक करते हैं तो एक फर्जी वेबसाइट पर पहुंच जाते हैं जहां आपको अपनी सेल्फी खींचने और अपलोड करने के लिए कहा जाता है. इस तरह आपकी सेल्फी का गलत इस्तेमाल किया जा सकता है.
अकाउंट हैक
एक बार हैकर्स को आपके चेहरे का डीपफेक मिल जाए तो इससे वो फेशियल रिकॉग्निशन को आसानी से पास कर के अकाउंट को एक्सेस कर सकते है. आपके फेस एक्सेस से बैंक अकाउंट में सेंधमारी, फर्जी लोन, सिम कार्ड को क्लोन कर के मोबाइल नंबर पर आने वाले ओटीपी को रिसीव किया जा सकता है.
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सेल्फी ऑथेंटिकेशन से कैसे बचेंगे?-किसी भी अनजान मेल के लिंक पर क्लिक न करें.
-पासवर्ड मजबूत रखना है. एक ही पासवर्ड मल्टीपल अकाउंट के लिए इस्तेमाल नहीं करें.
-2 फैक्टर आइडेंटिफिकेशन को इनेबल कर लें. इससे दो बार वेरिफिकेशन हो जाता है.
-सोशल मीडिया पर लिमिटेशन जरूरी है. ये आपको तय करना होगा कि कौन आपकी तस्वीर देख सकता है.
-अपने फोन के सॉफ्टवेयर को हमेशा अपडेट रखें.
-निजी जानकारी को सोशल मीडिया पर शेयर करने से बचें.
इस समस्या को देखते हुए संस्थानों ने अपने कस्टमर्स को कागज पर एक यूनिक मैसेज के साथ सेल्फी लेने के लिए कहना शुरू कर दिया है. हालांकि, ये उतना कारगर नहीं समझा जा रहा है क्योंकि मैसेज को आसानी से एडिट किया जा सकता है. इसके अलावा लाइवनेस चेक भी एक तरीका है. जिसमें कस्टमर्स को सिर घुमाते या कुछ फेशियल एक्सप्रेशन देकर वीडियो देने के लिए कहा जाता है. कुछ लाइवनेस चेक व्यक्ति की त्वचा के नीचे ब्लड फ्लो को भी डिटेक्ट कर लेते है.
भारत में साइबर क्राइम के मामलों में हाई प्रोफाइल लोगों के केस में ही मामला दर्ज होता है, आम आदमी के मामलों को अक्सर दर्ज तक नहीं किया जाता है. ऐसे में अगर अकाउंट में थोड़ी भी गड़बड़ी फील करते है तो तुरंत बैंक , सर्विस प्रोवाइडर और साइबर सेल को कंप्लेन करें.
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