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क्या NDA सहयोगी BJP से लोकसभा स्पीकर का पद चाहते हैं? आखिर ऐसा क्या खास है इसमें?

"माननीय सांसद बैठ जाइए...", ये वाली लाइन अक्सर संसद में सुनी होगी. यानी स्पीकर का काम सदन की व्यवस्था को बनाए रखना है. लेकिन इसके अलावा भी स्पीकर के कई बड़े अधिकार हैं.

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Why loksabha speaker post is important
चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार. (फोटो- पीटीआई)
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साकेत आनंद
7 जून 2024 (Published: 20:51 IST)
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नरेंद्र मोदी मनोनीत प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिए गए हैं. इससे पहले NDA की बैठक में उन्हें एक बार फिर संसदीय दल का नेता चुना है. NDA के सहयोगी दलों ने भी बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर सहमति जताई. अब गठबंधन सहयोगियों के साथ सरकार गठन करने की कवायद चल रही है. मंत्रालयों के बंटवारे को लेकर मंथन जारी है. लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा स्पीकर पद को लेकर चल रही है. लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद से ही कई खबरनवीसों ने "सूत्रों" के हवाले से खबरें चलाईं कि तेलुगु देशम पार्टी (TDP) और जनता दल (यूनाइटेड) स्पीकर पद चाहती हैं. इसके पीछे की वजह भविष्य में गठबंधन के भीतर किसी तरह के "अलगाव" को रोकना बताया गया है. ऐसे में समझते हैं कि स्पीकर का पद इतना महत्वपूर्ण क्यों है.

स्पीकर और प्रोटेम स्पीकर

लोकसभा में स्पीकर और डिप्टी स्पीकर पद का चलन अंग्रेजी शासन के दौर से चलता आ रहा है. पहले इस पद को प्रेसिडेंट और डिप्टी कहा जाता था. लेकिन भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत इसका नाम बदलकर अध्यक्ष और उपाध्यक्ष किया गया. स्पीकर को आप लोकसभा का मुखिया बोल सकते हैं जो सदन के हर दिन के कामकाज की अध्यक्षता करता है. इसलिए नई लोकसभा का गठन होते ही सबसे पहले स्पीकर चुना जाता है. जब तक स्थायी स्पीकर नहीं चुना जाता, तब तक एक प्रोटेम स्पीकर की व्यवस्था की जाती है.

प्रोटेम लैटिन भाषा का शब्द है. प्रो टेंपोर (Pro tempore) माने, कुछ समय के लिए या अस्थाई. जब तक स्थाई व्यवस्था न हो जाए. नई लोकसभा में सबसे पहले प्रोटेम स्पीकर नियुक्त होता है. इसे बहुमत वाले दल की सलाह पर राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं. प्रोटेम स्पीकर ही नए सांसदों को शपथ दिलवाते हैं. और फिर लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव करवाते हैं. इसके बाद प्रोटेम स्पीकर का रोल खत्म हो जाता है. प्रोटेम स्पीकर के पास कोई भी संवैधानिक शक्ति नहीं होती. यानी सदस्यों पर अनुशासन की कार्रवाई करने जैसे फैसले वह नहीं कर सकते.

लोकसभा स्पीकर का चुनाव

लोकसभा स्पीकर चुने जाने के लिए कोई खास योग्यता नहीं चाहिए. स्पीकर लोकसभा का सदस्य होना चाहिए. परंपरागत रूप से अपने यहां लोकसभा के वरिष्ठ सदस्यों या कानून की जानकारी रखने वालों को स्पीकर चुना जाता है. लोकसभा के सदस्य साधारण बहुमत के आधार पर स्पीकर को चुनते हैं. स्पीकर का कार्यकाल 5 साल का होता है. जिस तरीके से स्पीकर को चुना जाता है, उसी तरह बहुमत के आधार पर उन्हें पद से हटाया भी जा सकता है.

स्पीकर की शक्तियां

अब असली सवाल पर आते हैं कि स्पीकर की शक्ति क्या है? स्पीकर का काम लोकसभा के भीतर संविधान के प्रावधानों के तहत कार्यवाही का संचालन करवाना होता है. "माननीय सांसद बैठ जाइए...", ये वाली लाइन अक्सर सदन में सुनी होगी. यानी स्पीकर का काम सदन की व्यवस्था को भी बनाए रखना है. इसके अलावा भी स्पीकर के कई अधिकार हैं मसलन,

> सदन को स्थगित करने का अधिकार.
> संसद की संयुक्त बैठक में अध्यक्षता स्पीकर ही करते हैं.
> संसदीय समितियों को गठन करने का अधिकार स्पीकर के पास है.
> अविश्वास प्रस्ताव को छोड़कर, सदन में जितने प्रस्ताव आते हैं वो स्पीकर की अनुमति से ही आते हैं.
> किसी बिल या प्रस्ताव पर बराबर वोट पड़ने की स्थिति में स्पीकर को अपना मत इस्तेमाल करने का अधिकार है.
> सदन के सदस्य की अयोग्यता पर अंतिम फैसले का अधिकार स्पीकर के पास होता है.
> सदन में इस्तेमाल किसी 'असंसदीय' शब्द को रिकॉर्ड से हटाने का फैसला भी स्पीकर करते हैं.
> इसके अलावा स्पीकर लोकसभा सचिवालय के प्रमुख भी होते हैं. उनकी अनुमति के बिना संसद के भीतर कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है.

पर्सन ऑफ द मोमेंट - स्पीकर

लोकसभा स्पीकर की महत्ता उस वक्त सबसे ज्यादा बढ़ जाती है, जब कोई सांसद दल-बदल करते हैं या पार्टी लाइन से बाहर जाकर वोट करते हैं. सांसदों या विधायकों के दल बदलने या व्हिप का उल्लंघन करने को लेकर सिर्फ स्पीकर फैसला ले सकता है. वो विधायकों या सांसदों को अयोग्य ठहरा सकता है.

साल 1985 में संविधान में 52वां संशोधन कर 10वीं अनुसूची जोड़ी गई थी. इसमें ये प्रावधान किया गया कि यदि संसद और राज्य विधायिका का कोई सदस्य पार्टी बदलता है तो उसे सदन से बर्खास्त किया जाएगा. इसे ‘दल-बदल विरोधी कानून' के रूप में भी जाना जाता है. इस अनुसूची के दूसरे पैराग्राफ में कहा गया है कि सदन का कोई भी सदस्य, चाहे वो किसी भी पार्टी का हो, यदि पार्टी बदलता है या पार्टी के निर्देश के विपरीत वोट करता है या फिर पार्टी की इजाजत के बिना सदन की कार्यवाही से गैरहाजिर रहता है और वोट नहीं करता है, तो ऐसे व्यक्ति की सदन से सदस्यता खत्म कर दी जाएगी.

सदस्यता खत्म करने का मतलब है कि वो व्यक्ति सांसद या विधायक नहीं रह जाएगा. ये कानून इसलिए ही लाया गया था ताकि मौका पाते ही एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने से विधायकों या सांसदों को रोका जा सके. हालांकि इसी कानून में कहा गया है कि अगर विधायक या संसदीय दल के दो-तिहाई सदस्य ऐसा करें, तो उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है.

10वीं अनुसूची के तहत सदन के स्पीकर को शक्तियां दी गई हैं. इसके पैराग्राफ 6(1) में कहा गया है कि सदन के सदस्य की बर्खास्तगी से जुड़ा यदि कोई सवाल उठता है तो उसे अध्यक्ष के सामने पेश किया जाना चाहिए और इसे लेकर उनका (अध्यक्ष या स्पीकर) निर्णय अंतिम होगा. हालांकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि स्पीकर के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है.

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इसके अलावा, संविधान का अनुच्छेद-101(3) सांसद के इस्तीफे में स्पीकर के रोल को बताता है. अगर स्पीकर इस्तीफा स्वीकार कर लेता है तो वह सीट खाली हो जाएगी. लेकिन अगर स्पीकर को लगता है कि इस्तीफे के पीछे की वजह सही नहीं हैं तो वो इस्तीफा स्वीकार नहीं करेगा.

महाराष्ट्र में स्पीकर की भूमिका पर उठे थे सवाल

स्पीकर की शक्तियों का हालिया उदाहरण शिवसेना में हुई बगावत के दौरान देखा गया था. बगावत के बाद शिवसेना के 16 विधायकों को अयोग्य साबित किये जाने का मसला महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष राहुल नार्वेकर के पास पहुंचा था. मामला सुप्रीम कोर्ट भी गया. लेकिन कोर्ट ने साफ कह दिया कि स्पीकर ही इस पर अंतिम फैसला लेंगे.

इस साल 10 जनवरी को राहुल नार्वेकर ने बगावत पर अपना फैसला सुनाया. कहा कि शिंदे गुट ही असली शिवसेना होगी. नार्वेकर ने कहा कि 21 जून 2022 को शिवसेना टूट गई थी. इसलिए सुनील प्रभु (तत्कालीन शिवसेना व्हिप) का व्हिप उस तारीख के बाद लागू नहीं होता है. चूंकि विधायकों की संख्या शिंदे गुट के पास दो तिहाई से ज्यादा थी, इसलिए भरत गोगावले को व्हिप बनाने का फैसला सही माना गया.

इसी तरह लोकसभा में भी शिवसेना के चीफ व्हिप को बदल दिया गया था. 19 जुलाई 2022 को पार्टी के 12 सांसदों ने तत्कालीन लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को पत्र लिखकर व्हिप बदलने की मांग की थी. पहले लोकसभा में शिवसेना के व्हिप विनायक राउत थे. लेकिन शिंदे समर्थक सांसदों ने राहुल शेवाले को संसदीय दल का नेता चुना और भावना गवली को व्हिप बनाने को कहा. ओम बिरला ने अनुमति दे दी. इसके बाद उद्धव ठाकरे के हाथ से संसदीय दल भी निकल गया था.

एक वोट से गिरी थी वाजपेयी सरकार

स्पीकर की बात आने पर 1998 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार गिरने की चर्चा जरूर होती है. तब भी टीडीपी एनडीए का हिस्सा थी. लोकसभा स्पीकर टीडीपी के सांसद जीएमसी बालयोगी थे. वे लोकसभा के पहले दलित स्पीकर भी थे. 17 अप्रैल 1999 को वाजपेयी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हुई थी. सिर्फ एक वोट के कारण उनकी सरकार गिर गई.

दरअसल, स्पीकर जीएमसी बालयोगी ने ओडिशा के मुख्यमंत्री चुने जा चुके कांग्रेस सांसद गिरिधर गोमांग को वोटिंग करने की अनुमति दे दी थी. गिरिधर गोमांग कांग्रेस के सांसद थे. फरवरी 1999 में वे ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे. इसके बावजूद उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया था. उनके वोट ने ही वाजपेयी सरकार गिराई. फिर, अगले ही साल मध्यावधि चुनाव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की गठबंधन सरकार बनी. और इस सरकार में भी बालयोगी को ही लोकसभा अध्यक्ष बनाया गया था. 3 मार्च 2002 को एक हेलिकॉप्टर क्रैश में बालयोगी की मौत हो गई थी.

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बहरहाल, लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 240 सीटें मिली हैं. बहुमत के लिए 272 के आंकड़े की दरकार है. एनडीए के हिस्से 292 सीटें आई हैं, जो सरकार बनाने के लिए पर्याप्त हैं. लेकिन इस बार बीजेपी को सहयोगी दलों के दम पर सरकार चलानी है. इससे पहले की दोनों सरकारों में बीजेपी के पास अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा था. इसलिए आने वाले समय में दूसरे दलों की भूमिका अहम रहने वाली है.

वीडियो: राम मंदिर पर संसद में अटल बिहारी वाजपेयी का वायरल भाषण

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