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चीनी का ख़ूनी इतिहास जानकर चौंक जाएंगे, कैसे हुई थी चीनी की खोज?

जो चीनी दुनिया खाती है, उसमें किसका ख़ून मिला है?

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A boy carrying a bundle of sugarcane in Haiti (Photo- Getty)
हैती में गन्ने का गट्ठा ले जाता लड़का (फ़ोटो- Getty)
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अभिषेक
29 अप्रैल 2024 (Updated: 29 अप्रैल 2024, 21:21 IST)
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Sugar यानी चीनी का नाम सुनकर आपके मन में दो तरह के ख़याल आते होंगे. पहला, सुस्वादु पकवान या पेय पदार्थ, जिनसे स्वाद इंद्रियां जागृत होती हैं. और दूसरा, मोटापा और मधुमेह जैसी बीमारियों की जड़, जिससे जितना बचा जाए उतना बेहतर. लेकिन इससे बचना इतना भी आसान नहीं है. आज के समय में चीनी के बिना जीवन मुकम्मल नहीं लगता. मगर इस मिठास का दूसरा पहलू बेहद कड़वा है. इतिहास में चीनी के लिए जितना ख़ून बहा, शायद ही किसी और चीज़ के लिए बहा होगा. ग़ुलामों की खरीद-बिक्री से लेकर तख़्तापलट और तानाशाही तक, इसी चीनी के दाने से रचे गए. राजनीतिक फेरबदल का सबसे बड़ा उदाहरण क्यूबा का है. जहां चीनी उद्योग को बचाने के लिए अमेरिका ने अपनी फ़ौज उतार दी थी.

तो, आइए जानते हैं,

- चीनी की पूरी कहानी क्या है?

- और, चीनी ने अमेरिका की पॉलिटिक्स कैसे बदली?

चीनी के दो मुख्य स्रोत हैं.

एक है, चुकंदर जैसे सुगर बीट्स. दूसरा है, सुगर केन यानी गन्ना. ये ज़्यादा पॉपुलर और आसान है. गन्ने के रस को उबालकर उसको केमिकल से साफ़ किया जाता है. इस तरह चीनी मिलती है. जिसका इस्तेमाल खाने से लेकर दवाइयों तक में होता है. आज के दौर में विज्ञान ने काफ़ी तरक्की कर ली है. अब पूरी दुनिया में चीनी बनने लगी है. भारत की बात करें तो, हम खपत के मामले में पहले और बनाने के मामले में दूसरे नंबर पर आते हैं. और, इस प्रक्रिया में वाजिब कीमत भी सुनिश्चित की गई है. हर कोई अफ़ोर्ड कर सकता है. मगर अतीत में ऐसा नहीं था. चीनी किसी लग्ज़री प्रोडक्ट से भी महंगी थी. राजा-महाराजा एकाध किलो चीनी के लिए गिड़गिड़ाया करते थे. उस दौर में चीनी को सफेद सोना कहा जाता था.

क्या है इतिहास?

प्राचीन समय में लोग मिठास के लिए दूध और शहद पर निर्भर थे. पुराने रीति-रिवाजों और मान्यताओं में इनका जिक्र भी मिलता है. दूध और शहद के बिना कोई पूजा पूरी नहीं होती थी. वो परंपरा आज तक कायम है. हालांकि, मिठास का दूसरा विकल्प मिल चुका है.

ये कैसे मिला?

10 हज़ार ईसापूर्व में पापुआ न्यू गिनी में गन्ने की खोज हुई. पापुआ न्यू गिनी ऑस्ट्रेलिया के उत्तर में बसा है. जब वहां के लोगों ने गन्ने को चबाता तो उन्हें बड़ा अचंभा हुआ. जिसको वे घास समझ रहे थे, उसमें मीठापन भरा हुआ था. धीरे-धीरे ये उनके भोजन का हिस्सा बन गया. कालांतर में ये गन्ना व्यापारिकों के ज़रिए भारत तक पहुंचा. एक हज़ार ईसापूर्व के आसपास भारत में गन्ने के रस से ठोस चीनी बनाने की तरक़ीब खोजी गई. इसने सुगर इंडस्ट्री को हमेशा के लिए बदल दिया. गन्ना भारी होता था. ज़्यादा जगह लेता था. उसको बहुत दिनों तक स्टोर नहीं किया जा सकता था. चीनी के आविष्कार ने सारी समस्याओं को एक झटके में सुलझा दिया. हालांकि, भारतीय शासकों ने इस तरक़ीब को लंबे समय तक दुनिया से छिपाकर रखा. फिर छठी शताब्दी ईसापूर्व में पर्शिया के राजा डारियस प्रथम ने भारत पर हमला किया. उसके साथ गन्ना और चीनी बनाने की तकनीक पर्शिया तक पहुंची. डारियस के दौर में गन्ना पूरे मिडिल-ईस्ट में उपजाया जाने लगा.

फिर सातवीं सदी में अरबों ने पर्शिया पर आक्रमण किया. उन्हें साम्राज्य के साथ-साथ चीनी भी मिली. इसके बाद अरब जहां कहीं गए, अपने साथ गन्ना और चीनी की टेक्नोलॉजी भी लेकर गए. इस तरह चीनी मोरक्को और स्पेन तक पहुंच गई.

11वीं सदी के अंत में क्रूसेड यानी धर्मयुद्ध शुरू हुआ. यूरोप के ईसाइयों और मुस्लिमों के बीच. ये लड़ाई मिडिल-ईस्ट तक फैली. उस दौर में यूरोपियन्स का पहली बार चीनी से साबका पड़ा. उन्हें पता चला कि एक सफेद चीज़ है, जो पानी में अपने आप घुल जाती है. और, इससे शरीर को तत्काल एनर्जी मिलती है. उसी समय बहुत सारे यूरोपियन सैनिकों की मौत डायरिया से हो रही थी. चीनी वाले ड्रिंक ने कइयों की जान बचाने में मदद की. इससे चीनी की ख्याति यूरोप में फैलने लगी. तब भी ये सबकी पहुंच में नहीं थी. इसकी दो बड़ी वजहें थीं,

इतिहास में ईसाई और मुसलामानों के बीच कई लड़ाईयां हुई हैं . (फ़ोटो -Getty)

- पहली, गन्ने की खेती में मेहनत बहुत लगती थी. फसल की रोपाई से लेकर कटाई तक में ताक़तवर मज़दूरों की ज़रूरत थी. मगर यूरोप के लोग मज़दूर के तौर पर काम करने से परहेज करते थे.

- दूसरी बात, गन्ने को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना मुश्किल काम था. इसलिए, जहां पर खेती होती थी, वहीं पर चीनी के प्रोडक्शन के लिए फ़ैक्ट्री लगानी पड़ती थी. मगर ये भी मज़दूरों की कमी के चलते संभव नहीं था.

इस बीच यूरोप में चीनी की मांग कई गुणा बढ़ चुकी थी. लेकिन सप्लाई कम थी. इसके चलते क़ीमत दिन दूनी रात चौगुनी की रफ़्तार से बढ़ने लगी. इसलिए, जल्द से जल्द नया सोर्स ढूंढ़ना ज़रूरी हो गया था. तभी एक चमत्कार हुआ. 15वीं सदी में ‘ऐज ऑफ़ डिस्कवरी’ की शुरुआत हुई. यूरोप के ताक़तवर राजा-महाराजा खोजियों को जहाज में बिठाकर समंदर में भेजने लगे. नई ज़मीन की तलाश करने के लिए. इसी क्रम में 1492 ईसवी में पुर्तगाली खोजी क्रिस्टोफ़र कोलम्बस हिस्पेनियोला द्वीप पहुंचा. ये द्वीप कैरेबियन सागर में बसा है. इसपर दो देश बसे हैं. पूरब की तरफ़ है, डोमिनिकन रिपब्लिक. जबकि पश्चिम में हेती है.

कोलम्बस ने आगे जाकर अमेरिका और क्यूबा समेत कई और देशों का रास्ता यूरोप के लिए खोला. कोलम्बस इटली में पैदा हुआ था. उसको एशिया पहुंचने का एक छोटा रास्ता तलाश करने की धुन चढ़ी थी. कोलम्बस को असल में भारत और चीन पहुंचना था. भारत की समृद्धि के किस्से तब दूर-दूर तक पसरे हुए थे. मसालों का यश दुनियाभर में फैला था. सोने की भी बड़ी चर्चा थी. कोलम्बस को भारत पहुंचने का समुद्री मार्ग खोजना था. उसने पुर्तगाल, फ़्रांस और ब्रिटेन को मनाने की कोशिश की थी. ताकि कोई उसकी समुद्री यात्राओं का खर्च उठाने को तैयार हो जाए. मगर निराशा हाथ लगी. आखिरकार कोलंबस स्पेन पहुंचा. वहां के राजा फर्डिनेंड और रानी इसाबेला स्पॉन्सर करने के लिए राजी हो गए. उन्हें लगा कि अगर कोलंबस ने ऐसा कर दिखाया, तो एशिया के साथ मसालों के कारोबार का नया मार्ग शुरू हो जाएगा. उन्होंने कोलम्मबस से वादा किया. अगर कोई नई जगह मिलती है, तो उसको वहां का गर्वनर बना देंगे. जो भी दौलत वो स्पेन लाएगा, उसका 10 फीसद हिस्सा भी उसको मिलेगा.

उसका पहला टूर काफ़ी सफल रहा. मार्च 1493 में कोलम्बस वापस स्पेन पहुंचा. वहां उसका भव्य स्वागत हुआ. सितंबर 1493 में वो दूसरे टूर पर निकला. उसका मकसद खोजे गए द्वीपों के मूल निवासियों को ईसाई बनाना था. इसी टूर पर वो अपने साथ गन्ना लेकर गया. फिर कैरेबियन द्वीपों में एक्सपेरिमेंट के तौर पर गन्ने की खेती शुरू हुई. एक्सपेरिमेंट सफल रहा. वहां गन्ना सर्वाइव कर गया. इसने स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ़्रांस जैसे औपनिवेशिक देशों को चौकन्ना कर दिया. वे इस खोज का फ़ायदा उठाने के लिए भागे. उन्होंने कैरेबियन और साउथ अमेरिका की कॉलोनियों में गन्ने की खेती शुरू की. लेकिन मज़दूरों की ज़रूरत तो वहां भी थी. इसके लिए स्थानीय लोगों को मजबूर किया गया. मगर अधिकतर लोगों ने इसका विरोध किया. उनकी हत्या करवा दी गई. बाकी लोग यूरोपियन्स के संपर्क में आकर बीमारियों से मर गए. जो बच गए, वे कहीं छिपकर रहने लगे.

प्राचीन हैती की सांकेतिक तस्वीर  (फ़ोटो - Getty)

जब मज़दूरों की शॉर्टेज़ हुई, तब औपनिवेशिक देशों का ध्यान अफ़्रीका महाद्वीप की तरफ़ गया. वहां ग़ुलाामों का व्यापार ज़ोर पकड़ रहा था. जब तक ग़ुलामी प्रथा चली, तब तक अफ़्रीका से कम से कम सवा करोड़ लोगों को जबरन यूरोप की कॉलोनियों में काम करने के लिए भेजा गया. इनमें से 70 फीसदी लोग गन्ने के खेतों में काम करते थे. वहां उन्हें उनकी मौत तक काम करवाया जाता था. एक-तिहाई लोग प्लांट पर पहुंचने के तीन बरस के भीतर दम तोड़ देते थे. यूरोपियन्स का ज़ोर पुराने ग़ुलामों को बचाने की बजाय नए ग़ुलामों को खरीदने पर रहता था. ये पूरा खेल पैसे का था. इसमें इंसानी ज़िंदगी और पीड़ा के लिए कोई जगह नहीं थी. 1787 में ब्रिटेन के मानवाधिकार कार्यकर्ता विलियम फ़ॉक्स की लिखी बात एकदम सटीक बैठती थी. उन्होंने लिखा था, मीठी चाय का हर एक प्याला इंसानी ख़ून के धब्बों से सना है.

18वीं सदी के अंत में यूरोप में ग़ुलामी-प्रथा की मुख़ालफ़त होने लगी थी. आख़िरकार, 1807 में ब्रिटेन ने अपने यहां ग़ुलामों की खरीद-बिक्री पर बैन लगा दिया. 1833 तक बैन उसकी कॉलोनियों पर भी लागू हुआ. मगर मज़दूरों की ज़रूरत बरकरार थी. इसके लिए ब्रिटेन नया सिस्टम लेकर आया. भारत में ग़रीबी बढ़ी हुई थी. लोग कोई भी काम करने के लिए तैयार थे. उनको नौकरी और बेहतर भविष्य का लालच देकर विदेशों में भेजा जाने लगा. ये सब एक कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम के तहत होता था. लेकिन असलियत काफ़ी अलग थी. प्लांटेशन पर उनका ज़बरदस्त शोषण होता था. उन्हें पूरे पैसे नहीं दिए जाते थे, और, कॉन्ट्रैक्ट पूरा होने पर उनको वापस लौटने भी नहीं दिया जाता था. इसको गिरमिटिया सिस्टम के नाम से जाना जाता है. इस सिस्टम के तहत लगभग 35 लाख भारतीयों को मॉरिशस, फ़िजी, जमैका, गिनी, साउथ अफ़्रीका जैसे देशों में गन्ने की खेती के लिए ले जाया गया. उनके वंशज इन देशों में आज मुकम्मल पहचान हासिल कर चुके हैं. इस सिस्टम पर आख़िरकार 1917 में रोक लगी.

ये तो हुआ चीनी का इतिहास और भूगोल. अब पॉलिटिकल चैप्टर की तरफ़ चलते हैं. कैसे चीनी ने अमेरिका की पॉलिटिक्स को हमेशा के लिए बदल दिया?

क्यूबा मैप (Getty)

कैरेबियन सागर में बसा सबसे बड़ा देश है, क्यूबा. ये अमेरिका के फ़्लोरिडा स्टेट से महज 150 किलोमीटर दूर है. लगभग एक करोड़ 12 लाख की आबादी वाला ये मुल्क सिगार, फ़िदेल कास्त्रो और 1962 के मिसाइल संकट के लिए जाना जाता है. वो मिसाइल संकट, जब सोवियत संघ और अमेरिका के बीच परमाणु युद्ध होते-होते रह गया. दरअसल, सोवियत संघ ने क्यूबा में न्युक्लियर मिसाइलों का बेड़ा तैनात करने का प्लान बनाया था. इसकी भनक अमेरिका को लग गई थी. उसने विरोध किया. और, हमले की चेतावनी दे डाली. बाद में सोवियत संघ पीछे हट गया. मगर इसने क्यूबा और अमेरिका के बीच जो दरार पैदा की, वो कभी नहीं भर पाई. क्यूबा, अमेरिका के सबसे क़रीब बसे देशों में से है. फिर भी दोनों के बीच तनातनी चलती है. हालांकि, हमेशा ऐसे हालात नहीं थे. एक समय अमेरिका और क्यूबा एक-दूसरे के अच्छे वाले दोस्त थे. और, इसकी एक कड़ी चीनी से जुड़ी हुई थी.

क्यूबा लगभग चार बरसों तक स्पेन की कॉलोनी था. स्पेन ने क्यूबा में गन्ने की खेती 16वीं सदी में ही शुरू कर दी थी. मगर वहां तम्बाकू की खेती पर ज़्यादा ज़ोर था. गन्ने की खेती बड़ी मात्रा में क्यूबा के पड़ोस में होती थी. हेती में. हेती 1660 से फ़्रांस की कॉलोनी था. अगस्त 1791 में हेती में ग़ुलामों ने गोरे मालिकों के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया. विद्रोह सफल रहा. हेती को आज़ादी भी मिल गई. मगर वहां का चीनी उद्योग खत्म हो गया. चीनी की एक बड़ी प्रोडक्शन फ़ैक्ट्री बंद पड़ गई थी. जबकि डिमांड लगातार बढ़ती जा रही थी. इसमें क्यूबा को मौका दिखा. उसने अपने यहां चीनी उद्योग को बढ़ाने का प्लान बनाया. उसी दौरान हेती से बड़ी संख्या में गोरे फ़्रेंच भागकर क्यूबा पहुंचे. उनके पास पैसा था. और, प्रोडक्शन बढ़ाने की तकनीक भी थी. अब ज़रूरत थी, मज़दूरों की. इसके लिए फिर से अफ़्रीका महाद्वीप का सहारा लिया गया. जबकि ब्रिटेन और दूसरे यूरोपीय देश ग़ुलामों की खरीद-बिक्री बंद कर रहे थे, स्पेन ने क्यूबा में इसको जारी रहने दिया. इसका उन्हें दोहरा फ़ायदा हुआ. पहला फ़ायदा तो उन्हें पैसे में हुआ. दूसरा फ़ायदा था, वफ़ादारी. ग़ुलामों के ख़ून-पसीने से चीनी उद्योग फल-फूल रहा था. अमेरिका उनका सबसे बड़ा खरीदार था. इस आमदनी का फ़ायदा क्यूबा के स्थानीय लोगों को मिल रहा था. स्पेन ने दिखाया कि ये सब उसकी वजह से हो रहा है. इसलिए, लंबे समय तक उनके ख़िलाफ़ क्यूबा में कोई विद्रोह नहीं हुआ.

पहला बड़ा विद्रोह होते-होते 1868 का साल आ गया. उस बरस 10 अक्टूबर को बगान मालिक कार्लोस डे सीसपिडस ने क्यूबा को आज़ाद घोषित कर दिया. उसका आरोप था कि स्पेन बहुत ज़्यादा टैक्स लगा रहा है. जिसके चलते हमारी आमदनी मर गई है. आज़ादी की घोषणा के अगले ही दिन कार्लोस ने अपने ग़ुलामों को आज़ाद कर दिया. और, स्पेन के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी. उसकी गुरिल्ला सेना ने स्पेन के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन 1874 में कार्लोस जंग के मैदान में मारा गया. उसकी मौत के बाद उसकी सेना अलग-अलग गुटों में बंट गई. बाद में दोनों पक्षों के बीच शांति समझौता हो गया.

दूसरा बड़ा विद्रोह 1895 में शुरू हुआ. इसके नायक थे, होजे मार्ती. मगर शुरुआत में ही उनकी मौत हो गई. हालांकि, उनके बाद के लीडर्स ने विद्रोह जारी रखा. इस बार स्पेन ने ख़तरनाक दमनचक्र चलाया. विद्रोहियों के साथ-साथ आम लोग भी इसमें पिसे. तब विद्रोहियों को अमेरिका से उम्मीद दिखी. उन्होंने स्पेन के अत्याचार की तस्वीरें छिपाकर अमेरिका भेजनी शुरू कीं. उन्हें वहां जोसेफ़ पुलित्ज़र और विलियम हर्स्ट के अख़बारों ने हाथोंहाथ लिया. अमेरिका का प्रेस क्यूबा में स्पेन के शासन के ख़िलाफ़ था. तस्वीरें मिलने के बाद उनका अटैक तेज़ हो गया. प्रेस ने स्पेन के ख़िलाफ़ माहौल बनाना शुरू किया. स्पेनिश जनरलों को कसाई तक लिखा. धीरे-धीरे जनता स्पेन के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करने लगी. इस दबाव का असर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति विलियम मैकन्ली पर भी पड़ा. उन्होंने स्पेन को धमकी दी. बोले, क्यूबा को आज़ाद करो. वरना हम विद्रोहियों को हथियार भेजना शुरू कर देंगे.

जनवरी 1898 में अमेरिका ने अपना जंगी जहाज USS माएन क्यूबा के पास भेज दिया. स्पेन अमेरिका की मांगें मानने की तैयारी में था. मगर स्पेन के अख़बारों ने इसकी आलोचना की. लिहाजा मामला बढ़ता गया.

फिर आई 15 फ़रवरी 1898 की तारीख़. रात के 09 बजकर 40 मिनट पर जहाज में ज़ोर का धमाका हुआ. इसमें 261 अमेरिकी सैनिक मारे गए. धमाके की असली वजह कभी पता नहीं चल सकी. मगर अमेरिका में बहुमत की राय थी कि हमला स्पेन ने किया है. इसलिए, बदला लेना ज़रूरी है. आख़िरकार, अप्रैल 1898 में अमेरिका ने स्पेन के ख़िलाफ़ जंग का एलान कर दिया. मकसद था, क्यूबा को आज़ादी दिलाना.

स्पेन इस लड़ाई में टिक नहीं पाया. उसको क्यूबा पर से अपना दावा छोड़ना पड़ा. मगर आज़ादी अभी भी दूर थी. स्पेन के जाने के बाद अमेरिका ने क्यूबा को अपनी कॉलोनी बना लिया. 1901 में अमेरिका ने अपने सैनिकों को बाहर निकालने का प्लान बनाया. मगर कुछ शर्तों के साथ. क्या थी शर्तें?

- क्यूबा में अमेरिका की संपत्तियों की सुरक्षा की जाएगी.

- अमेरिका जब चाहे, तब क्यूबा में सेना भेज सकता है.

- साथ ही साथ, अमेरिका ने अपने नौसैनिक अड्डों के लिए ज़मीन भी ली. इनमें से एक गुआंतनामो बे भी था.

क्यूबा में अधिकतर लोग इसके ख़िलाफ़ थे. मगर अमेरिका के क़ब्ज़े को खत्म करने का दूसरा कोई विकल्प नहीं था. आख़िर में उन्हें मांगें माननी पड़ी. इस तरह मई 1902 में क्यूबा को आज़ादी मिल गई. हालांकि, उसपर अमेरिका का साया मंडराता रहा.

क्यूबा में अमेरिका का एक और बड़ा लालच था, वहां का चीनी उद्योग. क्यूबा की आज़ादी के वक़्त चीनी मुल्क का सबसे पॉपुलर प्रोडक्ट था. क्यूबा के निर्यात का 80 फीसदी हिस्सा चीनी था. उसमें से भी अधिकतर निर्यात अमेरिका पहुंचता था.

अमेरिका ने क्यूबा के साथ जो समझौता किया था, उसमें चीनी का क़ोटा भी तय किया गया था. समझौते के तहत, क्यूबा हर साल तयशुदा अमाउंट में चीनी अमेरिका को भेजता रहेगा. इसने क्यूबा को सिक्योरिटी तो दी. मगर इस चक्कर में उसका फ़ोकस गन्ने पर शिफ़्ट हो गया. बाकी फसलों को कोई तरजीह नहीं दी गई. इस तरह उनका भविष्य चीनी की डिमांड पर निर्भर रहने लगा.

1962 में क्यूबन मिसाइल क्राइसिस के बाद अमेरिका और क्यूबा के रिश्ते ख़राब हो गए (फोटो - Getty)

फिर आया 1906 का साल. अमेरिका ने क्यूबा में अराजकता का बहाना बनाकर सेना उतार दी. उनका मुक़ाबला करने के लिए कोई नहीं था. क्यूबा की चुनी हुई सरकार हटा दी गई. जानकार कहते हैं, अमेरिका का मकसद कुछ और था. क्यूबा उस वक़्त चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक देश था. और, अमेरिका को अपने बिजनेस इंटरेस्ट की रक्षा करनी थी. इसलिए, उसने सेना भेजी थी.

क्यूबा में अमेरिका के वर्चस्व ने अमेरिकी कंपनियों के लिए कमाई का नया दरवाज़ा खोल दिया था. इनमें से एक कंपनी थी, यूनाइटेड फ़्रूट. ये सेंट्रल और साउथ अमेरिका में केले के व्यापार के लिए जानी जाती थी. केला भी उस वक़्त लग्ज़री प्रोडक्ट था. केले पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए यूनाइटेड फ़्रूट ने कई देशों में तख़्तापलट करवाया. और, अपनी पसंद के शासकों को गद्दी पर बिठाया. ऐसे देशों के लिए एक टर्म का ईज़ाद हुआ, बनाना रिपब्लिक. इसी यूनाइटेड फ़्रूट कंपनी ने क्यूबा में चीनी उद्योग में हाथ आजमाया. उसने क्यूबा में ख़ूब फ़ायदा कमाया. कई प्रांतों की सरकारें उसकी मुट्ठी में थीं. ये 1909 में अमेरिकी सैनिकों के निकलने के बाद भी बना रहा.

फिर आया 1914 का साल. दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ. जंग सिर्फ़ मैदानों में ही नहीं लड़ी जा रही थी. समंदर में भी हो रही थी. इसके चलते सप्लाई रूट प्रभावित हुआ. नतीजतन, चीनी की सप्लाई ठप पड़ गई. इस जंग में क्यूबा को मौका दिखा. वहां लड़ाई का असर नहीं था. उसने चीनी का प्रोडक्शन बढ़ा दिया. इसके लिए गन्ने की खेती बढ़ाई गई. दूसरी फसलों को खत्म करके गन्ने के लिए ज़मीन तैयार की गई. विश्वयुद्ध के दौरान चीनी की कीमतें सात गुणा तक बढ़ चुकीं थी. इसका उन्हें ज़बरदस्त लाभ मिला. उस समय क्यूबा को दुनिया का सबसे अमीर देश कहा जाने लगा था. मगर जैसे ही जंग खत्म हुई, सारा वैभव अर्श से फर्श पर आ गया. सप्लाई लाइन खुल चुकीं थी. बाकी देश भी चीनी की सप्लाई कर रही थी. जिसके चलते चीनी की भरमार हो गई. और फिर वही हुआ जो होना था. कीमत क्रैश कर गई. अमेरिकी कंपनियों ने तो अपना सिर बचा लिया. उन्हें अमेरिकी सरकार का सपोर्ट था. मगर क्यूबा की लोकल कंपनियों को बड़ा झटका लगा. 

तब जाकर क्यूबा ने चीनी पर से निर्भरता कम करने की कोशिश शुरू की. हालांकि, इस कोशिश में वे बहुत सफल नहीं हुए. 1929 की आर्थिक मंदी ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. उसके बाद अमेरिका ने क्यूबा से आयात पर कई प्रतिबंध लगा दिए. इसके चलते क्यूबा में आर्थिक संकट पैदा हुआ. नतीजतन, 1933 में सैन्य तख़्तापलट हुआ. अगले ढाई दशकों तक क्यूबा में सैन्य सरकारों का आना-जाना लगा रहा. इसी के ख़िलाफ़ फ़िदेल कास्त्रो ने विद्रोह किया. वो क्रांति जनवरी 1959 में सफल हुई. कास्त्रो ने सभी कंपनियों को नेशनलाइज़ कर दिया. धीरे-धीरे कास्त्रो का झुकाव सोवियत संघ की तरफ़ बढ़ने लगा. 1962 में क्यूबन मिसाइल क्राइसिस के बाद अमेरिका ने ट्रेड एम्बार्गो लगा दिया. अमेरिका ने चीनी का आयात बंद कर दिया. चीनी मिलों की मशीनरी की सप्लाई भी रोक दी. जिसके चलते क्यूबा को सोवियत संघ पर निर्भर होना पड़ा. लेकिन ये मुनाफ़े का सौदा नहीं था. 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद ये और नीचे गया. मौजूदा समय में क्यूबा की सुगर इंडस्ट्री घुटनों के बल चल रही है.

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