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त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय मेंं BJP की सरकार, कैसे पलटी हारी हुई बाजी?

त्रिपुरा और नागालैंड में सत्ताधारी गठबंधन ही जीता है और मेघालय में BJP ने गठबंधन से सरकार चलाने की बात कही है.

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त्रिपुरा में 16 फरवरी के रोज़ वोटिंग हुई थी (फाइल फोटो- पीएम मोदी)
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2 मार्च 2023 (Updated: 2 मार्च 2023, 21:27 IST)
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त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं. जिन पत्रकारों ने चुनाव कवर किए उनके बीच जब नतीजों को लेकर बात होती, तो तीनों सूबों के नतीजों को एक ही शब्द में बांधा जाता - ''रिपीट''. जब एग्ज़िट पोल नतीजे आए, उनका संदेश भी यही था - ''रिपीट''. और आज आए नतीजे भी ''रिपीट'' वाला ही सुर पकड़े हुए हैं. त्रिपुरा और नागालैंड में सत्ताधारी गठबंधन ही जीता है. और मेघालय में सत्ता के लिए जो गठबंधन बनने की प्रबल संभावना है, उसमें पुराने साथी ही साथ आते नज़र आ रहे हैं. अब सवाल ये है कि सुदूर पूर्वोत्तर के इन तीन सूबों के नतीजों पर ''मैंने तो पहले ही बता दिया था'' के अलावा क्या कहा जाए? अगर आपकी चक्की भी इसी बिंदु पर रुकी हुई है, दी लल्लनटॉप ने इन तीनों राज्यों में चुनाव को कवर किया. सभी स्टेकहोल्डर्स से बात की - जिनमें जनता थी, कार्यकर्ता थे, नेता थे और थे अधिकारी. तो अपने अनुभव के आधार पर हम आपको बताएंगे कि क्यों इन राज्यों के नतीजों में सूबाई ही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति के बदलते चरित्र के संकेत छिपे हुए हैं. साथ में हैं इन राज्यों को दशकों से कवर कर रहे विशेषज्ञों की टिप्पणियां भी.

त्रिपुरा में सबसे पहले, माने 16 फरवरी के रोज़ वोटिंग हुई थी. तो हम बात पहले त्रिपुरा की ही करेंगे.

त्रिपुरा के 2018 और 2023 के नतीजे


60 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी ने लगातार दूसरी बार अकेले अपने दम पर बहुमत के आंकड़े को पार कर लिया. बीजेपी ने 32 सीटें जीती. हालांकि ये पिछले चुनाव से 4 सीटें कम है. 2018 में हुए चुनाव में बीजेपी को 36 सीटें मिली थीं और उसके गठबंधन के साथी Indigenous Peoples Front of Tripura यानी (IPFT) को 8 सीटें मिली थीं. इस बार IPFT सिर्फ 1 सीट जीतने में कामयाब हो पाई. दोनों का जोड़ 33 है और सरकार बनाने के लिए पर्याप्त है.

त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के नतीजे 

TIPRA Motha अपने पहले ही चुनाव में 13 सीटें जीत ले गई. लेफ्ट और कांग्रेस का सीट शेयरिंग अरेंजमेंट, बीजेपी के आगे बेअसर रहा.लेफ्ट को 11, जबकि कांग्रेस को सिर्फ 3 सीटों पर जीत मिली. कांग्रेस का पिछले चुनाव में यहां खाता भी नहीं खुला था, तो उसे 3 सीटों का फायदा हुआ है.जबकि लेफ्ट पिछली बार के 16 के मुकाबले 11 पर अटक गई .इसी के साथ सत्ता परिवर्तन की सारी सुगबुगाहटों पर विराम लग गया. 

आंकड़े आपने देख लिए. अब आपको इनके पीछे की कहानी बताते हैं. भारतीय जनता पार्टी गठबंधन ने 2018 में वाम मोर्चे का किला ढहा दिया था. लगातार चार बार CM रहे माणिक सरकार विधानसभा पहुंचे तो सही, लेकिन नेता प्रतिपक्ष के रूप में. भारतीय जनता पार्टी की जीत का सेहरा बंधा बिप्लब देब के सिर. खबरों की दुनिया बिप्लब को उनके अजीबो गरीब बयानों के लिए ही याद रखती है. लेकिन ये एक तथ्य है कि त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी 2018 और 2023 में जहां भी पहुंची है, उसमें भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के साथ-साथ बिप्लब देब की बड़ी भूमिका है. वो भीड़ भी खींच लेते थे और संगठन भी चला लेते थे. इसीलिए CM भी बने. लेकिन कांग्रेस से भाजपा में आकर सरकार का हिस्सा बने नेताओं ने बिप्लब के खिलाफ जल्द ही मोर्चा खोल दिया. इनमें सबसे बड़ा नाम था सुदीप राय बर्मन का. ये इकलौता कारण तो नहीं था, लेकिन चर्चा सबसे ज़्यादा इसी की हुई, जब 2023 के विधानसभा चुनाव से 8 महीने पहले भारतीय जनता पार्टी ने सूबे में अपना मुख्यमंत्री बदल दिया. और साफ-सुथरी छवि के माणिक साहा सीएम बनाए गए. पेश से डॉक्टर साहा डैमेज कंट्रोल में लगे रहे, लेकिन उनके कार्यकाल के दो महीने दुर्गापूजा और चुनाव आचार संहिता की ही भेंट चढ़ गए. और जिन नेताओं ने बिप्लब का विरोध किया था, उन्होंने पार्टी छोड़ भी थी. सुदीप राय बर्मन के साथ गए आशीष साहा ने तो माणिक साहा के ही खिलाफ कांग्रेस से पर्चा भी भर दिया.

इसीलिए चुनाव से पूर्व लोग दबी ज़बान में कहते थे कि भाजपा नर्वस है. इस नर्वसनेस का एक कारण और था. पार्टी ने पिछला चुनाव लड़ा था Indigenous People's Front of Tripura माने IPFT के साथ. त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों में इस पार्टी को 9 सीटें दी गई थीं जिनमें से पार्टी 8 पर जीत गई. माने शानदार प्रदर्शन. लेकिन IPFT क्रमशः कमज़ोर होती गई. 2021 में आदिवासी इलाकों के लिए बने ऑटोनोमस काउंसिल चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब रहा. तो भाजपा के सामने तीन बड़ी चुनौतियां थीं - चुनाव से पहले नेतृत्व परिवर्तन, पार्टी के नेताओं में भगदड़ और आदिवासी मत. लेकिन क्या जेपी नड्डा, क्या अमित शाह और क्या प्रधानमंत्री मोदी. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने त्रिपुरा का कोना कोना नाप दिया. लेकिन सिर्फ प्रचार से ही चुनाव जीत लिए जाते, तो कोई भी जीत लेता. 

काम के अलावा दो और फैक्टर्स ने भारतीय जनता पार्टी के हाथ मज़बूत किए. हमने अभी अभी आपको बताया कि IPFT कमज़ोर हो रही थी. माने आदिवासी मत उसे नहीं मिल रहे थे. कहां जा रहे थे? - पार्टी का नाम है the indigenous progressive regional alliance माने TIPRA मोथा. त्रिपुरा राजपरिवार के हालिया मुखिया प्रद्योत देबबर्मन की पार्टी. प्रद्योत ने उसी मांग को पकड़ा, जो एक वक्त IPFT ने उठाई थी - टिपरालैंड. माने त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों के लिए अलग राज्य. दर्शक जानते ही हैं कि आज जहां आधुनिक त्रिपुरा है वहां एक वक्त त्रिपुरी समुदाय के लोग रहते थे. लेकिन क्रमशः यहां बांग्ला भाषियों की संख्या बढ़ती गई है. आज बांग्लाभाषी यहां की दो-तिहाई आबादी बनाते हैं. बांग्लाभाषियों का बड़ा हिस्सा हिंदू है. मुस्लिम भी ठीक-ठाक संख्या में हैं. इनके चलते अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक होते गए आदिवासी लंबे समय से ज़्यादा अधिकार मांग रहे हैं. IPFT सरकार में रहते हुए टिपरालैंड को लेकर कोई नतीजा नहीं दे पाई, तो इस स्पेस को प्रद्योत देबबर्मन ने भर दिया. उनकी पार्टी ने ऑटोनॉमस काउंसिल चुनावों में बढ़िया प्रदर्शन किया. और उम्मीद के मुताबिक ही, विधानसभा चुनाव में भी 13 सीटें जीत गई.

इससे हुआ ये कि IPFT के हाथों से जो आदिवासी मत फिसले, वो CPM को नहीं गए, जो एक ज़माने में त्रिपुरा की 18 आदिवासी सीटों को क्लीन स्वीप किया करती थी. प्रद्योत ने जिस आक्रामकता के साथ आदिवासियों के लिए अधिकार मांगे, उसने बांग्ला भाषियों में एक रिवर्स पोलराइज़ेशन किया. और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को वोट डाले. नतीजा - आपके सामने है. वाम मोर्चा कोई चमत्कार क्यों नहीं कर पाया, इसके कारण कई है. पहला तो यही है कि उन्होंने उस भाषा को नहीं पकड़ा, जिसमें वोटर बात करता है. त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी रोज़गार को लेकर किये अपने वादों को लेकर बड़े सवालों के घेरे में रही. चाहे वो शिक्षकों की भर्ती हो या हर साल 50 हज़ार नौकरियों का वादा. लेकिन वाम मोर्चे ने कहा कि भाजपा के रहते लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हुआ है. फासिज़म की आहट हो रही है. अब ये विशेषज्ञ बता सकते हैं कि इस भाषा से वोटर ने कितना कनेक्ट किया होगा, लेकिन नतीजे संकेत दे रहे हैं.
रही बात कांग्रेस की, तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने त्रिपुरा में दिलचस्पी नहीं ली, तो त्रिपुरा ने भी पार्टी में दिलचस्पी नहीं ली. अगरतला से सुदीप रॉय बर्मन जीते. तो उसका कारण उनकी निजी पॉलिटिकल करेंसी है. यही बात कांग्रेस के बाकी दो विजयी कैंडिडेट्स पर भी लागू होती है.

भारतीय जनता पार्टी के लिए ये नतीजे राहत लाए हैं. अब उसे त्रिपुरा में बाहरी पार्टी कहने से पहले लोगों को सोचना पड़ेगा. और नेतृत्व परिवर्तन के जिस फैसले को लेकर सवाल उठ रहे थे, वो भी अब वैलिडेट हो गया है. माने जनता ने उसे स्वीकार कर लिया है. रही बात प्रद्योत देबबर्मन की टिपरा मोथा के भविष्य की. 

अब चलते हैं नागालैंड. पहले आप नतीजों पर गौर कीजिए -
नागालैंड में एक बार फिर से बीजेपी गठबंधन को क्लियर कट विक्ट्री मिली है.बीजेपी और सीएम नेफ्यू रियो की पार्टी NDPP के गठबंधन ने 37 सीटों के साथ बहुमत के आंकड़े को पार कर लिया.NDPP को 25 और बीजेपी को 12 सीटें मिलीं.इसके अलावा कोनराड संगमा की पार्टी NPP को भी 5 सीटें मिलीं.सोशल मीडिया पर चर्चित चेहरे और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष तेमजेन इमना अपना चुनाव हार कर जीत गए.मतगणना में एक बार उनकी हार घोषित हो गई थी.रीकाउंटिंग हुई तो 3 हजार से ज्यादा के मार्जिन से तेमजेन अपना चुनाव जीत गए.जीत के बार ट्वीट कर लिखा - हार कर जीतने वाले को डॉट, डॉट, डॉट कहते हैं.लोगों ने रिप्लाई में लिखा - बाज़ीगर.

अब आते हैं कांग्रेस पर लगातार दूसरे चुनाव में कांग्रेस का नागालैंड में खाता तक नहीं खुला, सूबे में पार्टी अध्यक्ष केवेखापे थेरे तक अपना चुनाव हार गए. नागालैंड में नेफ्यू रियो मुख्यमंत्री थे. उनकी पार्टी नेशनलिस्ट डेमोक्रैटिक प्रोग्रेसिव पार्टी माने NDPP, भाजपा के साथ गठबंधन में थी. लेकिन विपक्ष में कोई नहीं थी. क्योंकि अगस्त 2021 में नागा पीपल्स फ्रंट NPF समेत तमाम विपक्षी दल सरकार का ही हिस्सा बन गए थे. ऐसे बनी United Democratic Alliance सरकार. आप इसे all party government कह सकते हैं, या विपक्षविहीन सरकार कह सकते हैं. सबने कहा कि नागा शांति के विषय पर आम राय बनाने के लिए साथ आए हैं.

तो अब जहां विपक्ष नहीं, वहां मुद्दा क्या बनता? और कैसे बनता? डॉ दीपक ने बताया, 

“नागालैंड में मुद्दों की कमी नहीं है. सड़कें खराब हैं. बिजली आती नहीं. और पानी के लिए लोगों को खुद ही बोरवेल करना पड़ता है, जिसमें से आने वाला पानी पीने लायक होता नहीं. बावजूद इसके, शांति समझौते वाली बात को इतनी ज़्यादा प्रधानता मिल गई है, कि बाकी मुद्दे गौण हो जाते हैं. फिर नागालैंड में 16 ज़िलों में 17 जनजातियां हैं, जिन्हें नागा पहचान से इतर, आज तक किसी एक बड़े पॉलिटिकल नैरेटिव में साथ में नहीं बांधा जा सका. अंडरग्राउंड और नागालैंड सरकार द्वारा अवैध वसूली की शिकायत हर कोई करता है, भ्रष्टाचार से हर कोई त्रस्त है. लेकिन अगले वाक्य में ये भी सुनने को मिल जाता है कि कुछ होने नहीं वाला. लेकिन इस मायूसी का मतलब ये नहीं कि नागालैंड की राजनीति में कलर नहीं. गौर कीजिए, नेफ्यू रियो मुख्यमंत्री तो बन रहे हैं, लेकिन उनकी पार्टी कमज़ोर हुई है. स्ट्राइक रेट नीचे आया. वहीं तेमजेन अलॉन्ग के नेतृत्व में भाजपा ने अपना प्रदर्शन दोहरा दिया है. तो नई सरकार में भाजपा का दखल पहले से बड़ा रहेगा. और रियो को इसे स्वीकार करना पड़ेगा.”

गौर करने लायक दूसरा बिंदू है अन्य. जी हां. मेघालय की नेशनल पीपल्स पार्टी और नागा पीपल्स फ्रंट को छोड़ दें, तब भी डेढ़ दर्जन के करीब सीटें अन्य को गई हैं. ये पार्टियां हैं जदयू, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आठवले). जी हां, आपके कान खराब नहीं हुए हैं, हमने जदयू, लोजपा, NCP और RPI का ही नाम लिया है. इन्होंने NDPP को काफी नुकसान पहुंचाया है. भविष्य में अगर इन पार्टियों के विधायक पार्टी बदलते हैं, तो कहां जाएंगे, इसका जवाब सभी को पता है. वैसे भी नागालैंड की राजनीति में केंद्र में राज कर रही पार्टी का दखल काफी रहता है. तो भाजपा इन नतीजों से बहुत खुश है. बस वो भाजपा नेता दुखी हैं, जो चाहते थे कि पार्टी मेघालय की तरह ही 60 सीटों पर लड़े. लेकिन जैसा कि तेमजेन इम्ना ने दी लल्लनटॉप से कहा था, पार्टी डिसीप्लिन भी कोई चीज़ होती है. और धीरे धीरे ''सब'' होगा.

पार्टियां तो खुश हैं. लोगों का क्या? क्या नागा शांति समझौता हो पाएगा? क्या सरेंडर पॉलिसी आएगी? उग्रवादी मुख्यधारा में लौटेंगे? अवैध वसूली रुकेगी? जवाब है, कि कोई जवाब नहीं है. राम माधव ने 2018 के चुनाव से पहले इलेक्शन फॉर सॉल्यूशन का नारा दिया था. इलेक्शन तो दो बार हो गया. सॉल्यूशन नहीं हुआ. और जल्द हो पाएगा, ऐसा लगता भी नहीं. एक परिवर्तन ज़रूर हुआ है, जिसका स्वागत सभी को करना चाहिए. दीमापुर 3 सीट से NDPP की प्रत्याशी हेकानी जखालू जीत गई हैं. ये नागालैंड के इतिहास में पहली महिला विधायक हैं. इस सूबे में महिलाओं ने हमेशा

अंत में चलते हैं मेघालय. पहले अंक तालिका देखिए -

मेघालय विधानसभा चुनाव के नतीजे

विधानसभा की 60 में से 59 सीटों के नतीजे आए हैं.एक प्रत्याशी की मृत्यु की वजह से एक सीट पर चुनाव बाद होगा. यहां किसी को भी अकेले दम पर बहुमत नहीं मिला.मौजूदा सीएम कोनराड संगमा की पार्टी National People's Party यानी NPP 25 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी है.NPP को 2018 की 20 सीटों के मुकाबले 5 सीटों का फायदा हुआ है.कोनराड संगमा का एक परिचय ये भी है कि वो पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा के बेटे हैं.बीजेपी के नेतृत्व वाले NDA के पुराने साथी रहे हैं.वो 2018 से बीजेपी के साथ मेघालय में गठबंधन की सरकार चला रहे थे.मगर इस चुनाव से पहले कोई गठबंधन नहीं हुआ, सभी पार्टियां अकेले-अकेले चुनाव लड़ी थीं.बहुमत के लिए 30 विधायकों की जरूरत है.बीजेपी के खाते में इस बार 3 सीटें आई हैं.जो पिछली बार के 2 सीट से एक ज्यादा है.नतीजों के बाद NPP एक बार फिर बीजेपी और अन्य सहयोगियों को साथ लेकर सरकार बनाने जा रही है.क्षेत्रिय दल यूनाइटेड डेमोक्रैटिक पार्टी UDP को 11, कांग्रेस को 5, तृणमूल कांग्रेस को 5 सीटें मिली हैं, जबकि बाकी सीटें अन्य के खाते में गईं.UDP एक बार फिर से किंग मेकर की भूमिका में है. वो पिछली गठबंधन सरकार का भी हिस्सा थी.

आंकड़ों के बाद आइए कहानी पर. कहानी ये है कि सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा भारतीय जनता पार्टी ने यहां मुकुल संगमा का साथ छोड़कर 60 की 60 सीटों पर चुनाव लड़ा. और नतीजे ये संकेत दे रहे हैं कि दोनों ही पार्टियों को इस फैसले से फायदा हुआ. तीन सूबों के चुनावों में अगर स्थानीय मुद्दे कहीं हावी रहे, तो वो मेघालय ही था. इसीलिए मुकुल संगमा को 12 विधायकों के साथ कांग्रेस तोड़ने और तृणमूल में जाने का कोई फायदा नहीं हुआ. क्योंकि वो ''स्थानीय'' पार्टी में नहीं रह गए. बंगाली पार्टी के हो मान लिये गये. स्थानीय और बाहरी - मेघालय में एक भावुक मुद्दा है.

संभवतः इसीलिए कोनराड संगमा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद लोगों ने उन्हीं को वोट दिया. इस तरह एक संगमा का नुकसान, दूसरे संगमा का फायदा बना. भारतीय जनता पार्टी 60 सीटों पर लड़ी और 3 पर जीती. यहां स्ट्राइक रेट से ज़्यादा इस बात का महत्व है, कि पार्टी ने सारी सीटों पर अपनी मौजूदगी दर्ज तो करा ही दी. फिर पार्टी के पास खोने को कुछ था भी नहीं. तो जो मिला, उसमें पार्टी फायदा ही खोजेगी. पूरी संभावना है कि सत्ताधारी गठबंधन में भाजपा भी शामिल रहे.

तीनों सूबों की बात हो गई. अब इन नतीजों से राष्ट्रीय राजनीति के संकेत पकड़ते हैं. इसके लिए एक किस्सा सुनिए. 24 फरवरी 2023 नागालैंड विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार का आखिरी दिन था. इस रोज़ दीमापुर में भाजपा और नेशनलिस्ट डेमोक्रैटिक प्रोग्रेसिव पार्टी माने NDPP की एक साझा रैली हुई. इसमें मंच से बताया गया कि अपने 9 सालों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर के राज्यों में 57 दौरे किये हैं. कहने वाले कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री का तो काम ही है पूरे देश में दौरे करना. लेकिन इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता कि भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से पूर्वोत्तर पर फोकस बनाए रखा, उसका फायदा अब दिखने लगा है. हिंदू राष्ट्रवाद की लाइन पर चलने वाली भाजपा को अब पूर्वोत्तर के ईसाई बाहुल नागालैंड और मेघालय में मेनलैंड की पार्टी कहने से पहले लोगों को सोचना पड़ेगा. बीफ हो या स्थानीय जातिय और भाषाई अस्मिता, भाजपा ने सारी अड़चनों को हैंडल करना सीखा है. अगले साल होने वालो लोकसभा चुनावों में इस जीत का बहुत बड़ा फायदा न भी मिले, तब भी पार्टी के पास ये कहने को होगा, कि वो देश के कोने-कोने में न सिर्फ मौजूद है, बल्कि रोज़मर्रा की राजनीति में दखल भी रखती है.

जैसे भाजपा का कद बढ़ा, वैसे ही भाजपा के भीतर हिमंता बिस्वा सर्मा का कद बढ़ गया. असम के मुख्यमंत्री अब तक गोवा और महाराष्ट्र में एक्टिव दिखे. अब उन्होंने अपने इलाके में भी पार्टी को नतीजा लाकर दिखाया है. चुनाव नतीजे ये साबित करते हैं कि नरेंद्र मोदी से इतर, हिमंता भी पूर्वोत्तर में एक फैक्टर हैं. ऐसे में ये देखना होगा कि नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रैटिक अलायंस के संयोजक बिस्वा सरमा को भाजपा केंद्रीय नेतृत्व क्या ईनाम देगा. और क्या हिमंता उतने पर ही खुश हो जाएंगे. इन तीन राज्यों के नतीजे पॉलिटिकल कम्यूनिकेशन की दुनिया के लिए भी एक केस स्टडी हो सकते हैं. वाम मोर्चा त्रिपुरा में भरपूर अवसर होने के बावजूद हार गया. क्योंकि अपना मैसेज उस भाषा में क्राफ्ट नहीं कर पाया, जिसे वोटर समझता है. वहीं कोनराड संगमा ने गेम अपनी स्ट्रेंथ पर खेला, आम लोगों को रास आने वाले मुद्दों की चर्चा की. और नतीजा आपके सामने है.

हमने आपको तीन राज्यों के नतीजे बता दिए. अब उपचुनावों की बारी. विधानसभा चुनावों के साथ पांच राज्यों की छह सीटों पर भी उपचुनाव हुए. इन सीटों में महाराष्ट्र की कस्बापेठ और चिंचवड, पश्चिम बंगाल की सागरदिघी, झारखंड की रायगढ़, तमिलनाडु की इरोड और अरुणाचल प्रदेश की लुमला सीट शामिल है. छह सीटों पर सबसे बड़ा झटका बीजेपी को लगा है तो वहीं कांग्रेस को बड़ा फायदा मिला है. छह में से तीन सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है. महाराष्ट्र की कस्बापेठ सीट पर 28 साल से बीजेपी का कब्जा था लेकिन उपचुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी का किला ढहा दिया. इस सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार रवींद्र धंगेकर ने उपचुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार हेमंत रसाने को हराया है. महाराष्ट्र की दूसरी सीट है चिंचवड. बुलेटिन की तैयारी तक चिंचवड सीट पर बीजेपी उम्मीदवार अश्विनी जगताप 31वे राउंड की मतगणना के बाद लगभग 32 हजार वोटों की बढ़त बनाए हुए थे.

पश्चिम बंगाल की सागरदिघी विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है. यहां कांग्रेस-वाम गठबंधन उम्मीदवार बायरन बिस्वास ने TMC के देबाशीष बनर्जी को मात दी है. बीजेपी ने इस सीट से दिलीप साहा को मैदान में उतारा था, लेकिन उन्हें तीसरे नंबर से संतोष करना पड़ा. इससे पहले इस सीट पर TMC का कब्जा था. TMC नेता सुब्रत साहा इस सीट से विधायक थे और उनके निधन के बाद इस सीट पर उपचुनाव हुए थे. इस जीत के साथ राज्य में कांग्रेस का खाता खुल गया है. 

झारखंड में विपक्षी पार्टी बीजेपी के लिए राहत भरी खबर है. यहां सीएम हेमंत सोरेने के मैनेजमेंट का असर नहीं दिखा और रायगढ़ सीट पर बीजेपी समर्थित आजसू पार्टी को जीत मिली है. यहां आजसू पार्टी की सुनीता चौधरी ने कांग्रेस के बजरंग महतो को हराया है. साल 2019 के बाद राज्य में अब तक पांच विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं. इनमें से चार बार सत्ताधारी यूपीए गठबंधन तो पांचवीं बार विपक्षी एनडीए गठबंधन को जीत मिली है. तमिलनाडु की इरोड पूर्व सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार एलंगोवन ने AIADMK के केएस थेन्नारास्रु को मात देकर विधायक बने हैं. इस सीट पर एलंगोवन के बेटे और कांग्रेस विधायक ई थिरुमहान एवरा के निधन की वजह से उपचुनाव हुए हैं. उपचुनाव में इस सीट पर कांग्रेस का सत्ताधारी DMK के साथ गठबंधन था. 

अब बात उपचुनाव में आखिरी सीट की. अरुणाचल प्रदेश में भारत-चीन सीमा पर स्थित तवांग जिले की लुमला सीट पर बीजेपी विधायक जंबे ताशी के निधन की वजह से खाली हुई थी. उपचुनाव में बीजेपी ने पूर्व विधायक जंबे ताशी की पत्नी शेरिंग हामु को मैदान में उतारा था, जिनके खिलाफ कोई भी प्रत्याशी मैदान में नहीं था और वह एक मात्र प्रत्याशी थीं. ऐसे में उन्होंने निर्विरोध जीत दर्ज कर ली है.

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