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अमेरिका से आने वाला एक फोन कॉल, जिसका पाकिस्तान करीब 7 महीने से इंतज़ार कर रहा!

कैसे दोनों देशों के रिश्ते ज़रूरत के हिसाब से बनते-बिगड़ते रहे?

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इमरान खान और जो बाइडेन के रिश्तों में ख़ास मिठास नहीं दिखी है.
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स्वाति
6 अगस्त 2021 (Updated: 6 अगस्त 2021, 15:02 IST)
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बड़ी लंबी है ज़मीं, मिलेंगे लाख हसीं. सारी दुनिया में सनम, तू अकेला ही नहीं...

तू है हरजाई, तो अपना भी यही तौर सही. तू नहीं और सही, और नहीं और सही...

रूठा हुआ नायक शिकवा करते हुए नायिका से कहता है. तू नहीं और सही, और नहीं और सही. कुछ-कुछ इसी अंदाज़ का एक उलाहना पाकिस्तान ने भी दिया है. उसने अमेरिका को धमकी देते हुए कहा है कि अगर तुम्हें हमारी क़द्र नहीं, तो हमें भी गरज नहीं. हमें भी और चाहने वाले मिल जाएंगे. पाकिस्तान के रूठने की वजह है, एकतरफ़ा इंतज़ार. महीनों हुए, जब से वो बेसब्री से किसी की बाट जोह रहा है. इस प्रतीक्षा में उपेक्षा भी है, अपमान भी और भविष्य की अनिश्चितता भी. इन्हीं वजहों से से पाकिस्तान से अमेरिका को कहलवाया है कि डूड, वी हैव अदर ऑप्शंस. क्या है ये पूरा मामला, विस्तार से बताते हैं.
शुरुआत करेंगे 66 बरस पुराने एक वाकये से. साल था, 1955. पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में, अफ़गानिस्तान से सटी सीमा के पास एक प्रांत था- नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस. इसे अब ख़ैबर-पख़्तूख़्वा कहते हैं. इस प्रांत का सबसे बड़ा शहर है, पेशावर. पेशावर से तकरीबन 10 किलोमीटर दूर दक्षिण की दिशा में एक गांव है, बडबेर. छोटा सा, सुदूर देहात का इलाका. इतना अलग-थलग कि किसी को कभी याद भी नहीं आती थी इसकी. बडबेर का ये एकांत बैकड्रॉप बना एक मशहूर जासूसी प्रकरण का.
America Pak पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्तों में पिछला कुछ समय कुछ खास नहीं रहा है.
नेहरू का अमेरिका दौरा कौन सा प्रकरण, बताते हैं. हमने बताया कि ये 1955 की बात है. इससे आठ साल पहले 1947 में भारत विभाजन हुआ था. भारत के प्रधानमंत्री बने, जवाहर लाल नेहरू. वो गुटनिरपेक्ष आंदोलन के झंडाबरदारों में से एक थे. गुटनिरपेक्ष मतलब, कोल्ड वॉर से तटस्थ. यही टोन मेंटेन करते हुए अक्टूबर 1949 में नेहरू अमेरिका के लंबे दौरे पर गए.
वहां उन्होंने राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन से मुलाकात की. कहा कि जहां तक कोल्ड वॉर में गुटबाज़ी की बात है, तो भारत तटस्थ रहेगा. मगर इसके अलावा, दोनों देश आपसी सहयोग के कई कॉमन ग्राउंड तलाश सकते हैं. दोनों अच्छे पार्टनर साबित हो सकते हैं. नेहरू का ये नैतिक हाई ग्राउंड अमेरिका को नहीं भाया. उसके लिए पार्टनर वो थे, जो शीत युद्ध में उसकी साइड थे. जो उसकी टीम में नहीं थे, उनके साथ रिश्ते प्रगाढ़ करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी.
अब चलते हैं पाकिस्तान पर. बंटवारे के बाद पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने, लियाक़त अली ख़ान. मई 1950 में वो 23 दिन के दौरे पर अमेरिका पहुंचे. राष्ट्रपति ट्रूमैन ने उनकी बड़ी ख़ातिरदारी की. ट्रूमैन का एक निजी विमान था. इसका नाम था- इंडिपेंडेंस. उन्होंने अपना ये विमान लंदन भेजा. इसमें बैठकर लियाक़त अली ख़ान वॉशिंगटन आए. उन्हें रिसीव करने के लिए ट्रूमैन ख़ुद एयरपोर्ट पहुंचे. कुल मिलाकर, ट्रूमैन ने लियाक़त अली ख़ान का ख़ूब स्वागत सत्कार किया. और फिर पाक PM का अमेरिका दौरा ट्रूमैन गवर्नमेंट द्वारा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को दिए गए इस वेलकम की एक बड़ी वजह थी, पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति. पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान का पड़ोसी था. 1950 के दशक की शुरुआत से ही अफ़गानिस्तान में सोवियत का दखल बढ़ रहा था. अफ़गानिस्तान के आख़िरी राज़ा मुहम्मद ज़ाहिर शाह के भाई थे, मुहम्मद दाऊद ख़ान. 1953 में उन्हें अफ़गानिस्तान का प्रधानमंत्री बनाया गया.
दाऊद ख़ान सोवियत समर्थक थे. उनके कार्यकाल में सोवियत और अफ़गानिस्तान करीबी सहयोगी बन गए. अमेरिका सोवियत को अफ़गानिस्तान से निकालना चाहता था. इसके लिए उसे एक बेस की ज़रूरत थी. उसे इस बेस का स्कोप दिखा पाकिस्तान में. पाकिस्तान को गुटनिरपेक्ष रहने का लोड नहीं था. उसे फंड और हथियार चाहिए थे. भारत से जुड़े मामलों, ख़ासतौर पर कश्मीर मसले को लेकर इंटरनैशनल सपोर्ट चाहिए था. ये सपोर्ट अगर सुपरपावर अमेरिका से मिलता, तो सोने पर सुहागा था.
संक्षेप में समझिए, तो पाकिस्तान और अमेरिका, दोनों के पास एक-दूसरे के मतलब की चीजें थीं. यही लेन-देन की व्यवस्था उनके आपसी रिश्तों का आधार बनी. इसी अजस्टमेंट को मज़बूत करने के लिए मई 1954 में अमेरिका और पाकिस्तान ने 'म्युचुअल डिफ़ेंस असिस्टेंस अग्रीमेंट' पर दस्तख़त किए. इस समझौते के तहत अमेरिका ने आर्थिक और सैन्य मदद के नाम पर पाकिस्तान को भारी-भरकम फंड दिया. आर्थिक सहायता के मद में अमेरिका ने पाकिस्तान को दिए करीब 18 हज़ार करोड़ रुपये. और, सैन्य सहायता के मद में दिए करीब 5 हज़ार करोड़ रुपये. इसके अलावा पाकिस्तानी सैनिकों को अमेरिका बुलाकर प्रशिक्षण भी दिया गया. पाक में अमेरिकी रेडियो स्टेशन ये सारा बैकग्राउंड बताने के बाद लौटते हैं, 1955 के उस प्रकरण पर, जिसके ज़िक्र से हमने बातों की शुरुआत की थी. इस वक़्त अमेरिकी ख़ुफिया एजेंसी CIA को पश्चिमी पाकिस्तान में एक निर्जन जगह की तलाश थी. एक ऐसी जगह, जो अफ़गान बॉर्डर से बहुत दूर न हो. इतनी अलग-थलग लोकेशन हो कि वहां हो रही गतिविधियां सोवियत के रेडार में न आए. CIA यहां सीक्रेट रेडियो स्टेशन्स बनाना चाहता था. वो इन रेडियो साइट्स के मार्फ़त सोवियत के ट्रांसमिशन्स को मॉनिटर करना चाहता था. ताकि बलिस्टिक मिसाइल प्रोग्राम समेत सोवियत की बाकी गतिविधियों का पता लगाया जा सके.
CIA की ये तलाश ख़त्म हुई, पेशावर से 10 किलोमीटर दूर बसे बडबेर गांव पर. पाकिस्तान की सहमति से अमेरिका ने इसी बडबेर गांव में बनाया, 6937th कम्युनिकेशन्स ग्रुप का स्टेशन. बाद के दशकों में जिस तरह अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में पैर जमाने, वहां ऑपरेशन्स करने के लिए पाकिस्तान को बेस बनाया, उस ट्रेंड की पहली मेजर शुरुआत बडबेर में ही हुई थी. ये उस रिवाज़ की शुरुआती मिसाल थी, जिस रिवाज़ के तहत पाकिस्तान ने अमेरिका के जासूसी और सैन्य ऑपरेशन्स के लिए अपनी ज़मीन मुहैया कराना शुरू किया.
इस सपोर्ट के बदले पाकिस्तान को मिलने वाले अमेरिकी फंड की मात्रा भी बढ़ती गई. साथ ही, उन्नत हथियार भी मिले. मसलन, पाक वायु सेना को आधुनिक बनाने के लिए 1957 में अमेरिका ने पाकिस्तान को 100 F-86 फ़ाइटर जेट्स की खेप दी. इसके अलावा कई एफ़-104 स्टारफ़ाइटर्स भी दिए. ये उस दौर का सबसे आधुनिक लड़ाकू विमान था.
1965 का युद्ध कई मायनों में अमेरिका और पाकिस्तान की इस दोस्ती का एक साइड-इफ़ेक्ट था. अमेरिका ने पाकिस्तान को SEATO का सदस्य बनाया था. SEATO का फुल फॉर्म है, साउथ ईस्ट एशिया ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन. ये नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन, यानी NATO की ही तरह एक संधि थी. इसका मुख्य मक़सद था, दक्षिण एशिया में कम्युनिज़म के विस्तार को रोकना. इसकी सदस्यता के बदले सदस्य देशों को अमेरिका ऐंड कंपनी की गारंटी मिलती थी कि किसी भी जंग के समय उन्हें मदद दी जाएगी. पाकिस्तान ने यही सोचकर SEATO जॉइन किया था. उसे लगा था, भारत के खिलाफ़ जंग हुई, तो उसे सपोर्ट मिलेगा.
कुछ-कुछ इस ओवरकॉन्फ़िडेंस में. और थोड़ा चीन की शह पर. 1965 में पाकिस्तान ने कश्मीर को भारत से छीनने के लिए चढ़ाई कर दी. दोनों देशों में युद्ध शुरू हो गया. इस युद्ध को जीतने के लिए पाकिस्तान ने अमेरिका से मिले उपकरणों और फंड्स का इस्तेमाल किया. 1965 के युद्ध में पाकिस्तान ने जितने रुपये बहाए थे, उसमें से करीब 3,700 करोड़ रुपये उसने अमेरिकी फंड्स से ही डायवर्ट किए थे. उसने युद्ध में अमेरिकन लड़ाकू विमानों को भी भारत के खिलाफ़ इस्तेमाल किया था. मगर इनके बावजूद पाकिस्तान युद्ध में पिछड़ गया. उसने अमेरिका से मदद मांगी. कहा कि वो कश्मीर को लेकर भारत पर दबाव बनाए. मगर अमेरिका ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. उसने पाकिस्तान पर संघर्षविराम का ज़ोर डाला. रिश्तों में दरार इससे जुड़ी एक टेलिफ़ोन रिकॉर्डिंग भी सामने आई. ये रिकॉर्डिंग थी 22 सितंबर, 1965 की. यानी, संघर्षविराम होने वाले दिन की. इस रोज़ पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब ख़ान ने मदद मांगने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन को फ़ोन किया था. राष्ट्रपति जॉनसन ने अयूब से कहा कि वो संघर्षविराम करें और बातचीत के रास्ते विवाद सुलझाएं. इस युद्ध के चलते अमेरिका-पाकिस्तान के रिश्तों में दरार भी आई. अमेरिका ने कहा कि पाकिस्तान ने अमेरिकी मदद को भारत के खिलाफ़ इस्तेमाल करके सहायता की शर्तें तोड़ी हैं. इसी आधार पर अमेरिका ने पाकिस्तान के ऊपर आर्थिक और सैन्य प्रतिबंध लगा दिए.
Indo Pak War 65 के युद्ध में पाकिस्तान को अमेरिका से मदद की पूरी उम्मीद थी, लेकिन उतनी मदद मिली नहीं. जिसके बाद रिश्तों में तल्खी आई थी.

अमेरिका के ऐसा करने की एक बड़ी वजह चीन भी था. चीन और पाकिस्तान की दोस्ती थी. अमेरिका चीन के बढ़ते असर को काउंटर करना चाहता था. भारत के हारने का मतलब था, एशिया के पावर कॉरिडोर्स में असंतुलन. चीन की बढ़त. इसीलिए अमेरिका को पाकिस्तान और चीन की नज़दीकी अख़र रही थी. ये एक बड़ी वजह थी कि अमेरिका ने पाकिस्तान की आक्रामकता पर एकाएक कैंची चला दी. हालांकि अमेरिका की इस कार्रवाई के बाद पाकिस्तान को भी महसूस हुआ कि वॉशिंगटन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. उसने रक्षा साझेदारियों के लिए विकल्प तलाशने शुरू किए. पाकिस्तान की चीन पर निर्भरता बढ़ती गई.
पाकिस्तान और अमेरिका के बीच कड़वाहट भले आई हो. मगर उनके संबंध पूरी तरह नहीं टूटे. दोनों को ही एक-दूसरे की ज़रूरत थी. अमेरिका के लिए पाकिस्तान का मतलब था, अफ़गानिस्तान और उससे आगे सेंट्रल एशिया का गेट-वे. इसके अलावा एक और तात्कालिक मक़सद भी था, जिसके लिए अमेरिका को पाकिस्तान की ज़रूरत थी. इस मक़सद का नाम था, चीन. अमेरिका का दोहरा रवैया 1969 में अमेरिका के राष्ट्रपति बने, रिचर्ड निक्सन. उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे, हेनरी किसिंगर. किसिंगर चीन के प्रति अमेरिकी पॉलिसी बदलना चाहते थे. इस वक़्त तक अमेरिका चीन को मान्यता नहीं देता था. वो ताइवान को सपोर्ट करता था. किसिंगर की राय थी कि अमेरिका को चीन का इंटरनैशनल आइसोलेशन ख़त्म करना चाहिए. पाकिस्तान की मदद से अमेरिका और चीन की वार्ता शुरू हुई. जुलाई 1971 में हेनरी किसिंगर चीन की गुप्त यात्रा पर पहुंचे. इसी के साथ चीन और अमेरिका के आधिकारिक संबंधों की प्रस्तावना लिखी जाने लगी.
यानी अमेरिका के लिए पाकिस्तान खाने में नमक की तरह था. अमेरिका उसे कई तरह से इस्तेमाल कर रहा था. इस चक्कर में अमेरिका को पाकिस्तान के ग़ुनाह भी नज़रंदाज़ करने पड़ते थे. मसलन, पाकिस्तानी सेना द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में किया गया नरसंहार. अमेरिका ने इसपर चुप्पी बनाए रखी. निक्सन और किसिंगर की ये कथित 'क्वाइट डिप्लोमैसी' इतनी दोहरी थी कि वो भारत को 'अग्रेसर' बता रहे थे.
एक तरफ अमेरिका ने पाकिस्तान पर मिलिटरी इम्बारगो लगा रखा था. वहीं दूसरी तरफ़ निक्सन और किसिंगर ने अवैध तरीके से थर्ड-पार्टी ट्रांसफर्स के मार्फ़त पाकिस्तान को मिलिटरी सप्लाई भिजवाए. यहां तक कि पाकिस्तान की मदद के लिए अपने न्यूक्लियर एयरक्राफ़्ट कैरियर 'यू एसएस एन्टरप्राइज़' को बंगाल की खाड़ी भी रवाना कर दिया. मगर अमेरिकी मदद के बावजूद पाकिस्तान ये युद्ध भी नहीं जीत सका.
बांग्लादेश यानी पूर्वी पाकिस्तान को गंवाने के बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने, जुल्फ़िकार अली भुट्टो. भुट्टो की निक्सन से नज़दीकी थी. इस दौर में भी पाकिस्तान और अमेरिका के संबंध प्रगाढ़ बने रहे. फिर 1979 में सोवियत ने अफ़गानिस्तान पर हमला किया. पाकिस्तान की चांदी हो गई. अफ़गानिस्तान के पड़ोस में बसे होने के चलते उसकी वैल्यू बढ़ गई. मुजाहिदिनों की फ़ौज सोवियत को हराने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान के ही रास्ते अफ़गानिस्तान में मुजाहिदीनों की फ़ौज खड़ी करवाई. उन्हें हथियार और फंड्स भिजवाए. अमेरिका ने पाकिस्तान को भी ख़ूब पैसा दिया. इस दौर में अमेरिका से आर्थिक मदद पाने के मामले में इज़रायल के बाद पाकिस्तान का ही नंबर था. एक दशक तक चले अफ़गान वॉर में पाकिस्तान ने ख़ूब कमाई की. पाकिस्तान ग़रीब रहा. लेकिन उसकी सेना, मिलिटरी अफ़सर और ISI ख़ूब दौलतमंद हो गए.
1989 में सोवियत की अफ़गानिस्तान से विदाई हुई. इसके बाद अमेरिका की भी दिलचस्पी कम होने लगी पाकिस्तान में. उसे एकाएक याद आया कि अरे, पाकिस्तान तो न्यूक्लियर हथियार बनाने की कोशिश कर रहा है. हमारे दिए पैसों का इस्तेमाल न्यूक्लियर प्रोग्राम में कर रहा है. सो 1990 में, यानी अफ़गानिस्तान से सोवियत की विदाई के एक साल बाद, अमेरिका ने पाकिस्तान पर सेंक्शन्स लगा दिए.
अब अमेरिका को पाकिस्तान के और ऐब भी दिखने लगे. उसे नज़र आने लगा कि पाकिस्तान किस तरह आतंकवाद स्पॉन्सर करता है. भारत में आतंकवादियों की सप्लाई करता है. 1992 में अमेरिका ने पाकिस्तान को धमकी दी. कहा, अगर वो भारत को टारगेट करने वाले आतंकियों को सपोर्ट करना जारी रखता है, तो उसे 'स्टेट स्पॉनसर्स ऑफ़ टेररिज़म' लिस्ट में डाल दिया जाएगा.
इसके बाद भी अमेरिका-पाकिस्तान के आपसी रिश्तों में कड़वाहट बढ़नी जारी रही. 1998 में नवाज़ शरीफ़ सरकार ने परमाणु परीक्षण करवाया. अमेरिका ने उसपर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए. साथ ही, उसे दी जाने वाली आर्थिक मदद भी बंद कर दी.
अमेरिका की प्रायॉरिटी लिस्ट में पाकिस्तान की रीएंट्री हुई, 2001 में. इसकी वजह बना, 9/11 का आतंकी हमला. अल-क़ायदा और उसके सहयोगी तालिबान पर अमेरिका ने हमला कर दिया. इस 'वॉर अगेंस्ट टेरर' ने पाकिस्तान को फिर से वैल्यू दिलाई. उसे फिर से अमेरिकी फंड्स मिलने लगे. एक तरफ़ पाकिस्तान सहयोगी बनकर अमेरिका से फंड्स लेता. वहीं दूसरी तरफ़ वो अमेरिका विरोधी आतंकियों की भी मदद करता. मतलब, इस युद्ध में पाकिस्तान दोनों टीमों की तरफ़ से खेल रहा था. अफ़गान वॉर का दौर अक्टूबर 2001 से शुरू हुए अफ़गान वॉर के इस नए चैप्टर में अमेरिका और पाकिस्तान के बीच उठापटक के कई मौके आए. दोनों ने ही एक-दूसरे की कई बार आलोचना की. दोनों ने एक-दूसरे की भूमिका पर उंगली उठाई. मसलन, मई 2011 में अमेरिका ने पाकिस्तान को बिना बताए उसके देश में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मारा. पाकिस्तान ने इसे अपनी संप्रभुता का उल्लंघन बताया. अमेरिका ने कहा, पाकिस्तान लादेन को पनाह दे रहा था.
पाकिस्तान द्वारा तालिबान को मदद देना. अल-क़ायदा के आतंकियों को सुरक्षित पैसेज देना. सरकार और सेना द्वारा आतंकवाद प्रायोजित किया जाना. दूसरे देशों में आतंकवाद एक्सपोर्ट करना. पाकिस्तान की इन भूमिकाओं के चलते अमेरिका में पाकिस्तान के प्रति अविश्वास बढ़ता गया. वहां लोग पूछने लगे कि अमेरिकी सरकार पाकिस्तान को स्ट्रैटज़िक पार्टनर कैसे कहती है? क्यों उसे फंड देती है? क्यों उसे प्रश्रय देती है?
ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका का ये फ्रस्ट्रेशन बिल्कुल साफ़ हो गया. ट्रंप ने इल्ज़ाम लगाया कि पाकिस्तान अमेरिका को मूर्ख बनाता आया है. ट्रंप ने कहा कि एक तरफ़ तो पाकिस्तानी लीडरान आतंकवादियों को पनाह देते हैं. और वहीं अमेरिका करीब ढाई लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा पैसा बहा चुका है पाकिस्तान पर. ट्रंप ने पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक मदद भी रोक दी. पाकिस्तान को दिए जाने वाले सालाना करीब 10 हज़ार करोड़ रुपए के पैकेज़ पर ताला लगा दिया. कहा कि जब तक पाकिस्तानी सरकार चरमपंथियों और आतंकियों से रिश्ते नहीं तोड़ती, अमेरिका उसकी कोई मदद नहीं करेगा.
अब सवाल उठता है कि हम ये पूरा इतिहास आज क्यों सुना रहे हैं? इसकी वजह है, एक फ़ोन कॉल. या कहिए कि वो फ़ोन कॉल, जो आया ही नहीं. जिसका इंतज़ार करते-करते छह महीने धुल चुके हैं. अमेरिका का फोन कॉल हुआ ये कि 20 जनवरी, 2021 को अमेरिका में सत्ता बदली. राष्ट्रपति बने, जो बाइडन. परंपरा है कि नया राष्ट्राध्यक्ष सत्ता संभालने के बाद विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को टेलिफ़ोन करता है. इस बातचीत में दोनों लीडर एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं. सहयोग का वचन देते हैं. इस बातचीत से दोनों मुल्कों के आगामी संबंधों का टोन तय होता है. अमेरिकी राष्ट्रपति वर्ल्ड लीडर्स को किस क्रम में कॉल करते हैं, इसपर ख़ास नज़र रखी जाती है. जिन्हें शुरुआत में कॉल किया जाए, मतलब उनके प्रति विशेष स्नेह है. उस देश के साथ अच्छे संबंधों को तवज्जो देने का प्लान है.
Modi (4) जो बाइडेन ने अमेरिका के राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभालने के तीन हफ्ते में PM मोदी को फोन किया था.

अब फिर से ग़ौर कीजिए. बाइडन ने कार्यभार संभाला 20 जनवरी, 2021 को. राष्ट्रपति बनने के बाद जिन वर्ल्ड लीडर को उन्होंने सबसे पहले फ़ोन किया, वो थे कैनेडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो. अगला कॉल गया, मेक्सिकन प्रेज़िडेंट आंद्रेस लोपैज़ ओब्राडोर को. तीसरा कॉल, ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को. फिर, फ्रैंच राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों और जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल. फिर व्लादीमिर पुतिन. 8 फ़रवरी को उन्होंने PM नरेंद्र मोदी के पास फ़ोन मिलाया.
टेलिफ़ोन कॉल्स की इस हाइरार्की का अनुवाद समझिए. बाइडन के पूर्ववर्ती थे ट्रंप. उन्होंने मेक्सिको और कैनेडा, दोनों से झगड़ा रखा. बाइडन इस पॉलिसी को बदलना चाहते हैं. पड़ोसियों से रिश्ते सुधारना चाहते हैं. इसीलिए पहले फ़ोन कॉल्स कैनेडा और मेक्सिको को गए. फिर बारी आई यूरोपियन पार्टनर्स की. जो कि नैटो के सहयोगी भी हैं. ट्रंप का ब्रिटेन से तो रिश्ता ठीक था. मगर फ्रांस और जर्मनी से उनका तनाव था. बाइडन उनसे भी संबंध प्रगाढ़ करना चाहते हैं. चीन जैसे अग्रेसर्स के आगे अंतरराष्ट्रीय सहयोग बनाने में भारत की भूमिका भी अहम है. इसीलिए प्रेज़िडेंसी संभालने के शुरुआती तीन हफ़्तों में ही नरेंद्र मोदी को फ़ोन मिलाया गया.
और बाइडन ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को कब कॉल किया? जवाब है, अभी तक नहीं. बाइडन को कार्यकाल संभाले करीब छह महीने हो चुके हैं. लेकिन अब तक उन्होंने इमरान ख़ान को टेलिफ़ोन नहीं किया है. इस बात से इमरान बहुत झल्लाए हुए हैं. इस झल्लाहट का संकेत मिला एक हालिया इंटरव्यू में. ये इंटरव्यू दिया, पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोइद युसूफ़ ने. उन्होंने पिछले दिनों ब्रिटिश अख़बार 'दी फाइनैंशल टाइम्स' से बात की. इसमें मोइद युसूफ़ ने बाइडन के फ़ोन ना करने की बात उठाई. कहा-
अमेरिका के राष्ट्रपति ने अब तक हमारे प्रधानमंत्री को कॉल नहीं किया. पाकिस्तान इतना अहम राष्ट्र है. वो क्या सिग्नल दे रहे हैं? हमारी तो कुछ समझ नहीं आ रहा है. हमसे कहा जा रहा है कि फ़ोन आएगा, फ़ोन आएगा. कभी कहते हैं, तकनीकी ख़ामी है. कभी कुछ और कहते हैं. मैं साफ़-साफ़ कहूं, लोगों को इन बहानों पर भरोसा नहीं है. अगर फ़ोन कॉल किसी क़िस्म का उपकार है. अगर सुरक्षा संबंध किसी क़िस्म का कन्सेशन हैं, तो सबको समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान के पास विकल्प हैं.
NSA युसूफ़ ने विकल्प की बात तो कही. मगर विकल्प का नाम नहीं लिया. वो कहें, ना कहें, हर किसी को पता है कि वो चीन की बात कर रहे थे. पाकिस्तान भले चीन का नाम गिनाए. मगर सच ये है कि अमेरिका के लिए फिलहाल उसकी कोई जियो-स्ट्रैटज़िक वैल्यू नहीं है. अमेरिका अफ़गानिस्तान से वापसी कर चुका है. उसे अफ़गानिस्तान में लोकतंत्र आने की भी कोई उम्मीद नहीं दिखती. तालिबान की वापसी भी करीब-करीब तय है. ऐसे में अमेरिका को यहां और उलझने से बेहतर लगा, लौट जाना. जब तक कि अफ़गानिस्तान उसकी प्रायॉरिटी में वापस नहीं लौटता, पाकिस्तान के साथ उसकी स्ट्रैटिजक पार्टनरशिप के बहुत रीवाइव होने की उम्मीद नहीं दिखती.

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