The Lallantop
Advertisement

बांग्लादेश के चक्कर में मां-बेटे आमने-सामने खड़े हो गए, एक राजमाता और एक राजा

राजा ने तो पाकिस्तान के लिए अपनी गद्दी, घरबार सब कुछ छोड़ दिया, यानी पाकिस्तान का बेटा, मां बांग्लादेश की. उन्होंने ऐसा क्यों किया था? पूरी कहानी

Advertisement
tridev roy chakma hill tribe pakistann 1971 war bangladesh
बौद्ध राजा त्रिदेव रॉय बांग्लादेश से भागकर पाकिस्तान चले गए और ताउम्र वहीं रहे (तस्वीर: wikimedia commons/getty)
pic
कमल
30 जुलाई 2024 (Updated: 11 अगस्त 2024, 07:01 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

सितम्बर 1972 की बात है. संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली में बहस चल रही थी. मुद्दा था बांग्लादेश. बांग्लादेश की मांग थी कि उसे जनरल असेम्बली का मेंबर बनाया जाए. लाज़मी था कि पाकिस्तान इसका विरोध करता. वो उन्होंने किया. बाक़ायदा पाकिस्तान ने 21 मेंबर वाला एक पूरा डेलिगेशन भेजा. लेकिन ख़ास बात ये थी कि इस डेलीगेशन का लीडर एक ऐसा शख़्स था जो चंद महीनों पहले तक बांग्लादेश का नागरिक हुआ करता था. कोई आम नागरिक नहीं, एक रियासत का राजा.

ये राजा बौद्ध धर्म को मानता था. सबसे अचरज की बात ये थी कि राजा का सामना बांग्लादेश के जिस डेलिगेशन से होने वाला था, उसे लीड करने वाली महिला राजा की खुद की मां थीं. यानी राजमाता. बांग्लादेश युद्ध के चक्कर में दो मां-बेटे आमने-सामने कैसे आ गए? एक बौद्ध राजा ने पाकिस्तान के लिए अपनी रियासत क्यों छोड़ दी? (Tridev Roy)

Chattagong Hill और  Chakma Tribe 

कहानी शुरू होती बांग्लादेश के चटगांव सूबे से. चटगांव का पहाड़ी इलाका भारत के त्रिपुरा और मिजोरम इलाके से लगता है. यहां अलग-अलग जनजातियां रहती हैं. जिन्हें सामूहिक रूप से झुम्मा कहकर बुलाया जाता है. ये नाम इसलिए मिला क्योंकि ये लोग सदियों से बुआई-कटाई के जिस तरीके को अपनाते आ रहे थे. उसे झूम कृषि कहा जाता है. कृषि के इस तरीके में पेड़ों की ऊपरी डाल काट दी जाती हैं. ताकि ज़मीन तक धूप पहुंच सके. इसके बाद कटी हुई डालियों को जलाकर उसकी राख खेत में फैला दी जाती है. और उसे दोबारा कृषि के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

इस तरीके को अपनाने वाली कई जनजातियां चटगांव के पहाड़ी इलाके में रहती हैं. इनमें सबसे प्रमुख हैं, चकमा. चकमा लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी होते हैं. मान्यता है कि ये लोग गौतम बुद्ध की शाक्य परम्परा से निकले और मगध से चलकर इनके पूर्वजों ने पहाड़ों में शरण ले ली. इनकी भाषा भी इंडो आर्यन परिवार की भाषा के ज़्यादा नज़दीक है, जो उत्तरी भारत की बाक़ी भाषाओं से मिलती है.

चकमा शब्द संस्कृत के एक शब्द से निकला है, जिसका मतलब होता है, शक्तिशाली. चकमा लोग हमेशा से ताकतवर योद्धा माने जाते रहे. 15वीं से 17वीं सदी के बीच ये लोग बर्मा के रखाइन राजवंश, में नौकरी किया करते थे. चकमा कई कबीलों में बंटे हुए थे. लेकिन सभी कबीलों का एक राजा हुआ करता था. 18वीं सदी की शुरुआत में चकमा रियासत और मुगलों के बीच एक संधि हुई. जिसके तहत चकमा मुगलों को हर साल टैक्स चुकाया करते थे. 1757 में प्लासी का युद्ध हुआ. जिसके बाद बंगाल अंग्रेजों के कब्जे में आ गया.

pakistan baudh king
विलय के बाद भी नलिनाक्ष राजा बने रहे

अंग्रेजों और चकमा रियासत के बीच 10 साल तक युद्ध चला. अंत में, 1787 में चकमाओं ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के मातहत आना स्वीकार कर लिया. तय हुआ कि हर साल चकमा 20 हज़ार किलो कपास अंग्रेजों को देंगे. बदले में अंग्रेज, चकमाओं के आंतरिक मामलों में दखल देने से बचते थे. ये सिस्टम आज़ादी तक चला. बंटवारे के बाद ये चकमाओं का इलाका पाकिस्तान के हिस्से चला गया. और यहां से शुरू हो गई एक बड़ी दिक्कत.

बंटवारे में चटगांव गया पाकिस्तान

चटगांव के पहाड़ी इलाके में 96% आबादी नॉन मुस्लिम थी. लेकिन फिर भी बाउंड्री कमीशन ने ये इलाक़ा पाकिस्तान को दे दिया. कांग्रेस ने इसका भरपूर विरोध भी किया. लेकिन जो हो चुका था, उसे बदला नहीं जा सकता था. तब चकमा रियासत के राजा हुआ करते थे, नलिनाक्ष रॉय. नलिनाक्ष 1935 में राजा बने थे. वो अपनी सत्ता बनाकर रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने पाकिस्तान में विलय के एवज में उससे एक वादा लिया, जिसके अनुसार उनकी स्वायत्तता बरकरार रहनी थी. लिहाज़ा विलय के बाद भी नलिनाक्ष राजा बने रहे. लेकिन फिर विलय के कुछ साल बाद चकमाओं के लिए मुसीबत शुरू हो गई. 1951 में नलिनाक्ष रॉय की मौत हो गई. जिसके बाद उनके बेटे त्रिदेव रॉय को राजा बनाया गया.

यहां पढ़ें -दुनिया का सबसे खुशकिस्मत आदमी जो तीन बार फांसी के बावजूद जिंदा बच गया!

त्रिदेव रॉय कम अनुभवी थे. लिहाज़ा पाकिस्तान सरकार से डील करने में उनसे चूक हो गई. 1962 में उनके इलाके से बहने वाली एक नदी पर सरकार ने बांध बना दिया. ये बांध कर्णफुली नदी पर बनाया गया था. जिसने चकमाओं के गांवों में बाढ़ ला दी. चकमा लोग अल्पसंख्यक होने के चलते पहले से परेशान थे. इस बाढ़ ने उन्हें और भी मजबूर बना दिया. इससे हुआ ये कि चकमा लोग सरहद पार कर भारत की तरफ जाने लगे. थोड़ा विषयांतर करें तो चकमाओं का मुद्दा इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि 2019 में जब नागरिकता संशोधन कानून पास किया गया. चकमाओं ने भारतीय नागरिकता की मांग उठानी शुरू कर दी. जिसका उत्तर पूर्व के स्थानीय लोगों द्वारा काफ़ी विरोध हुआ था.

बहरहाल, 1960 का दशक ख़त्म होते होते पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच गड़बड़ होना शुरू हो चुकी थी. पूर्वी पाकिस्तान में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए. चकमाओं की स्थिति नाज़ुक थी. उनके राजा त्रिदेव रॉय, बांग्ला विरोधियों या पाकिस्तानी फ़ौज, दोनों को नाराज़ नहीं करना चाहते थे. इसलिए इस पूरे हंगामे के बीच त्रिदेव रॉय ने न्यूट्रल रहना चुना. लेकिन फिर उन्हें एहसास हुआ कि सत्ता के साथ रहना फायदे का सौदा है. इसलिए बाद के दिनों में वो पश्चिमी पाकिस्तानी सरकार के पलड़े में झुकने लगे. इसके बावजूद 1970 में जब पाकिस्तान में इलेक्शन हुए, शेख़ मुजीब उर रहमान ने उन्हें अपनी पार्टी से इलेक्शन लड़ने का ऑफर दिया. त्रिदेव रॉय ने इंकार कर दिया. और स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर इलेक्शन में खड़े हुए. त्रिदेव अपनी सीट जीत भी गए. हालांकि देश में ज्यादा सीटें मुजीब की अवामी लीग को मिली. पूरे पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग सिर्फ़ दो सीटों में हारी थी. जिनमें एक त्रिदेव रॉय की सीट थी.

बौद्ध राजा ने गद्दी छोड़ी 

इसके बाद पाकिस्तान का क्या हुआ? उस कहानी से हम वाक़िफ़ हैं. मुजीब की पार्टी को ज्यादा सीट मिली थीं. इसके बावजूद पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या खान ने उनके विपक्षी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को सरकार बनाने का न्यौता दिया. इसका नतीजा हुआ कि पूर्वी पाकिस्तान ने बग़ावत कर दी. पाक फ़ौज ने बंगालियों का नरसंहार किया. 1971 का युद्ध शुरू हुआ. और अंत में पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए. इस दौरान आश्चर्यजनक रूप से त्रिदेव सिंह चुप बैठे रहे. यहां तक कि उन्होंने नरसंहार की आलोचना तक नहीं की. 1971 का युद्ध शुरू होने तक त्रिदेव रॉय को लग रहा था कि उन्होंने सही पलड़ा चुना है. लेकिन फिर जल्द ही उन्हें हक़ीक़त का सामना करना पड़ा.

baudh king pakistan
1971 में त्रिदेव रॉय पाकिस्तान की तरफ झुके हुए थे

पाकिस्तान की हार के बाद जब बांग्लादेश का गठन हुआ, त्रिदेव रॉय ने खुद को बड़ी मुसीबत में पाया. बांग्लादेश के लोग युद्ध के बाद पाकिस्तान के समर्थकों को चुन-चुन कर सजा दे रहे थे. राजा त्रिदेव रॉय को लगा उनका भी जल्द यही अंजाम होगा. इसलिए उन्होंने गद्दी छोड़ने का फ़ैसला कर लिया. उनके 12 साल के बेटे देवाशीष को राजा बनाया गया. त्रिदेव रॉय को लगा था, इससे उन पर फोकस हट जाएगा. लेकिन फिर हालात और बिगड़ने लगे. त्रिदेव रॉय की गलती का अंजाम चकमा लोग भुगत रहे थे.

त्रिदेव रॉय को अहसास हुआ कि जब तक वो बांग्लादेश में रहेंगे, चकमा लोग निशाना बनते रहेंगे. लिहाजा उन्होंने देश छोड़ने का फैसला कर लिया. त्रिदेव रॉय के पास सिर्फ एक ऑप्शन था. ये कि वो पाकिस्तान चले जाएं. 1971 में त्रिदेव रॉय पाकिस्तान गए. जहां खुले दिल से उनका स्वागत हुआ. बाक़ायदा पाकिस्तान की सरकार उनसे इतनी खुश थी कि उन्हें सरकार में मंत्री बना दिया गया. ये पाकिस्तान की चाल थी. पाकिस्तान जानता था कि त्रिदेव बांग्लादेश के खिलाफ काम आएंगे. और उन्होंने त्रिदेव का बखूबी उपयोग भी किया.

1972 में उन्हें पाकिस्तानी मिशन का लीडर बनाकर UN भेजा गया. ताकि वहां वो बांग्लादेश के दावे का विरोध कर सकें. ये शातिर चाल थी. लेकिन फिर बांग्लादेश के लीडर मुजीब भी माहिर खिलाड़ी थे. उन्होंने राजमाता बेनिता रॉय को अपने डेलिगेशन का लीडर बनाकर भेजा. बेनिता रॉय, त्रिदेव रॉय की माता थीं. UN में दोनों का आमना-सामना हुआ. और जीत हुई बेनिता रॉय की. 1974 में बांग्लादेश को UN जनरल असेम्बली की सदस्यता मिल गई. उधर त्रिदेव रॉय एक पराए देश में रह गए. अपने लोगों से दूर. उन्हें इस बात का दुख तो था. लेकिन फिर भी उन्होंने मौके का भरपूर फायदा उठाया.

1971 bangladesh war
त्रिदेव रॉय को जुल्फिकार अली भुट्टो ने पाकिस्तान का राष्ट्रपति बनने का ऑफर दिया था (तस्वीर: getty)
पाकिस्तान का होने वाला राष्ट्रपति 

ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, उन्होंने त्रिदेव रॉय को अल्पसंख्यक और पर्यटन मंत्रालय दिया. भुट्टो उन्हें राष्ट्रपति तक बनाना चाहते थे. लेकिन फिर पाकिस्तान का नया संविधान आड़े आ गया. इस संविधान के अनुसार पाकिस्तान का राष्ट्रपति कोई मुसलमान ही बन सकता था. त्रिदेव रॉय अगर राष्ट्रपति बनना चाहते थे, तो उन्हें इस्लाम धर्म अपनाना पड़ता. जीवन भर बौद्ध रहे त्रिदेव रॉय इसके लिए तैयार नहीं हुए. लिहाज़ा राष्ट्रपति की कुर्सी उनके हाथ नहीं आ सकी. त्रिदेव की ज़िंदगी एक और बार बदली जब ज़िया उल हक़ सत्ता में आए.

यहां पढ़ें- जिन्ना के अंतिम संस्कार की रस्म छिपाकर क्यों की गई?

1977 में पाकिस्तान में सत्ता पलट हुआ. ज़िया उल हक़ ने भुट्टो को फांसी पर चढ़ा दिया. साथ ही उन्होंने भुट्टो के करीबियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. जिया ने त्रिदेव रॉय को ठिकाने लगाने के लिए उन्हें राजदूत बनाकर दूर अर्जेंटीना भेज दिया. त्रिदेव तभी लौट पाए, जब 1998 में ज़िया उल हक़ की एक प्लेन क्रैश में मौत हो गई. जिया की मौत के बाद त्रिदेव कुछ वक्त श्रीलंका में रहे. फिर पाकिस्तान लौटकर उन्होंने राजनीति से किनारा कर लिया. उन्होंने धर्म के प्रचार प्रसार का काम शुरू किया. वे पाकिस्तान बौद्ध समाज के हेड बने. और अपने अंतिम दिनों तक इस पद पर बने रहे. साल 2012 में उनकी मृत्यु हो गई. त्रिदेव रॉय पाकिस्तान में सुख चैन से जिए, लेकिन एक मलाल उन्हें हमेशा सालता रहा कि वो फिर कभी लौटकर अपने देश नहीं जा पाए.

वीडियो: तारीख: 5000 साल पुरानी ममी के एक्स-रे से क्या पता चला?

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement