असम: बंद हो चुकी कछार पेपर मिल की कहानी लल्लनटॉप के रिपोर्टर से सुनिए
''जब मिल चालू थी, तब खाने को नहीं मिला, मिल बंद हो गई अब भी भूखे हैं''
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''आप तो बड़ी साफ हिंदी बोलते हैं.''
''हां न. आगरा से हूं. इसलिए.''
यहां से बात शुरू हुई थी. हाफलौंग से सिलचर के रास्ते पर मिले थे वो. उन्होंने बताया कि वो ऑटोक्लेव्ड कॉन्क्रीट ब्लॉक बनाने वाली कंपनी में काम करते हैं. जेरी ने पूछा कि ये क्या होता है, तो वो बड़ी तसल्ली से बताने लगे- ईंट है. लेकिन कॉर्क होता है न, वैसी. मज़बूत. हल्की. पार्टीशन वॉल में लगाएंगे तो आवाज़ भी नहीं गूंजेगी. और सस्ती भी होती है. बस बाहर की दीवारों के काम नहीं आती.
उन्होंने ऑटोक्लेव भी समझाया था. गर्मी और प्रेशर का मेल करने वाली मशीन. बहते पानी की तरह वो बोल रहे थे, तब मुड़कर उन्हें देखा. सफेद शर्ट. चश्मा. पैंट का रंग मुझे याद नहीं अब. उन्होंने पूछा कि दिल्ली पासिंग गाड़ी लेकर कहां जा रहे हैं. बताया कि चुनाव कवर करने जा रहे हैं. सिलचर जाएंगे. फिर हैलाकांडी - करीमगंज की तरफ.
रूट सुनकर उनकी आंखें चमकती हैं. सर, मेरी मिल में जाइएगा. कछार पेपर मिल. एचपीसी का प्लांट है. बंद हो गया. पांच साल से किसी को पैसा नहीं मिला. जो जमा था, वो भी नहीं. ह्यूमन स्टोरी की तलाश में नौसिखिए रिपोर्टर ने पहले से तैयार स्पीच पढ़ा - ''आपकी कहानी कहने को आए हैं. हम तो कवर ही इशू करते हैं. चुनाव तो चलता रहेगा. आपकी आवाज़ उठाएंगे.''
फिर अपने पुरखों की सीख पर कॉन्टैक्ट मांग लिया. कॉन्टैक्ट मिल भी गया. पैसा देने दुकान की ओर बढ़े तो साफ हिंदी बोलने वाले ने साफ बंगाली में भी कुछ बोल दिया- इनसे पैसे मत लेना. ''नहीं-नहीं. ऐसा ऐसा मत कीजिए. ये सब कॉस्ट टू कंपनी है. चाय-पानी के लिए अलग से भी पैसा मिलता हैं.''
कछार पेपर मिल. फोटो- निखिल
लेकिन वो टस से मस नहीं हुए. बोले कि मैं आपको चाय पिला दे रहा हूं. आप पैसा मत दीजिए. आप मेरी मिल में जाइएगा. 83 लोग उमर से पहले मर चुके हैं. 3 ने खुदकुशी कर ली. न जाने कितने करने वाले हैं. मेरा नाम मत लीजिएगा. वहां लोग आपसे कहेंगे कि मिल चालू करवाओ. नहीं चालू होगी. लेकिन हमारा पैसा दे देना चाहिए. आप एक बार जाइए. मैं बात करवा दे रहा हूं. इस तरह तय हुआ कि पांचग्राम जाएंगे. हिंदुस्तान पेपर कॉर्पोरेशन की कछार पेपर मिल देखने. कछार पेपर मिल की ओर चल पड़े सिलचर से करीमगंज के रास्ते पर शहर से कुछ दूर एक रास्ता हैलाकांडी की तरफ फूटता है. उसपर चलते हुए दाईं तरफ चावल के खेतों के पार एक विशाल कारखाना दिखता है. ''हां मिल वही है. लेकिन सर वो एंट्रेंस नहीं है'', फोन पर समझाइश आती है. ''वापस आइए. टी पॉइंट से फिर करीमगंज की तरफ.'' एक बार रास्ता भूल चुकी गाड़ी अब थोड़ा आस्ते चलने लगती है. एक नदी और एक मछली बाज़ार के बाद एक अधेड़ सड़क पर खड़े हैं. अपना काम छोड़कर किसी की राह देखता आदमी दिख जाता है कि परेशान है. ''सर मेरी बेटी की तबीयत खराब है. इफ यू डोंट माइंड, आपको आगे हमारे असोसिएशन के सेक्रेटरी साहब ले जाएंगे. मेरी बेटी की तबीयत खराब है.''
सेक्रेटरी कहते हैं कि बस थोड़ा आगे चलना है. मैं गाड़ी की तरफ बढ़ता हूं. तो सेक्रेटरी बाइक निकालने लगते हैं. बाइक और गाड़ी के बीच की दूरी एक असहजता पैदा करती है. ''मैं बाइक पर चलूं आपके साथ? गाड़ी फॉलो कर लेगी.'' सेक्रेटरी साहब बैठा लेते हैं. एक फैक्ट्री के बंद गेट के सामने रेलवे लाइन के सहारे रास्ता पांचग्राम स्टेशन के ठीक बगल से एक टाउनशिप में मुड़ जाता है. एक क्वार्टर के आगे चार पांच लोग जमा दिखते हैं. पास में काली का एक छोटू सा मंदिर. यहीं पर बात होनी है. चार पांच कुर्सियां लगी हैं. नौसिखिया रिपोर्टर लगातार वीडियो से पहले का रैपो बिल्ड करने के लिए बात करने लगता है. बीच बीच में उसे मारक थंब के लिए लाइनें सुनाई आती रहती हैं. लेकिन अभी रिकॉर्डिंग लायक भीड़ नहीं है. न ही बैकग्राउंड है. मालूम कैसे चलेगा कि बंद फैक्ट्री के कर्मचारियों से बातचीत हो रही है?
इंजन जो कभी चल ना सका. फोटो- निखिल
कुछ देर बाद जेरी कहता है कि चालू करते हैं. तो सेक्रेटरी साहब कहते हैं कि हमारे प्रेज़िडेंट आ जाएं. बस पांच मिनिट. मौके पर मौजूद लोग ताड़ा-ताड़ी फोन घुमाने लगते हैं. मीडिया. दिल्ली. आश्चे. प्रेज़िडेंट आते हैं और नौसिखिया रिपोर्टर शेखी बघारते हुए एक ओपनिंग देने की कोशिश में लड़खड़ा जाता है. लेकिन एक लाइन आपको फील्ड पर हमेशा बचा लेती है - आइए इन लोगों से जानें क्या मुद्दा है. इस मिल की कहानी क्या है? हिंदुस्तान पेपर कार्पोरेशन की एक मिल है सिलचर के पास हाइलाकांडी ज़िले के इलाके में. पांचग्राम में. कछार पेपर मिल्स. सत्तर के आखिर में बनी, ट्रायल प्रॉडक्शन शुरू हुआ. 80 के दशक की शुरुआत से कागज़ बनने लगा. केंद्र सरकार की यूनिट. सब सही चल रहा था. फिर 2015 में अचानक बंद कर दी गई. क्यों और कैसे, ये भारत में पब्लिक सेक्टर के पतन की प्रतिनिधि कहानी हो सकती है. या पतन के साज़िश की.
2015 में मिल इसलिए बंद हुई क्योंकि एक पार्टी (मिल में सामान या सेवा सप्लाई करने वाला) ने हिंदुस्तान पेपर कॉर्पोरेशन को नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल में घसीट लिया था. वजह - 98 लाख का एक पेमेंट नहीं हुआ था. मिल में काम रुक गया. प्रोडक्शन एकाएक बंद हो गया. किसी को कुछ समझ में नहीं आया कि पार्टी का पेमेंट करके मिल शुरू क्यों नहीं की जाती. तब मिल में तकरीबन ढाई सौ करोड़ का पेपर तैयार था. डिस्पैच नहीं हुआ. 30-35 करोड़ का बांस, चूना और कोयला पड़ा हुआ था. उसे भी नहीं बेचा गया. मिल के पास खरबों की ज़मीन की तो बात ही अलग है.
मिल से जुड़ी चीजें ऐसे ही बंद पड़ी हैं. फोटो- निखिल
मिल बंद होते-होते हिंदुस्तान पेपर कॉर्पोरेशन ने एक रेल का इंजन खरीदा. ताकि मिल में रेल के डिब्बों को इधर से ऊधर किया जा सके. इसकी डिलिवरी मिल बंद होने के बाद हुई. पेमेंट हुआ 1 करोड़ 30 लाख के करीब. ये उस 98 लाख की रकम से 32 लाख ज़्यादा है, जितना चुकाकर मिल शुरू हो जाती, और इंजन काम आता. लोगों का क्या कहना है? सरकार ने कभी चाहा होगा कि मिल में बनने वाला कागज़ रेल के रास्ते ढोया जाए. तो भारत सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ डेवलपमेंट ऑफ नॉर्थ ईस्टर्न रीजन (DoNER) ने पांचग्राम से मिल के अंदर तक एक रेल साइडिंग बना दी. मिल बंद होने के बाद. गूगल कीजिएगा कि 1 किलोमीटर रेल लाइन बनाने में कितना खर्च आता है. वो 98 लाख से ज़्यादा नहीं हुआ तो पइसा वापस.
''लोग कहते हैं पीएसयू में कहां काम होता है. क्वालिटी नहीं...'' इस सवाल पर लोग यूरोप के उन देशों के नाम बताने लगते हैं जहां कागज़ जाता है. कागज़ की किसमें बताने लगते हैं जो बनती थीं. डिविडेंट बताने लगते हैं जो मिल ने हर साल दिया. ये रकम भी 98 लाख से सौ-सौ गुना थी. ''सर मिनिरत्न था, मिनिरत्न. आसपास देखिए. सब बंबू है. रॉ मटेरियल है. इससे बढ़िया मिल ही नहीं हो सकती. आज भी हमें काम करने दें तो कुछ नहीं तो 100 करोड़ का मुनाफा कमाकर दे देंगे. बच्चा पढ़ता है तो कागज़ लगता है. जब हम बनाते थे, तब कागज़ की कीमत देखिए. आज बंद है, तो दोगुना हो गया है. दो प्राइवेट पार्टी बची है मार्केट में. चीन और बांग्लादेश से कागज़ इंपोर्ट हो रहा है सर.''
कागज़. इनके बच्चे बाहर पढ़ते थे. मेडिकल. मैनेजमेंट. टाउनशिप के केंद्रीय विद्यालय में पढ़े बच्चे. वापस बुला लिए गए. इनके बच्चे पढ़ नहीं पा रहे क्योंकि कागज़ की फैक्ट्री बंद हो गई. इनकी फैक्ट्री बंद है इसलिए उस गरीब के बच्चे के लिए कागज़ दोगुना महंगा हो गया, जो बच्चा पढ़ाना चाहते हैं.
इस मिल में कभी हाई क्लास कागज बनता था. फोटो- निखिल
''चुनाव आ रहे हैं. आपने नेता वगैरह से बात तो की होगी...'' इसके बाद एक लंबे-लंबे मोनोलॉग बताते हैं कि दिल्ली-गुआहाटी सब हो चुका. 20 बार सोनोवाल से मिल लिए. उन्होंने कहा प्रेस्टीज इशू है. चालू कर दूंगा. नहीं कर पाए. मिल कायदे से मोदीजी की है. उन्होंने भी कहा था, नहीं किया. ऐसा एक वादा तब हुआ जब भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद मंच पर थे. वादा नहीं निभाया गया. नौसिखिया रिपोर्टर आंख फाड़ फाड़कर सुनता है. एक के बाद एक उद्योग मंत्रियों, मेमोरैंडम, डेलिगेशन और आंदोलनों का ज़िक्र होता है.
लोकसभा से पैसा पास हुआ. नहीं मिला. हिंदुस्तान पेपर कॉर्पोरेशन को अरबों देने की बात हुई. पैसा कहां है, किसी को नहीं मालूम. 6 साल से पैसा फंसा है. एक पाई नहीं मिली. लेकिन कर्मचारी काम करते हैं - ऑनररी सर्विस. माने क्या? ''सर बहुत बड़ा सिस्टम है न. मिल है. टाउनशिप है. उसे चलाना पड़ता है. पानी की सप्लाई हम लोग करते हैं. पंप हाउस चलाना वगैरह. बिजली सप्लाई चलाते हैं. असम की सरकार ने एक अहसान किया हमपर. बिजली नहीं काटी.''
पैसे के बिना काम वाली बात पर रिपोर्टर के सवाल से पहले एक कर्मचारी हाथ उठाकर उनपर लगी कालिख दिखा देता है, ''इलेक्ट्रिक का आदमी हूं सर. अभी सब-स्टेशन से आया हूं. बेनेफिट सिर्फ हमको नहीं है. सरकार को चुनाव के लिए सीआरपी को रोकना है, टाउनशिप में रुकेगी. सरकार को कोविड के मरीज़ को रखना है, टाउनशिप में रखेगी. इनको बिजली-पानी देते हैं हम.''
''सर आपको सुबह या शाम को आना था. अभी आदमी अपना-अपना काम पर जाता है. पत्थर तोड़ता है, होटल का प्लेट धोता है.'' बावजूद इसके जैसे-जैसे वीडियो लंबा होता है, आते-जाते लोग भीड़ में जुटते जाते हैं. माइक वाला लड़खड़ाता है, या कुछ काम का मिस करता है तो पीछे से बताते रहते हैं. उन्हें कैमरे पर नहीं आना है. जो अच्छा बोलता है, उसे वो कैमरे के सामने बने रहने देते हैं. अच्छी बाइट देना ज़रूरी है. तभी तो मीडिया वाला चलाएगा. गुस्सा और खीज भी दिखी क्लोज़िंग के साथ वीडियो बंद होता है. छंटती भीड़ में से उस व्यक्ति को खोजा जा रहा है जो दिल्ली वालों को मिल ले जाएगा. तभी एक आदमी अपनी एक हथेली पर मुक्का मारते हुए ज़ोर ज़ोर से कुछ कहता है, ''केजवाल का कुछ नहीं क्या साहब?'' ''सर ये कैजुअल था.'' आदमी को समझाने की कोशिश चल रही है. कि बाइट हो गई है. कैमरा बंद हो गया है. ये लोग तुम्हारा बता देंगे. हमने भी तुम्हारा बता दिया. लेकिन आदमी को भरोसा नहीं है. कैमरा फिर से निकलता है. अब इस बाइट को कनेक्ट करने के लिए भी कुछ चाहिए. सब रटा रटाया है - ''यहां कुछ ऐसे कर्मचारी भी मिले, जो कैज़ुअल थे. आइए इनसे बात करते हैं...''
''जब मिल चालू थी. तब खाने को नहीं मिला. भूखा रहा. मिल बंद हो गई अब भी भूखा है. अपना कमाके अब खा लेता है. जाना है, तो बोलते हैं अथॉरिटी से लिखाके लाओ. अरे मेरेको जाने दो. मेरा डी भोटर कर दिया साहब. मै देता है कागज. मेरा दादा कालीबाड़ी दिया मिल बनाने को. मेरा बाप इधर पैदा हुआ. मै दैता है कागज. लेकिन तुम बी दो. बताओ तुम यहां का माटी पर कबसे है. मै भी देता है. तुम भी दो.''
पीछे से एक हाथ महसूस होता है, ''कट कर लीजिए.'' उस आदमी की खोज पूरी नहीं हुई है जो मिल ले जाएगा. सबको दिहाड़ी पर लौटना है. तब एक बाइक वाला कर्मचारी तैयार होता है. फॉलो कीजिए. लेकिन कर्मचारियों की असोसिएशन के प्रेज़िडेंट हमें अस्पताल दिखाना चाहते हैं. ''यहां केवी, हॉस्पिटल सब था सर. देखेंगे?'' इनोवा अब टाउनशिप के अंदर जाती है. नौसिखिया रिपोर्टर बीच-बीच में अपनी तेज़ नज़र का सबूत सब पर थोपने के लिए गाड़ी की खामोशी तोड़ता रहता है, ''अच्छा, यहां बच्चों का पार्क था. जेरी ये सेव एचपीसी का फोटो लेना.''
आज मिल ऐसी हालत में दिखती है. फोटो- निखिल
गेट बहुत दिनों से खोला नहीं गया है. तो प्रेज़िडेंट साहब खुद उतरकर गेट खोलना चाहते हैं. इनोवा का दरवाज़ा नहीं खोल पाए तो सकुचा जाते हैं. रिपोर्टर बिना उनकी तरफ देखे दरवाज़े वाले लीवर को खींच देता है. जेरी अस्पताल का शॉट लेने अंदर जाता है. कुछ देर बाद प्रेज़िडेंट साहब का फोन बजता है. उधर से क्या कहा गया, मालूम नहीं. लेकिन समझ आ रहा है कि कोई हमारे इंतज़ार में लेट हो रहा है. प्रेज़िडेंट साहब फोन पर कहते हैं,''कोई दिल्ली से आया है मदद करने. और हमारे पास उन्हें कवर कराने के लिए टाइम नहीं है क्या?''
ये बात समझ आने लगती है कि यहां लोग छह साल में कवरेज करवा-करवाकर थक चुके हैं. रिपोर्ट बनावाने में दिन लगा दिया तो आज खाएंगे क्या? लेकिन क्या मालूम एक और रिपोर्ट से काम बन जाए. इसलिए नौसिखिया रिपोर्टर आज पांचग्राम पहुंचा वीवीआईपी है. जेरी के अंदर का वीडियो जर्नलिस्ट जाग गया लगता है. वो वक्त ले रहा है. एक आवाज़ गूंजती है, अबे जेरी हो गया. प्रेज़िडेंट कहते हैं वीडियो बनाने दीजिए. आइए आपको भी अदर ले जाते हैं. ''यहां हमसे ज़्यादा तो आस-पास की बस्ती के लोग आते थे सर.''
रिपोर्टर, नौसिखिया है. इसलिए उसे सर सुनकर अच्छा तो बहुत लगता है. लेकिन हल्की सी ढलान पर बढ़ते हुए प्रेज़िडेंट साहब की बात में उसे अपने बाप के हांफने की आवाज़ सुनाई देने लगती है. उनकी सांस भी अब चलते हुए चढ़ने सी लगती है. बाप की याद के साथ-साथ शर्म भी आती है. वो कहता है, ''आप पापा की उमर के हैं, नाम लीजिए. सर मत कहिए.''
अस्पताल में दाखिल होने के बाद पहली बार नज़र आता है कि कैसे ज़िंदगी यहां एक दम से ठहर गई है. मेटरनिटी वार्ड. ओपीडी. स्ट्रेचर. दवा के बक्से. जो चोरी हो सकता था, हो गया है. गाय कुछ चर रही है. उसे टोकने वाला कोई नहीं है. कांच टूट गया है. लेकिन ओपीडी का टाइम लिखा हुआ है. सुबह 9.30. वापसी के रास्ते में एक और सुंदर इमारत दिखती है.
''कम्यूनिटी सेंटर था सर. अब छत गिर रही है. सब बर्बाद हो गया.'' जेरी सेव एचपीसी की इबारत की तस्वीर ले रहा है. ''ये हमारे बच्चे लोग एक मार्च किए थे सर. बेग किया था. तब लड़कों ने लिखा था.''
प्रदर्शन के लिए ही सही, बच्चों के भीख मांगने की बात पर आवाज़ कुछ दरकती सुनाई देती है. नौसिखिया रिपोर्टर प्रेज़िडेंट साहब की तरफ देखने की हिम्मत नहीं करता. गाड़ी दोबारा बच्चों के पार्क के सामने से गुज़रती है. झूला अब भी खाली है. जेरी को मार्केट भी दिख गया है. ''यहां सुबह शाम मार्केट लगता था सर.''
अब हम फैक्ट्री के गेट पर हैं. काली वर्दी में कुछ गार्ड खड़े हैं. प्राइवेट कंपनी के गार्ड. ''पहले सीआईएसएफ थी सर. अब ये प्राइवेट वाला आदमी है. मैं बात करके आता हूं.'' बात बनती न देख रिपोर्टर गाड़ी से उतरता है. बांग्ला में बात चल रही है. सिलहट से लगा इलाका है. तो भाषा में वहीं का पुट है. (ये बात गाड़ी में बैठे एक वॉलेंटियर ने बताई थी.)
प्रेज़िडेंट साहब और केमिकल डिपार्टमेंट से एक कर्मचारी उसी फैक्ट्री में अपने साथ गेस्ट ले जाने के लिए माथापच्ची कर रहे हैं, जहां वो बड़े गर्व से कभी अपने साथ विज़िटर ले जाते थे. उनके साथ आए रिश्तेदार और रिश्तेदारों के बच्चों को दिखाने कि कागज़ कैसे बनता है. ''सर फोन किया है. बोल रहा है ऊपर वाले से बात करो. मैं फोन कर रहा हूं सर.''
तब कुछ ढील इधर से ही दे दी जाती है, ''हम गाड़ी नहीं ले जाएंगे. जेरी भी अंदर नहीं जाएगा. कैमरा आप रख लीजिए. मैं पैदल चला जाऊं?'' ''सर हम नहीं रोक रहा है. ऊपर से बोला है बाहर से रिपोर्टर अंदर नहीं जाने देना.''
फोन-फोन-फोन के बीच एंट्री गेट पर सुरक्षा के लिए नसीहतें हैं. क्वालिटी के लिए. कर्म ही पूजा है. कागज़ और कच्चे माल का हिसाब दिखाता डिजिटल मीटर. हादसों का हिसाब दिखाता बोर्ड.
''एक्सीडेंट होते थे यहां?'' केमिकल डिपार्टमेंट के कर्मचारी को अब नौसिखिया रिपोर्टर से सीधे बात करने का मौका मिला है, ''कॉस्टिक बनता था न सर. सोडियम हाइड्रॉक्साइड. साबुन में काम आता है. बेसिक इंग्रीडेंट. गैस जमा होता था तो धमाका होता था. आदमी भी मरा कुछ. आस-पास में साबुन फैक्ट्री था. बंद हो गया. लाइमस्टोन फैक्ट्री था 7-8. बंद हो गया.'' आखिरकार अंदर पहुंचा रिपोर्टर इतने में एक गार्ड साहब राज़ी हो गए हैं. रिपोर्टर पैदल साइडिंग तक जाएगा. गार्ड साथ जाएगा. इसमें कोई रिस्क नहीं. लेकिन रिस्क है. जिनकी नौकरी गई है, उनकी खबर दिखाने का जुगाड़ बनाने वाले गार्ड की नौकरी पर रिस्क है.
प्रेज़िडेंट साहब मुझे वो रेल लाइन दिखाते हैं, जो फैक्ट्री बंद होने के बाद बनी. ताकी फैक्ट्री का माल बाहर जा सके. वो इंजन दिखाते हैं, जो आज तक एक इंच नहीं चला. वैसा का वैसा खड़ा है. ब्रॉन्ड न्यू. यार्ड में बांस पड़ा है. 6 साल में धूप और पानी खाते हुए उसका ढेर धंस रहा है. ऊपर से बेल चढ़ गई है.
''सर इधर से एक किलोमीटर आगे तक बैम्बू है. पहले मेरी हाइट से दोगुना ऊपर था सर. अब धंस गया. पावडर हो रहा है.'' रिपोर्टर कुछ गड़बड़ करे, उससे पहले गार्ड साहब कहते हैं, चलें? मिल की तस्वीरों का जुगाड़ हो गया है. मुझे प्रेज़िडेंट साहब के चहरे में सुबह देखे अधेड़ का चेहरा दिखने लगता है. अपना काम छोड़कर किसी और काम में लगा आदमी दिख जाता है कि परेशान है.
''सर इफ यू डोंट माइंड, मेरी वाइफ को आज वैक्सीन लगना है. मैं चलता हूं.'' नौसिखिया रिपोर्टर को थैंक्यू, आपने इतना किया, वक्त दिया वाला स्पीच याद है. लेकिन वो कुछ बोलता नहीं. जहां से तस्वीरें मिलती हैं, उनके फोन में झांकते हुए एक सवाल और कर देता है रिपोर्टर, ''तस्वीरें अच्छी खींचते हैं आप. ये क्या है?''
''मैं पेंटर है न सर. स्कूल में पेंटिंग बनाता है. अपने हाथ से बनाता है. मैं और मेरी बेटी बनाते हैं. दो दिन का काम एक दिन में कर लेता है सर.'' जेरी का सवाल है कि वो पेंटिंग के टीचर क्यों नहीं हुए? ''उसमें तनखा नहीं है न सर. फिर एज. मैं 50 अप्रोचिंग है. अब कौन देगा नौकरी. मैं स्कूल चलाया. वो भी बंद हो गया.''
क्या कभी कठार मिल फिर से चालू होगी? फोटो- निखिल
प्रेज़िडेंट साहब से नौसिखिया रिपोर्टर ने कुछ सकुचाते हुए पूछा था, ''वौ कैज़ुअल...'' ''पागल हो गया सर. माने पहले नहीं था. वो मिल बंद हो गया उसके बाद से पागल हो गया. लेकिन वो गलत नहीं बोला सर.''
आज-कल नया चलन है. दूसरे साइड का भी तो दिखाइए. दो मत हैं. दोनों बताइए. नौसिखिया रिपोर्टर इस कहानी के लिए सर्बानंद सोनोवाल, नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति, अनंत गीते (एक वक्त उद्योग मंत्री थे) वगैरह से बात नहीं कर पाया. कलकत्ता भी नहीं गया, जहां एचपीसी के बाबू बैठते हैं. फाइव डब्लू वन एच नहीं किया. क्योंकि नौसिखिया रिपोर्टर मक्कार है. उसका दिमाग भी नहीं चल रहा वैसे. उसमें एक ही आवाज़ बार बार घूम रही है, ''क्यों.'' बस एक बात का सुकून है. हाफलौंग से सिलचर के रास्ते पर चाय उसने मुफ्त पी थी. उसका स्वाद अब भी उसकी ज़बान पर है. लेकिन उधार थोड़ा कम महसूस हो रहा है.
जेरी वीडियो छापेगा. आप लोग देखना.