एक छोटी सी गलती ने गिरा दी दुनिया की सबसे मशहूर दीवार
क्यों बनी और कैसे गिरी बर्लिन की दीवार?
59 साल की आइडा सीकमैन नर्स का काम करती थी. आम औरत, आम ज़िंदगी. फिर आई एक तारीख. एक रात सीकमैन सोकर उठीं और सब कुछ बदल चुका था. सीकमैन का घर एक बंटवारे की दहलीज बन गया था. मने जिस बिल्डिंग में सीकमैन रहती थी, वो एक देश में थी और उसका दरवाजा दूसरे देश में खुलता था. हालांकि ये व्यवस्था नई नहीं थी. नया ये हुआ था कि देश के हाकिमों ने एक दीवार खड़ी करने का ऐलान कर दिया था. इस पार से उस पार कोई नहीं जा सकेगा. (Berlin Wall)
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सीकमैन का घर ठीक सीमा के बीचों-बीच था. लिहाज़ा उसके दरवाजे सील कर दिए गए. लोग दूसरी तरफ जाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. एक रास्ता ढूंढा गया. बिल्डिंग के नीचे कुछ लोग चादर फैलाकर खड़े हो गए. जिसमें कूदकर लोग दूसरी तरफ जा सकते थे. सीकमैन का घर चौथे माले पर था. कूदना मुश्किल था. ऊपर से उनकी उम्र ज्यादा थी. उन्होंने तीन दिन इंतजार किया. लेकिन फिर और इंतज़ार न कर पाई. उस पार पहुंचने की जद्दोजहद में उन्होंने अपना सामान खिड़की से बाहर फेंका और फिर खुद भी कूद गई. चादर फैलाई हुई थी लेकिन वो काम ना आई. सीकमैन का सिर जमीन से टकराया. और उनकी मौत हो गई. (Fall of Berlin Wall)
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आइडा सीकमैन पहली शख़्स थीं जो बर्लिन की दीवार के चलते मारी गई. आने वाले सालों में ऐसे डेढ़ सौ से ज़्यादा लोग थे, जो इस दीवार को पार करने की कोशिश में मरे या मार दिए गए. आज आपको बताएंगे कहानी बर्लिन की मशहूर या शायद कहना चाहिए कुख्यात दीवार की. क्यों बनाई गई थी बर्लिन की दीवार. कैसे हुआ जर्मनी का बंटवारा और कैसे एक छोटी सी गलती इस दीवार के गिरने का कारण बनी? चलिए जानते हैं. ((Berlin Wall Germany)
Germany का बंटवाराइस कहानी की शुरुआत होती है साल 1945 में. द्वितीय विश्व युद्ध (World War II) में जर्मनी की हार हुई. बड़ा सवाल था, आगे जर्मनी का क्या होगा. मित्र राष्ट्रों ने मिलकर एक योजना बनाई. जर्मनी को चार हिस्सों में बांट दिया गया. चार हिस्से-चार देशों के कंट्रोल में. फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत रूस. आगे चलकर फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन तो दोस्त बने रहे. लेकिन सोवियत रूस और पश्चिम के बीच एक नई कोल्ड वॉर शुरू हो गई. लिहाज़ा चार हिस्सों में बंटा जर्मनी, प्रैक्टिक्ली दो हिस्सों में बंट गया. दो नए देश.
एक हिस्से को नाम मिला, Federal Republic of Germany. आम तौर पर इसे वेस्ट जर्मनी बुलाया जाता था. ये हिस्सा अमेरिका, फ़्रांस और ब्रिटेन के कंट्रोल में रहा. जबकि दूसरे हिस्से को नाम दिया गया, german democratic republic. शॉर्ट में GDR या ईस्ट जर्मनी. जो सोवियत रूस के कंट्रोल में था. कोल्ड वॉर के दिन थे. इसलिए वेस्ट जर्मनी का भविष्य अमेरिका की साख का सवाल था. लिहाज़ा यहां खूब पैसा झोंका गया. जमकर विकास हुआ. जबकि ईस्ट जर्मनी की मूल्यवान सम्पत्ति उठाकर मॉस्को भेज दी गई. ईस्ट जर्मनी पिछड़ने लगा.
शुरुआत में ईस्ट जर्मनी और वेस्ट जर्मनी के बीच कोई पक्का बॉर्डर नहीं था. दोनों देशों के लोग एक दूसरे के दोस्त थे. रिश्तेदार थे. इसलिए आना-जाना लगा रहता था. लेकिन फिर धीरे-धीरे ये आना-जाना पलायन में तब्दील हो गया. बेहतर ज़िंदगी की तलाश में ईस्ट जर्मनी के लोग वेस्ट जर्मनी जाने लगे. 1949 से 1961 के बीच 30 लाख लोग ईस्ट जर्मनी से वेस्ट जर्मनी चले गए. इनमें अधिकतर वो थे, जो वर्कफोर्स का हिस्सा थे. पढ़े लिखे, काम करने वाले जवान लोग जो काम की तलाश में थे. इनके जाने से ईस्ट जर्मनी को तगड़ा झटका लगा. इसलिए 1961 में सोवियत संघ के नेताओं ने इस पलायन को रोकने के लिए एक योजना बनाई. अगस्त महीने में एक रोज़ जब लोग सोकर उठे, उन्होंने देखा कि हज़ारों सैनिक ईस्ट और वेस्ट जर्मनी की सीमा पर क़तार बनाकर खड़े हो गए हैं. रातों रात ईस्ट जर्मनी से वेस्ट जर्मनी जाने पर रोक लगा दी गई थी. सीमा पर तार बाड़ लगाकर उसे पूरी तरह बंद कर दिया. हालांकि ईस्ट जर्मनी के लोगों के पास वेस्ट जर्मनी जाने का एक रास्ता अभी भी बचा था.
ये रास्ता बर्लिन से होकर जाता था. अब बर्लिन की कहानी थोड़ी पेचीदा थी. बर्लिन जर्मनी की राजधानी हुआ करता था. लेकिन वो पड़ता था पूरी तरह ईस्ट जर्मनी के अंदर. वेस्ट जर्मनी बर्लिन को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था. इसलिए समझौता हुआ कि बर्लिन के भी दो हिस्से होंगे. ईस्ट बर्लिन और वेस्ट बर्लिन. ये कहने को दो शहर थे लेकिन लोग यहां से वहां जाने को आज़ाद थे. ये आजादी तब भी बरकरार रही, जब बाक़ी देश में आवाजाही पर रोक लग गई थी. ईस्ट जर्मनी के लोगों ने इसका फायदा उठाया. लोग पहले ईस्ट बर्लिन आते, वहां से वेस्ट बर्लिन. वेस्ट बर्लिन से एक ट्रेन सीधा वेस्ट जर्मनी तक जाती थी. लोग इसका इस्तेमाल कर पलायन करने लगे.
Berlin की दीवार कैसे बनी?इस परेशानी से निजात पाने के लिए सोवियत सरकार ने निर्णय लिया कि शहर के बीचों बीच एक दीवार खड़ी कर दी जाएगी. इस तरह नींव पड़ी बर्लिन की दीवार की. हालांकि जिसे हम बर्लिन की दीवार कहते हैं. वो एक वचन की बजाय बहुवचन थी. 155 किलोमीटर की लम्बाई में आमने सामने कंक्रीट की दो दीवारें खड़ी की गई थी. जिनकी ऊंचाई थी-13 फ़ीट . दोनों दीवारों के बीच 100 मीटर की जगह छोड़ी गई थी, जिसे जर्मन लोग एक ख़ास नाम से बुलाते थे - डेथ ट्रैप. डेथ ट्रैप क्यों?
क्योंकि कोई शख़्स अगर 13 फ़ीट ऊंची दीवार किसी तरह पार कर ले तो उसे इस 100 मीटर चौड़ाई वाली जगह को पार करना होता था. जहां चप्पे-चप्पे पर सिपाही दिन रात पहरा दिया करते थे. किसी को भी देखते ही गोली मारने के आदेश था. इनसे बच गए तो लैंड माइंस बिछी हुई थीं. और ट्रिप वायर लगे थे, जिन्हें छूते ही मशीन गन की गोलियां चलने लगती थीं. इस डेथ ट्रैप को पार करना लगभग नामुमकिन था. लेकिन फिर भी कई लोग थे, जिन्हें ये दीवार रोक नहीं पाई.
1961 से 1989 के बीच एक लाख से ज़्यादा बार इस दीवार को पार करने की कोशिश हुई. तीन भाइयों की एक कहानी आपको सुनाते हैं. सबसे बड़ा भाई इनगो बेथ्के. 1975 में इनगो ने अपने एक दोस्त के साथ दीवार में छेद किया. इसके बाद सावधानी से गार्डों को छकाते हुए वो आगे बढ़ा. दीवार के पास एक नदी बहती थी. इनगो ने नदी मे एक गद्दा डाला. जो हवा भरते ही फूल जाता था. इसके बाद वो इस गद्दे में बैठकर नदी पार कर वेस्ट जर्मनी पहुंच गया. हालांकि इनगो के दो भाई अभी भी ईस्ट जर्मनी में ही थे. जिन्हें वो बराबर खत लिखा करता था. इन्हीं खतों के दरमियान एक और प्लान बना. मंझले भाई का नाम होगलर था. साल 1983 में होगलर ईस्ट जर्मनी वाली साइड में बनी एक लम्बी बिल्डिंग की छत पर गया. यहां से उसने दीवार की दूसरी तरफ़ एक तीर मारा. तीर से एक रस्सी बंधी थी. जिसे दूसरी तरफ़ मौजूद इनगो ने पकड़ा और एक बिल्डिंग में जाकर ऊंचाई पर बांध दिया. इस तरफ़ ईस्ट और वेस्ट के बीच एक ज़िप लाइन तैयार हो गई. जो दीवार के ऊपर से होकर गुजरती थी.
इस ज़िप लाइन के सहारे दूसरा भाई भी वेस्ट जर्मनी में दाखिल हो गया. अब बचा था सिर्फ़ एक भाई. सबसे छोटा भाई एगबर्ट. उसे पार लाने के लिए होगलर और इनगो ने पांच साल तक इंतज़ार किया. इस बीच दोनों ने दो छोटे प्लेन ख़रीदे. और उन्हें उड़ाना सीखा. 1989 में ये दोनों प्लेन उड़ाकर ईस्ट जर्मनी गए. और अपने भाई को भी इस पार ले आए. दीवार पार करने की ऐसी सैकड़ों कहानियां हैं. सुरंग खोदी गई. सीवर का इस्तेमाल हुआ. एक आदमी ने तो खुद को एक बड़े से रेडियो में छिपा लिया. ताकि उसे स्मगल किया जा सके. ऐसे तरीकों से 20 सालों में 5000 से ज़्यादा लोग बर्लिन की दीवार पार करने में सफल हुए. हालांकि 150 से ज़्यादा ऐसे भी थे. जो दीवार पार करने की जुगत में मारे गए.
इन सालों में कई बार दीवार को गिराने की मांग उठी. लेकिन सोवियत संघ तैयार न हुआ. 1987 में अमेरिका के राष्ट्रपति रॉनल्ड रीगन ने बर्लिन में एक मशहूर भाषण दिया. जिसमें उन्होंने कहा था,
"मिस्टर गोर्बाचोव, प्लीज इस दीवार को गिरा डालिए".
उस वक्त तो रीगन की मांग का कोई खास असर नहीं हुआ लेकिन जल्द ही परिस्थितियां ऐसी बन गई कि लोगों ने खुद ही दीवार गिरा दी.
कैसे गिरी बर्लिन की दीवार?90 का दशक आते-आते सोवियत संघ मुसीबत में आ चुका था. सोवियत संघ के नेता मिखाइल गोर्बाचोव नए सुधार लाना चाहते थे. नतीजा हुआ कि सोवियत संघ के कई देशों में विद्रोह शुरू हो गए. 1989 में एक और घटना हुई. ऑस्ट्रिया और हंगरी ने अपने बॉर्डर एक दूसरे के लिए खोल दिए. दोनों अलग-अलग खेमों में थे. हंगरी सोवियत खेमे में था. और ईस्ट जर्मनी के एकदम बगल में पड़ता था. लिहाज़ा हुआ ये कि ईस्ट जर्मनी के लोगों ने हंगरी के रास्ते ऑस्ट्रिया में घुसना शुरू कर दिया. और जैसा पहले बताया चूंकि ऑस्ट्रिया दूसरे ख़ेमे में था, लोग यहां से वेस्ट जर्मनी जा सकते थे. ऐसा ही कुछ हाल चेकोस्लोवाकिया में भी था. चेकोस्लोवाकिया के रास्ते भी पलायन शुरू हो गया था. जिसके कारण ईस्ट जर्मनी और सोवियत सरकार पर दबाव में थी. लोग सड़कों पर थे. और नारे लगा रहे थे
"हमें बाहर जाना है".
बाहर जाते कैसे? इस समय तक बर्लिन की दीवार में कुछ चेक पोईंट बने हुए थे. जिनसे आर पार जाया जा सकता था. लेकिन उसके लिए एक विशेष पास की ज़रूरत होती थी. पास भी खास परिस्थितियों में ही मिलता था. लोग नियमों में ढील चाहते थे. इसलिए ईस्ट जर्मन सरकार ने लोगों का गुस्सा शांत करने के लिए एक कमेटी बनाई. ताकि वो ज़्यादा पास मुहैया कराने के रास्ते निकाल सके. इस कमेटी ने कुछ नए नियम बनाए. और उन्हें सरकार को सौंप दिया. नए नियम चरणबद्ध तरीके से लागू होने थे. लेकिन इन्हें लागू करने के चक्कर में एक छोटी सी गलती हो गई.
9 नवंबर 1989 की ऐतिहासिक तारीख. उस रोज़ ईस्ट जर्मन सरकार के एक नेता गंथर स्काब्वोस्की ने एक प्रेस कांफ़्रेस की. इसमें नए नियमों की घोषणा होनी थी. स्काब्वोस्की को प्रेस कांफ़्रेस से कुछ मिनट पहले ही एक नोट मिला था. जिसमें नए नियम और बाकी बातें लिखी हुई थीं. गलती ये हुई कि उन्होंने पूरा दस्तावेज नहीं पढ़ा और घोषणा कर दी कि ईस्ट जर्मनी के लोग अब आसानी से आर पार जा सकेंगे. सबको आसानी से पास मिलेगा. ये नियम अगले दिन से लागू होना था. और उसके लिए पास पोर्ट लेना ज़रूरी था. लेकिन जब स्काब्वोस्की से एक पत्रकार ने पूछा कि नए नियम कब से लागू होंगे. उन्होंने बोल दिया, आज और अभी से.
बस फिर क्या था. दुनिया भर के टीवी ये न्यूज़ दिखाने लगे. ईस्ट जर्मनी में जैसे ही रात साढ़े दस बजे इस खबर का प्रसारण हुआ. हज़ारों लोग दीवार के पास जमा हो गए. और गार्ड्स से मांग करने लगे कि उन्हें दूसरी तरफ जाने दिया जाए. गार्ड्स को पता था, बिना पास के जाने की इजाज़त नहीं है. लेकिन भीड़ इतनी बड़ी थी कि गार्ड्स कुछ नहीं कर पाए. गेट खोल दिए गए. हज़ारों लोगों ने सालों बाद वेस्ट जर्मनी में कदम रखा. वहां किसी जश्न जैसा माहौल था. वेस्ट जर्मनी के लोग दूसरी तरफ़ शैम्पेन और फूल लेकर इंतज़ार कर रहे थे. देखा देखी कुछ लोग दीवार के ऊपर चढ़ गए. नाच गाना होने लगा. उस दिन ये साफ हो गया था कि दीवार चाहे अभी भी खड़ी हो, लेकिन अब उसके कोई मायने नहीं बचे थे.
बर्लिन की दीवार का गिराया जाना, 20 वीं सदी की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक माना जाता है. क्योंकि इसी दिन से सोवियत संघ की भी उल्टी गिनती शुरू हो गई थी. मशहूर राजनीतिक विचारक, फ्रांसिस फुकुयामा ने इस घटना पर कहा था,
"इतिहास का अंत हो चुका है".
बर्लिन की दीवार गिराए जाने के 11 महीने बाद ईस्ट और वेस्ट जर्मनी का विलय कर दिया गया. कुछ वक्त बाद सोवियत संघ का भी विघटन हो गया. हालांकि एक दिलचस्प बात ये है कि बर्लिन की दीवार गिरने की तारीख़ 9 नवंबर 1989 मानी जाती है. लेकिन आधिकारिक रूप से दीवार ढहाने का काम 1990 में शुरू हुआ. लोगों ने हथौड़े और कुल्हाड़ियां उठाई और खुद ही दीवार गिराने लगे. 100 किलोमीटर से ज़्यादा लम्बी इस दीवार का अधिकतर मलबा दूसरे निर्माण में इस्तेमाल कर लिया गया. हालांकि कुछ टुकड़े थे, जिनकी नीलामी हुई. और कई देशों के म्यूजियम में इन्हें सहेज कर रखा गया है.
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