रूस के इस गड्ढे को क्यों कहते हैं 'नर्क का दरवाज़ा'?
धरती के अन्दर १२ हजार मीटर गहरा गड्ढा, 20 सालों की मेहनत को सील क्यों करना पड़ा?
बड़े लोग बता गए, अंदर खोजो, असली खज़ाना वहां हैं. लेकिन चमक बाहर थी. इसलिए हमने बनाए रॉकेट और निकल पड़े तारों की, आकाशगंगाओं की खोज में. हमने चांद पर गाड़ा झंडा और तान दी एक दूरबीन. ताकि देख सकें ब्रह्माण्ड की असीम गहराइयों में. यात्रा जारी है. और किसी दिन शायद हम अंतरिक्ष के अंतिम छोर तक भी पहुंच जाएं. लेकिन अंदर का क्या?
अंदर से यहां हमारा मतलब धरती के अंदर से है. बचपन में आपने पढ़ा होगा. धरती की तीन परतें हैं.सबके अंदर की परत को कहते हैं कोर. जिसमें भरा है खौलता उबलता लावा. लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि ये बात हमें पता कैसे चली? क्या किसी ने धरती के अंदर जाकर देखा वहां क्या है? जवाब है नहीं. लेकिन ऐसा इसलिए नहीं कि हमने कोशिश नहीं की.
(Kola Superdeep Borehole)
सुदूर आर्कटिक में. घने जंगलों और बर्फ की चादर की ढकी जमीन के बीच वीराने में एक उजड़ा हुआ रिसर्च स्टेशन है. आज यहां बस जंग लगी टीन की चादरें और टप्पर है. इन सब के बीच कंक्रीट की जमीन पर धातु का एक ढक्कन बना है. 12 बोल्टों से बंद किया हुआ. चौड़ाई लगभग एक पिज़्ज़ा के बराबर. स्थानीय लोग कहते हैं कि ये नर्क का दरवाज़ा है. इसका असली नाम है, ‘कोला सूपरडीप बोरहोल’- इंसान का बनाया सबसे गहरा गड्ढा जो धरती के अंदर 12.26 किलोमीटर तक जाता है. एक के ऊपर एक 15 बुर्ज़ खलीफा खड़े किए जाएं, उतना गहरा. (World Deepest Hole)
एक लड़ाई आसमान में, एक धरती के अंदरइस कहानी की शुरुआत हुई थी साल 1960 के दशक में. कोल्ड वॉर का दौर. अमेरिका और सोवियत संघ में एक रेस चल रही थी. कौन पहले अंतरिक्ष में पहुंचेगा. हालांकि एक रेस और भी थी, जिसके बारे में उतनी चर्चा नहीं होती.- धरती के अंदर पहुंचने की रेस. स्पेस की रेस में पहले बाज़ी मारी सोवियत संघ ने. वहीं धरती के अंदर खुदाई का कारनामा पहले अमेरिका ने किया. 1960 के दशक में वैज्ञानिकों का एक ग्रुप जिसका नाम अमेरिका मिसलेनियस सोसायटी था, उसने एक नए प्रोजेक्ट की शुरुआत की. जिसका नाम था प्रोजेक्ट मोहोल. प्रोजेक्ट मोहोल का क्या अंजाम निकला, उसके पहले कुछ बचपन के विज्ञान के पाठ दोहरा लेते हैं.
केंद्र से नापें तो इस धरती की मोटाई 6378 किलोमीटर है. जो तीन परतों में बंटी हुई है.
क्रस्ट - सबसे बाहरी परत, जो दो प्रकार की चट्टानों से बनी हुई है. ग्रेनाइट और बेसॉल्ट. क्रस्ट की मोटाई 40 किलोमीटर के बराबर है.
क्रस्ट के बाद शुरू होती है दूसरी परत. जिसे मेंटल कहते हैं. मेंटल की मोटाई है-2900 किलोमीटर.
मेंटल के बाद शुरू होता है कोर. जो दो हिस्सों में बंटा है. बाहरी कोर जो करीब 2200 किलोमीटर चौड़ी परत है. ये परत लिक्विड मेटल की बनी है. इसके बाद अंदरूनी कोर है. जो ठोस धातु का बना है. और इसकी चौड़ाई है, 1280 किलोमीटर. यहां तापमान सूर्य की सतह के बराबर पहुंच जाता है. लगभग 6 हजार डिग्री सेल्सियस.
प्रोजेक्ट मोहोल पर लौटते हैं. जिस प्रकार स्पेस रेस का लक्ष्य चन्द्रमा तक पहुंचना था. प्रोजेक्ट मोहोल का उद्देश्य क्रस्ट में खुदाई कर मेंटल तक पहुंचना था. ताकि पता किया जा सके कि वहां क्या है. हालांकि भूकंप आदि के डेटा से वैज्ञानिकों ने पता लगाया है, कि अंदर लिक्विड मेटल है. लेकिन इसका पक्का प्रूफ हासिल करने के लिए जरूरी है हम मेंटल के कुछ सैम्पल हासिल कर सकें. तो इसी दिशा में 1961 में अमेरिका ने ग्वाडालुपे मेक्सिको में प्रशांत महासागर के अंदर खुदाई शुरू की.
दिक्कतें काफी थीं. समंदर की सतह पर ड्रिलिंग के लिए जो शिप लगाई जाती है, उसे स्टेबल करना ही अपने आप में काफ़ी मुश्किल था. तब शिप के चारों तरफ प्रोपेलर यानी बड़े-बड़े पंखे लगाकर जुगाड़ बनाया गया. प्रोजेक्ट मोहोल के पहले फेज़ में वैज्ञानिक 183 मीटर अंदर तक खुदाई करने में सफल रहे लेकिन फिर 1967 में इस प्रोजेक्ट को यहीं रोक दिया गया. मामला शायद रोकड़े का था. क्योंकि इतनी खुदाई में ही 32 सौ करोड़ का खर्चा आ गया था. इस खुदाई से कुछ ज्यादा तो हासिल न हुआ लेकिन इस नाकामी में भी एक जीत छुपी थी.
इस खुदाई के दौरान विकसित हुई तकनीक आगे जाकर तेल की खुदाई में काम आई. प्रोजेक्ट मोहोल बंद होने के बाद 1972 में एक बार फिर कोशिश हुई. ओक्लाहोमा राज्य में दो ही सालों के अंदर वैज्ञानिक 9,583 मीटर की गहराई तक खोदने में कामयाब हो गए. ये तब एक रिकॉर्ड था. इससे नीचे जाना मुश्किल था. इसलिए खुदाई को यहीं रोक दिया गया. अब बारी थी सोवियत संघ की
अब बारी थी सोवियत संघ कीसोवियत वैज्ञानिकों ने रूस और नॉर्वे बॉर्डर के पास एक जगह चुनी जिसका नाम कोला था. खुदाई शुरू हुई आज ही के रोज़ यानी 24 मई 1970 को. कुछ ही सालों में वैज्ञानिक 7 किलोमीटर गहराई तक पहुंच गए. लेकिन फिर यहां से चीजें मुश्किल होती गई. जैस- जैसे गहराई बढ़ी, चट्टानों का घनत्व बढ़ा. इससे ड्रिल बिट्स मुड़ने और टूटने लगीं. कई बार ऐसा हुआ कि ड्रिल की दिशा जरा बदलने से खुदाई आड़ी- तिरछी होने लगी. हर बार ऐसा होने पर नए सिरे से खुदाई करनी होती. ताकि सीध बरकरार रख सकें.
7 किलोमीटर से गहरे जाना मुश्किल काम था. इसके लिए ड्रिलिंग के लिए विशेष उपकरण लाए गए. मसलन ऐसी ड्रिल्स जिनमें सिर्फ मुहाने पर लगी बिट घूमती थी. 70 RPM की गति से घूमती इस बिट के ऊपर एक दूसरी ड्रिल के जरिए लुब्रिकेंट डाला जाता, ताकि उसे ठंडा रखा जा सके. ये काम एकदम धीरे-धीरे करना होता था, इसलिए कोला सूपरडीप बोरहोल की खुदाई में करीब दो दशक तक का वक्त लग गया. 1989 तक वैज्ञानिक 12 किलोमीटर की गहराई तक पहुंच गए.
ये अब तक खोदी गई सबसे अधिक गहराई थी. इसके बावजूद ये धरती की कुल गहराई का केवल 2 % था. जबकि क्रस्ट की गहराई का भी केवल एक तिहाई नाप पाए थे और मेंटल तक पहुंचने के लिए अभी भी 28 किलोमीटर खोदना था. 1989 से 1992 तक वैज्ञानिकों ने कोशिश जारी रखी लेकिन वो सिर्फ 200 मीटर और गहरा जा पाए. जिसके बाद खुदाई रोक दी गयी.
खुदाई क्यों रोकी गई?कई कारण थे. सबसे पहले एक तथाकथित कारण को जानते हैं जो अपनी प्रकृति में कुछ मिथकीय है. लेकिन कहानी है बहुत मजेदार. साल 1989 की बात है. एक अमेरिकी न्यूज़ चैनल ट्रिनिटी में एक खबर दिखाई गयी. कहानी कुछ यूं थी. 1989 में मिस्टर एज़ाकोव नाम के वैज्ञानिक की लीडरशिप में साइबेरिया के पास एक सुरंग खोदी गयी. जो धरती में 14 किलोमीटर अंदर तक जाती थी. अंत में मिस्टर एज़ाकोव ने इस सुरंग में एक माइक्रोफोन डाला तो उन्हें वहां लोगों के चीखने चिल्लाने की आवाजें सुनाई दी. जैसे ही अमेरिका में ये खबर प्रसारित हुई, धार्मिक लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि नर्क असली है.
इसके कुछ साल बाद ट्रिनिटी न्यूज़ चैनल के पास नॉर्वे के एक स्कूल टीचर का खत आया. खत में लोकल अखबारों की कुछ कटिंग नत्थी थी. जिसमें दावा किया गया था कि सुरंग से न केवल आवाजें आती थीं बल्कि किसी ने वहां से चमगादड़ नुमा आकृति को निकलते देखा था. चैनल ने बिना जांच किए इस खबर को भी चला दिया. और इस तरह एक मिथक की शुरुआत हो गई. इस मिथक में जो थोड़ा सा सच का पुट है, वो एक जर्मन सुरंग से जुड़ा है. साल 1990 में जर्मनी में एक ऐसी ही सुरंग खोदी गई थी. जो 6 किलोमीटर तक ही पहुंच पाई. बीबीसी का एक आर्टिकल बताता है कि इस सुरंग में जरूर माइक्रोफोन ने कुछ आवाजें कैद की थीं. लेकिन वो इंसानों की नहीं बल्कि गड़गड़ाहट की आवाज थी.
बहरहाल ऐसी ही कहानियों के चलते कोला बोरहोल के साथ भी मिथक जुड़ गया कि ये नर्क का दरवाज़ा है इसलिए इसे बंद कर दिया गया. जबकि असलियत इससे कोसो दूर थी.
वैज्ञानिक जब 12 किलोमीटर की गहराई तक पहुंचे उन्होंने पाया कि वहां तापमान 180 डिग्री है. जबकि वैज्ञानिक गणनाओं के अनुसार तापमान 100 डिग्री होना चाहिए था. इस तापमान में ड्रिलिंग उपकरणों का काम करना तो मुश्किल था ही. साथ ही इतने तापमान और प्रेशर के कारण बेसॉल्ट चट्टानें प्लास्टिक की तरह बर्ताव करने लगीं. जिससे उनमें ड्रिलिंग करना लगभग नामुमकिन हो गया. और इसे रोकना पड़ा.
खुदाई रोकने का एक और पॉलिटकल कारण भी था. 1990 में सोवियत संघ का विघटन हुआ. जिसके कारण इतने महंगे प्रोजेक्ट की फंडिंग रोक दी गई. 2005 तक कोला सूपरडीप बोरहोल की जगह पर एक रिसर्च स्टेशन बना हुआ था. लेकिन फिर इसे पूरी तरह छोड़ दिया गया. और बोरहोल को एक ढक्कन से बोल्ट लगाकर बंद कर दिया गया. अब अंत में जानिए इस खुदाई से हमें हासिल क्या हुआ?
खोदा पहाड़ निकला चूहा लेकिन काम कामुख्य रूप से चार बातें पता चलीं.
-पहली- वैज्ञानिकों को अहसास हुआ कि उन्हें धरती के टेम्प्रेचर मॉडल्स में बदलाव करना पड़ेगा. क्योंकि 12 किलोमीटर की गहराई पर जितनी उन्हें उम्मीद थी वहां उससे कहीं ज्यादा तापमान था.
-दूसरी बात- माना जाता था कि अर्थ के क्रस्ट में एक निश्चित गहराई के बाद ग्रेनाइट चट्टाने ख़त्म हो जाती हैं. और बेसॉल्ट चट्टानें शुरू होती हैं. वैज्ञानिकों ने पाया कि ऐसी कोई बाउंड्री वहां मौजूद नहीं है.
-तीसरी और खास बात थी- इतनी गहराई पर पानी का मिलना. माना जाता था कि एक निश्चित गहराई के बाद चट्टानें इतनी घनी हो जाती हैं कि पानी उससे नीचे नहीं जा सकता. जबकि ये बात गलत साबित हुई
चौथी बात- कई किलोमीटर गहराई पर वैज्ञानिकों को जीवाश्म मिले. जो 200 करोड़ साल पुराने थे. इतने प्रेशर और तापमान पर इन जीवाश्मों का बचे रहनां वैज्ञानिकों के एक आश्चर्यजनक खोज थी.
वर्तमान में जापनी तट के पास समंदर के अंदर खुदाई का एक प्रोजेक्ट चल रहा है. जिसे लेकर वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि वो धरती की मेंटल सतह तक पहुंचने में कामयाब हो जाएंगे. खास बात ये है कि जिस जगह पर ये खुदाई चल रही है. वहां धरती का क्रस्ट केवल 6 किलोमीटर गहरा है. अगर वैज्ञानिक इस गहराई को पार कर पाए तो सम्भव है हम पहली बार मेंटल के राज़ जान पाएंगे. लेकिन ये धीमी प्रक्रिया है. 2021 में ये परियोजना शुरू हुई थी. और अभी भी अपने शुरुआती चरणों में है. वक्त लगना लाज़मी है क्योंकि बड़े बुज़ुर्गों ने यूं ही नहीं कहा था जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ. अंदर की खोज बाहरी खोज से हमेशा ही मुश्किल होती है.
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