भोजपुरी के पहले ऑर्केस्ट्रा बैंड वाले 'मोहम्मद खलील' की कहानी, जिनके रिकॉर्ड ढूंढे नहीं मिलते
जिसने कहा- भोजपुरी के लिए खुद को बेच दूंगा पर भोजपुरी को नहीं.
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यह लेख दी लल्लनटॉप के लिए मुन्ना के. पाण्डेय ने लिखा है. 1982 को बिहार के सिवान में जन्मे डॉ. पाण्डेय के नाटक, रंगमंच और सिनेमा विषय पर नटरंग, सामयिक मीमांसा, संवेद, सबलोग, बनास जन, परिंदे, जनसत्ता, प्रभात खबर जैसे पत्र-पत्रिकाओं में दर्जनों लेख/शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं. दिल्ली सरकार द्वारा ‘हिन्दी प्रतिभा सम्मान(2007)’ से सम्मानित डॉ. पाण्डेय दिल्ली सरकार के मैथिली-भोजपुरी अकादमी के कार्यकारिणी सदस्य भी हैं. उनकी हिंदी प्रदेशों के लोकनाट्य रूपों और भोजपुरी साहित्य-संस्कृति में विशेष दिलचस्पी. वे वर्तमान में सत्यवती कॉलेज(दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिंदी-विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं.
वह साठ के आसपास का समय रहा होगा जब भोजपुरी के रत्न गीतकार भोलानाथ गहमरी के लिखे गीत के शब्द "कवने खोंतवा में लुकईलू आई हो बालम चिरई" और देवेंद्र चंचल के लिखे "छलकल गगरिया मोर निरमोहिया, ढलकल गगरिया मोर"- की टांस भोजपुरिया अंचल में गूंजी और घर-घर में, गले-गले में बस गई. मोतिहारी के भवानीपुर जिरात मोहल्ला के रहने वाले भारतीय रेलवे के एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी मोहम्मद खलील का तबादला बलिया से इलाहाबाद हुआ. फिर इलाहाबाद वह जमीन बना जहां उनकी गायकी के शौक ने भोजपुरी के पहले बैंड या यूं कहिए कि ऑर्केस्ट्रा बैंड "झंकार पार्टी" को मजबूती से स्थापित किया, जिसके नींव बलिया की जमीन में डाली गई थी.
नबीन चंद्रकला कुमार ने इस झंकार पार्टी को भोजपुरी का पहला ऑर्केस्ट्रा बैंड बताते हुए लिखा है-
आज के दौर में जब भोजपुरी इलाके में ऑर्केस्ट्रा संस्कृति का मतलब एक खास तरह के नाच-गान रह गया है वहाँ मोहम्मद खलील का ऑर्केस्ट्रा इस अंचल की सबसे सार्थक सांगीतिक पहचान रहा है.सीताराम चतुर्वेदी के गीत "छलकत गगरिया मोर निरमोहिया" और "अजब सनेहिया बा तोर निरमोहिया" गाकर मोहम्मद खलील ने भोजपुरी गायकी में वह स्थान और कद पाया, जहां से यह पैमाइश की जाने लगी कि यह खलील की गायकी के पासंग है या नहीं. जिस वक़्त भोजपुरी नित नए गायकों के अलबमों की बाढ़ टी-सीरीज जैसे बड़े कंपनियों और चंदा, नीलम जैसे स्थानीय कैसेट कंपनियों से आ रही थी, उस दौर में भी खलील के गायन के स्तर का कोई गायक न हुआ. मोहम्मद खलील की गायन प्रतिभा के लिए भोजपुरी के शिखर साहित्यत्कार कैलाश गौतम ने कहा था-
अब गीत तो हैं पर मोहम्मद खलील के अंदाज़ में टेर लगाने वाला कोई गायक नहीं है. खलील के गीत में आकर्षण ही आकर्षण है. थथमल मीठी आवाज़, अद्भुत संतुलन, खलील का अंदाज़ और गीतों का नयापन, यही था खलील के घर-घर पहुंचने का कारण. अब तो पता नहीं वैसे गीत लिखे जा रहे हैं कि नहीं, आगे खलील जैसे गायक होंगे या नहीं.
मंच पर गाते मोहम्मद खलील.
वाकई नब्बे के शुरू में मधुमेह से ग्रस्त मात्र पचपन साल की उम्र में 1991 में जैसे ही मोहम्मद खलील इस दुनिया से रुखसत होते हैं, भोजपुरी गायकी एक अंधेरे कुएं में उतरती है और भोजपुरी को नोच खाने वाले गायकों की बाढ़ सी आती है पर खलील तक पहुंचने की कुव्वत किसी में नहीं होती. क्षणिक लोकप्रियता और अदूरदर्शिता ने भोजपुरी गायकी में एक शून्य पैदा किया, जिसकी भरपाई करने की कोशिश किसी की नहीं रही. बाद के गायकों ने कोशिश की लेकिन बाजार कहिए कि अधैर्यता कोई उस पैमाने पर खरा न उतरा. गले में शास्त्रीयता ला सकते हैं सुरीलापन ला सकते हैं, मुरकियां लगा सकते है, ऊंची तान मार सकते हैं पर मोहम्मद खलील के गाये गीतों की साहित्यिकता, गले की टांसदार, संतुलित आवाज़ और लोक का स्वच्छंद उल्लास कहां से लाते.
वह मोहम्मद खलील के गायकी में थी, शायद यहीं वजह जो उन्हें दूसरों से खास बनाती थी. सरस्वती का उनके गले ही नहीं चित्त में भी वास था. आज खलील होते तो पटेया नहीं किस पाले में जबरिया धकेले जाते लेकिन जब तक उनकी गायकी और झंकार पार्टी सलामत रही, गायकी की शुरुआत सरस्वती वंदना और देवी गीत ही गाया जाता था. "बिनइले सारदा भवानी, पत राखीं महारानी" और " माई मोरा गितिया में अस रस भरि दे, जगवा के झूमे जवानी" - भोजपुरी जगत में सरस्वती वंदना के शास्त्रीय मंत्र के सामने लोक की सीधी उपस्थिति है.
मोहम्मद खलील को इलाहाबाद में चंदर परदेसी(हारमोनियम), इकबाल अहमद (वायलिन), हजारीलाल चौहान (बांसुरी) और मो. इब्राहिम (ढोलक) पर संगत में मिले और महेंद्र मिश्र, श्रीधर शास्त्री, उमाकांत मालवीय, भोलानाथ गहमरी, राहगीर बनारसी, युक्तिभद्र दीक्षित, मोती बी.ए., बेकल उत्साही, पंडित हरिराम द्विवेदी जैसे गीतकारों के शब्दों को अपने गले में बिठाकर मोहम्मद खलील ने भोजपुरी गायकी में अपनी प्रतिभा का डंका पीट दिया. बाद के समय तो भोलानाथ गहमरी और मोहम्मद खलील का साथ एक दूसरे से ऐसे जुड़ा गोया सुर और ताल एकसम हो गए.
मंच पर लाल घेरे में मोहम्मद खलील.
मोहम्मद खलील ने भोजपुरी के हर मिज़ाज़ के गीत गए और एक से बढ़कर एक गाए. उनके कुछ बेहद चर्चित गीतों में "प्रीति करीं अइसे जईसे कटहर के लासा"/"गोरी झुकी झुकी काटेली धान, खेतिया भईल भगवान"/"सावन है सखी सावन"/"छिंटिया पहिर गोरी बिटिया हो गईली"/"लेले अईहा बालम बजरिया से चुनरिया"/"लाली लाली बिंदिया"/"प्रीति में ना धोखाधड़ी, प्यार में ना झांसा"/ "अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया हो"- प्रमुख हैं.
मोहम्मद खलील के गाए गीतों ने आगे आने वाले कई गीतकारों को न केवल तुकबंदी करने, शब्दों के मेल बिठाने की अक्ल दी बल्कि संगीतकारों को भोजपुरी संगीत की एक तमीज़ सिखाई. मो. खलील ऑल इंडिया रेडियो और बाद के सालों में दूरदर्शन पर भोजपुरी गायकी की अनिवार्य उपस्थिति हो गए थे. लेकिन एस डी ओझा एक अफसोस के साथ लिखते हैं-
जिसने भोजपुरी की नई राह रची, उसके रिकॉर्ड बाज़ार में नहीं हैं. रेडियो स्टेशनों या दूरदर्शन में हो तो हों.एक पूरी पीढ़ी जिस गायक को सुन सुन रीझती रही उसके रिकॉर्ड उपलब्ध ना होना, भोजपुरी सांगीतिक परम्परा की सबसे बड़ा दुर्भाग्य है पर भोजपुरी के साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को सहेजने वाले ऑनलाइन पोर्टल आखर ने अपने प्लेटफॉर्म पर उनके गीत, उन्हीं की आवाज़ में ही संग्रहित किए हैं. हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद साहब मोहम्मद खलील की इस प्रतिभा के मुरीद थे. दयानंद पांडेय मोहम्मद खलील पर लिखे अपने एक लेख में दर्ज करते हैं, नौशाद उन्हें मुम्बई लेकर आए तो वह अपने साथ परंपरागत साज़ों के साथ ही पहुंचे. नौशाद जब उनको गायकी में तब्दील करने को कहते तो एक दिन आज़ीज़ आकर नौशाद से उन्होंने हाथ जोड़कर कहा -
नौशाद साहब जरूरत पड़ी तो मैं भोजपुरी के लिए खुद को बेच दूंगा पर अपनी कमाई के लिए भोजपुरी को नहीं बेचूंगा.' और वह चुपचाप अपनी टीम लेकर वापस इलाहाबाद लौट आए.भोजपुरी का आज का अधिकतर सांगीतिक परिदृश्य जहां फूहड़ शब्द, गायकी और दृश्य के षड्यंत्रों में डूबा हुआ है, वहां भोजपुरिये गर्व से सीना ताने कह सकते हैं कि एक दौर वह रहा है, जब हमारे मोहम्मद खलील भी हुए थे, जिसने रेलवे की नौकरी की और भोजपुरी की सेवा. वह दौर था जब भोजपुरी गायकी में द्विअर्थी गीत, ऑकवर्डनेस नहीं, उसका खालिस सौंदर्य था. जिसमें ऑडिएंस के भेद का थोथा तर्क नहीं था. मो. खलील को मरणोपरांत 'भोजपुरी रत्न' से सम्मानित किया गया. 90 के शुरू में जैसे ही बाजार और उसके प्रभाव में भोजपुरी समाज और संगीत ने करवट ली, मोहम्मद खलील की विरासत भी विदा (1991) हो गई. मोहम्मद खलील के गाये गीत 'कवने खोतवां में लुकइलु आईहो बालम चिरई' की मानिंद आज की भोजपुरी की समृद्ध गायकी भी कहीं छिप गई है.
मोहम्मद खलील की आवाज़ में कुछ गाने सुनते जाइए.
अंगुरी में डंसले बिआ नगिनिया
ले ले अइहा बालम बजरिया से
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