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कैसे खत्म हुआ था 'अनुच्छेद 370', जिसने जम्मू-कश्मीर में बांध दिए थे भारतीय संविधान के हाथ

'अनुच्छेद 370' को हटाना संवैधानिक था या असंवैधानिक, इस पर देश की सर्वोच्च अदालत में 4 साल, 4 महीने और 6 दिनों तक बहस हुई. दिलचस्प बात ये है कि भारत के जिस संविधान ने नाम पर ये कानूनी बहस चल रही थी, उसी संविधान के हाथ 'अनुच्छेद 370' की वजह से जम्मू-कश्मीर में काफी हदतक बंधे हुए थे.

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Article 370
अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम फैसला (सांकेतिक फोटो)
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दिग्विजय सिंह
11 दिसंबर 2023 (Updated: 11 दिसंबर 2023, 11:17 IST)
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4 साल, 4 महीने और 6 दिनों की कानूनी उठा पटक के बाद 'अनुच्छेद 370' मामले में फैसले की घड़ी आई. सुप्रीम कोर्ट के सामने सवाल था कि क्या केंद्र सरकार के पास 'अनुच्छेद 370' को रद्द करने या उसमें बदलाव करने का अधिकार है भी नहीं. मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ याचिका दायर करने वालों का तर्क था कि भारत का संविधान जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में किसी भी कानून में बदलाव करते समय राज्य सरकार की सहमति को अनिवार्य बनाता है. यह ध्यान में रखते हुए कि जब अनुच्छेद 370 को निरस्त किया गया था तब जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और राज्य सरकार की कोई सहमति नहीं थी. याचिकाकर्ताओं ने ये भी तर्क दिया कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के बिना विधान सभा को भंग नहीं कर सकते थे.याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि केंद्र ने जो किया है वह संवैधानिक रूप से स्वीकार्य नहीं है और अंतिम साधन को उचित नहीं ठहराता है.

'अनुच्छेद 370' में क्या था- 'अनुच्छेद 370' भारत के संविधान का एक ऐसा प्रावधान था जो कि जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देता था. संविधान से मिले उसी विशेष दर्जे की वजह से धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले सूबे पर संविधान की उपयोगिता भी काफी हदतक सीमित हो जाती थी. संविधान के 'अनुच्छेद-1'के अलावा कोई अन्य अनुच्छेद जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होता था. संविधान का 'अनुच्छेद-1' कहता है कि भारत राज्यों का एक संघ है. बाकी जम्मू-कश्मीर का अपना अलग संविधान था. वैसे तो 'अनुच्छेद 370' भारत के राष्ट्रपति को ये अधिकार देता था कि वो  ज़रूरत पड़ने पर किसी भी बदलाव के साथ संविधान के किसी भी हिस्से को राज्य में लागू कर सकते हैं. मगर यहां भी एक शर्त थी कि इसके लिए राज्य सरकार की सहमति लेनी जरूरी है. इसमें यह भी कहा गया था कि भारतीय संसद के पास केवल विदेश मामलों, रक्षा और संचार के संबंध में राज्य में क़ानून बनाने की शक्तियां हैं.

ये भी पढ़ें- (अनुच्छेद 370 हटाने के बाद कितना सुरक्षित हुआ कश्मीर, क्या कहते हैं सरकार के आंकड़े?)

संविधान सभा का पेच- 'अनुच्छेद 370' में ये साफ किया गया था कि इसके प्रावधान में राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सहमति से ही संशोधन कर सकते हैं. मगर यहां दिक्कत ये थी कि 1951 में गठित जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा 1956 में भंग की जा चुकी थी. मतलब ना रहेगी संविधान सभा और ना वो किसी संशोधन को सहमति देगा। मगर 5 अगस्त 2019 को देश के गृहमंत्री अमित शाह ने एक झटके में 'अनुच्छेद 370' को समाप्त करने का प्रस्ताव लोकसभा में पेश कर दिया, जिसे की बड़ी आसानी से सदन में पारित भी करवा लिया गया. मोदी सरकार ने साथ के साथ 'अनुच्छेद 35-ए'की समाप्ति का भी ऐलान कर दिया. 'अनुच्छेद 35-ए' को 1954 में संविधान में शामिल किया गया था. यह प्रावधान जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासियों को सरकारी रोज़गार, राज्य में संपत्ति ख़रीदने और राज्य में रहने के लिए विशेष अधिकार देता था.

370 को हटाया कैसे गया- 'अनुच्छेद 370' को हटाने की कानूनी प्रक्रिया काफ़ी जटिल और पेचीदा थी. 5 अगस्त 2019 को भारत के राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया. इससे संविधान में संशोधन हुआ. इसमें कहा गया कि राज्य की संविधान सभा के संदर्भ का अर्थ राज्य की विधानसभा होगा. इसमें यह भी कहा गया था कि राज्य की सरकार राज्य के राज्यपाल के समकक्ष होगी. अब ध्यान रखने वाली बात ये है कि जब ये संशोधन पारित हुआ, उस वक्त जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था.सामान्य परिस्थितियों में इस संशोधन के लिए राष्ट्रपति को राज्य विधानमंडल की सहमति की ज़रूरत होती, लेकिन राष्ट्रपति शासन के कारण विधानमंडल की सहमति संभव नहीं थी. इस आदेश ने राष्ट्रपति और केंद्र सरकार को 'अनुच्छेद 370' में जिस भी तरीक़े से सही लगे संशोधन करने की ताक़त दे दी.इसके अगले दिन राष्ट्रपति ने एक और आदेश जारी किया. इसमें कहा गया कि भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू होंगे. इससे जम्मू कश्मीर को मिला विशेष दर्जा ख़त्म हो गया. 9 अगस्त 2019 को संसद ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों: जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में बाँटने वाला एक क़ानून पारित किया. इस आदेश में कहा गया कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा होगी, लेकिन लद्दाख में नहीं होगी.

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