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जब औरंगज़ेब ने अंग्रेजों को नाक रगड़ने पर किया मजबूर!

औरंगज़ेब और अंग्रेजों के बीच ‘बच्चों’ वाली लड़ाई

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Aurangzeb Child's War British east India Company
ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1686–1690 के बीच औरंगज़ेब आलमगीर से जंग लड़ने की कोशिश की (तस्वीर: Wikimedia Commons)
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कमल
31 जुलाई 2023 (Updated: 31 जुलाई 2023, 11:32 IST)
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"सोने के आभूषण से लदा बादशाह तराजू के एक पलड़े में बैठा है. दूसरे पलड़े में रेशमी थैले भरे जा रहे हैं. दोनों पलड़े बराबर होते ही थैले हटा लिए जाते हैं. और उन्हें गरीबों में बांट दिया जाता है. इसके बाद कुछ और थैले आते हैं. बादशाह का वजन तोला जाता है, और एक बार फिर कार्यक्रम दोहराया जाता है. बताया जा रहा है कि थैलियों में सोने और चांदी के सिक्कें हैं. लेकिन मुझे शक होता है, कहीं इनमें पत्थर तो नहीं"

ये एक ब्रिटिश राजदूत द्वारा लिखा गया मुग़ल दरबार का ब्यौरा है. अब एक दूसरा ब्यौरा सुनिए.

"दो अंग्रेज़ बादशाह के आगे लाए गए हैं. कहने को दोनों दूत हैं, लेकिन हुलिया मुजरिमों जैसा है. हाथ बंधे हुए, गर्दन नीची और कंधे झुके हुए. आगे बढ़कर दोनों बादशाह के तख़्त के नजदीक पहुंचते हैं. और जमीन पर लोटने लग जाते हैं. दोनों गिड़गिड़ा भी रहे हैं और माफ़ी मांग रहे हैं."

इन दोनों वाकयों में 75 साल का अंतर था. पहले मौके पर मुग़ल बादशाह जहांगीर ने ब्रिटिश राजदूत की खूब आवभगत की. जबकि दूसरे मौके पर बादशाह थे औरंगजेब. जिन्होंने अंग्रेजों को लिटरली नाक रगड़ने पर मजबूर कर दिया था.

इंगलिश्तान- एक छोटा द्वीप

इस कहानी की शुरुआत होती है साल 1615 से. क्या हुआ इस साल? ब्रिटिश सम्राट ने अपना एक राजदूत भारत भेजा. थॉमस रो नाम था इनका. मकसद- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए व्यापार के रास्ते खोलना. थॉमस रो ने मुग़ल बादशाह जहांगीर को खूब सारी विलायती वाइन पिलाई. जहांगीर ने भी उनका खूब स्वागत किया लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी को व्यापार को मंजूरी न दी. देते भी क्यों. इंगलिश्तान तब एक छोटा सा द्वीप था. वहीं दुनिया की कुल GDP का 25% भारत से आता था. लिहाजा एक छोटे से राजा से डील करना, जहांगीर अपनी शान के खिलाफ समझते थे. जहांगीर तो नहीं माने, लेकिन उनके शहजादे शाहजहां ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को सूरत में फैक्ट्री खोलने की इजाजत दे दी.

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जॉब चारनोक/ 1686 में चाइल्ड ने ब्रिटेन से सिपाहियों की दो पलटनें भारत भिजवा दीं (तस्वीर: Wikimedia Commons)

अगले 50 साल में अंग्रेजों ने बंबई, मद्रास और बंगाल में अपने कारखाने शुरू कर दिए. धंधा मस्त था. कपास, रेशम, हीरे, खनिज और मलमल भारत से लन्दन भेजा जाता था. मोटी कमाई होती थी. शुरू में कम और बाद में ज्यादा. बदले में मुगलों को क्या मिलता था? 

शुरुआत में नियम था कि एक तय रकम बतौर टैक्स चुकाई जाएगी. लेकिन फिर होते-होते हुआ ये कि व्यापार तो बढ़ता गया लेकिन टैक्स की रकम ज्यों की त्यों रही. एक और चीज ये हुई कि पुर्तगाली और डच कंपनियां भी बंगाल में अपने ट्रेड में इजाफा करने लगी. ये देखकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपना एक नुमाइंदा शाइस्ता खां के भेजा. शाइस्ता खां कौन?
औरंगजेब के मामा और बंगाल के गवर्नर.

कंपनी का मुलाज़िम 

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी मुग़ल इलाकों में व्यापार का एकाधिकार चाहती थी. बंगाल को लेकर कम्पनी का विशेष आग्रह इसलिए था क्योंकि यहां शोरा बहुतायत में मिलता था. जो गन पाउडर बनाने के काम आता था. ये गन पाउडर यूरोप में चल रही लड़ाइयों में काम आता था. इसलिए कंपनी चाहती थी शोरा के ट्रेड पर उनकी मोनोपाली हो जाए. ये 1680 का दशक था, और इस वक्त ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टर हुआ करते जोसाया चाइल्ड. चाइल्ड आदमी ठीक थे लेकिन मुग़ल गवर्नर से सौदा तय करते वक्त तैश में कुछ ज्यादा लिख बोल गए. औरंगजेब को जब पता चला कि बित्ती भर का कम्पनी का नौकर तेवर दिखा रहा, उन्होंने वहीं डील कैंसिल कर दी.

जोसाया चाइल्ड जवान थे और जोश की उनमें कोई कमी न थी. लिहाज़ा उन्होंने ऐलान किया- आक्रमण. और इस तरह 1686 में एक जंग शुरू हो गई, जिसे पहला एंग्लो- मुग़ल युद्ध कह सकते हैं. हालांकि इसे चाइल्ड वॉर के नाम से भी जाना गया. दो कारण से. पहला कारण तो ये कि युद्ध की शुरुआत करने वाले जोसाया चाइल्ड थे. सो उनके नाम पर युद्ध का नाम पड़ गया. दूसरा कारण ये था कि चाइल्ड का हिन्दी में तर्जुमा होता है, बच्चा. और एक मायने में ये लड़ाई ऐसी ही थी जैसे कोई छोटा बच्चा किसी वयस्क से लड़ने की कोशिश करें.

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औरंगज़ेब के दरबार में दो दूत पहुंचे ताकि जंग के लिए माफी मांग सकें (तस्वीर: Wikimedia Commons)

हालांकि ऐसा नहीं था कि अंग्रेज़ कमजोर हो. सच बात तो ये थी कि अंग्रेजों की नेवी जबर्दस्त ताकतवर थी. मुगलों से भी ज्यादा. लेकिन जमीन पर अंग्रेजों का मुग़ल सेना से कोई मुक़ाबला नहीं था. मुग़ल फौज की गिनती लाखों में थी. उसमें अफगानी भी थे, और अफ्रीका से दास बनाकर लाए गए लोग भी. उनके लड़ने का अनुभव भी काफ़ी लम्बा था. इसके बावजूद जोसाया चाइल्ड ने तय किया कि वो मुग़लों से जंग करेंगे.

मुग़ल जहाजों पर हमला 

उन्होंने कंपनी के नाविकों को आदेश दिया कि वे बंगाल की खाड़ी में मुग़ल जहाज़ों का रास्ता काट दें और जो जहाज़ उनके हत्थे चढ़े उसे लूट लें. इसके अलावा चाइल्ड ने ब्रिटेन के राजा से कहलवाकर 12 जंगी जहाज भारत की ओर रवाना कर दिए. इनमे 200 तोपें लगी हुई थीं और 600 नौसैनिक सवार थे. इनके अलावा 400 लोग पहले से मद्रास के किले में मौजूद थे. इनके सहारे चाइल्ड साहब का मंसूबा चटगांव के बंदरगाह पर कब्जा करने का था.

पूरा प्लान इस प्रकार था कि चटगांव पर कब्ज़ा कर आसपास के जमींदारों को अपने साथ मिला लेंगे. इसके बाद पड़ोस में अराकान के सम्राट से संधि कर ली जाएगी. अराकान यानी 21 वीं सदी के म्यांमार का पश्चिमी हिस्सा. चटगांव पहले अराकान के शासन में आता था. फिर मुगलों से हुए युद्ध में उसे बंगाल सूबे में मिला लिया गया. अंग्रेजों का इरादा अराकान और मुगलों को आपस में लड़ाकर मलाई उडाने का था. लेकिन ऐसा होता, उससे पहले ही हवा का रुख बदल गया. लिटरली.

हुआ ये कि ख़राब मौसम के चलते कम्पनी का जंगी बेड़ा चटगांव पोर्ट के बजाय हुगली पहुंच गया. हुगली में जंगी बेड़े की खबर तुरंत गवर्नर शाइस्ता खान के पास पहुंची. समझौते की कोई सूरत बनती इससे पहले ही हालात जंग के बन गए. बंदेल की बाजार में तीन ब्रिटिश सिपाही और मुग़ल अफसर आपस में भिड़ गए. बात इतनी बढ़ गयी कि एक ब्रिटिश एडमिरल ने स्थानीय लोगों पर गोली चला दी. और हुगली के पास 500 घरों में आग लगा दी. इसके बाद भी शाइस्ता खान ने जंग की जल्दी नहीं दिखाई . कई महीनों तक बातचीत के नाम पर कम्पनी के बेड़े को हुगली में लटकाए रखा. इस बीच मुग़ल फौज धीरे-धीरे जंग की तैयारियों में लगी रही. ब्रिटिश बेड़े की कमान जॉब चारनोक नाम के एक नाविक के हाथ में थी. उसने हुगली के पास इंग्ली नाम के एक द्वीप पर बेस बना लिया. यहां साफ़ पानी की कमी के चलते उनके आधे से ज्यादा सैनिक मारे गए.

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 समुद्री यात्रा के बाद सितंबर 1615 में थॉमस रो के जहाज़ सूरत के बंदरगाह पर पहुंचे (तस्वीर: Wikimedia Commons)
औरंगजेब का गुस्सा 

इधर जब बंगाल में ये सब हो रहा था, बंबई के नया खेल चल रहा था. वहां मौजूद कम्पनी अधिकारियों ने जोश-जोश में मुग़ल जहाजों को रोकना टोकना शुरू किया और कुछ को तो लूट भी लिया. मक्का जाने वाले मुग़ल जहाजों पर भी ब्लॉकेड लगा दिया गया. अंग्रेजों की इस हरकत की खबर जब औरंगजेब के कानों में पड़ी. वो आग बबूला हो गए. हालांकि पानी में अभी भी अंग्रेजों का पलड़ा भारी था. इसलिए औरंगजेब ने बातचीत की पेशकश की. ये देखकर अंग्रेजों की हिम्मत और बढ़ गई. इंग्लेंड से कुछ और जंगी जहाज भेजे गए, जिन्होंने पहले बालासोर में गोले बरसाए(वही बालासोर जहां ट्रेन एक्सीडेंट हुआ था).बालासोर पर हमले के बाद ये अतिरिक्त्त बेड़ा चटगांव की ओर बढ़ गया. लेकिन तब तक शाइस्ता खां ने चटगांव की सुरक्षा चाक चौबंद कर दी थी. इसलिए ब्रिटिश बेड़े को लौटना पड़ा. और वो लौटकर मद्रास आ गया.

औरंगजेब इस मामले में अभी तक सब्र का परिचय दे रहे थे. जब बालासोर के तहस नहस होने की खबर मिली. उन्होंने हिन्दुस्तान की जमीन पर, अंग्रेजों की जितनी प्रॉपर्टी थी, सबको जब्त करने का आदेश जारी कर दिया. सिर्फ मद्रास और बंबई के कारखाने बचे. उनकी भी घेराबंदी कर दी गई. बंबई में अंग्रेजों का एक किला था, जिसमें अधिकतर अंग्रेज़ अधिकारी और उनके परिवार रहते थे. औरंगजेब ने इस किले पर हमला करने का आदेश दिया. और ये जिम्मेदारी दी गयी सिद्दी याकूत खान को. 

सिद्दी खान जंजीरा का गवर्नर था. जंजीरा एक रियासत हुआ करती थी. जो 21 वीं सदी के हिसाब से महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोंकड़ कोस्ट में स्थित थी. जंजीरा की खासियत ये थी कि कि इनकी नेवी काफी ताकतवर थी. इसी नेवी की बदौलत सिद्दी खान ने बंबई में ब्रिटिश फोर्ट को चारों तरफ से घेरकर सीज डाल दी. बंगाल में शाइस्ता खान ने भी हुगली के किनारे डेरा डाले हुए अंग्रेज़ सिपाहियों को घेर लिया और वहां भी सीज डाल दी गई.

अंग्रेजों ने नाक रगड़ी 

एलेक्ज़ेंडर हेमिल्टन नामक एक अंग्रेज़ अफसर के अनुसार, बंबई में सिद्दी की 20 हजार की फौज ने किले को चारों ओर से घेरकर पूरे इलाके में मुग़ल बादशाह के झंडे लगा दिए. इसके बाद उन्होंने अगले 14 महीने तक किले की घेराबंदी जारी रखी. 14 महीने बाद जब खाने पीने के लाले पड़ने लगे. तब अंग्रेजों की अक़्ल ठिकाने आई. हालांकि सिद्दी खान कोई रियायत देने के मूड में नहीं था. मजबूरन कंपनी के अधिकारीयों को सीधे औरंगजेब के दरबार का रुख करना पड़ा. सितंबर 1690 में कम्पनी के दो दूत मुग़ल दरबार में एंटर हुए. उनसे जमीन के बल लेटकर नाक रगड़ने को कहा गया. दोनों ने ऐसा ही किया लेकिन इस पर भी औरंगजेब का दिल नहीं पसीजा. ब्रिटिश इतिहासकार विलियम डैल्रिम्पल अपनी किताब द अनार्की: द ईस्ट इंडिया कंपनी में लिखते हैं,

ईस्ट इंडिया कम्पनी को अपनी फैक्ट्रियां वापस हासिल करने के लिए रहम की भीख मांगनी पड़ी. उनके कई अफ़सरों को सूरत में लोहे की चेन्स में बांधकर घुमाया गया.ढाका के लाल किले में उनके साथ अपराधियों जैसा सुलूक किया गया. औरंगजेब ने अंग्रेजों को कुछ वक्त दिया ताकि वो अपने ज़ख्म सहला सकें. लेकिन फिर दरियादिली दिखाते हुए उन्हें माफ़ कर दिया. जो जैसा कि हम जानते हैं, एक बड़ी गलती थी.

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सूरत में अंग्रेजों की फैक्ट्री (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इस जंग के जुर्माने के तौर पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी से डेढ़ लाख रूपये का जुर्माना वसूला गया. व्यापार के अधिकार वापिस हासिल करने के लिए कंपनी से एक वादा भी लिया गया. वाड़ा ये कि वो ऐसी हरकत फिर न करेंगे. क्या उन्होंने वादा निभाया?

जवाब सब जानते हैं. औरंगजेब के हाथों मिली शर्मिन्दगी को वो कभी भूल नहीं पाए. कम्पनी ने भरसक कोशिश की कि ये बात ब्रिटेन की जनता में न पहुंचे. बकायद उन्होंने पैसे देकर इस युद्ध पर एक किताब भी लिखवाई, जिसमें ब्रिटेन की हार का कारण, मुगलों की क्रूरता को ठहराया गया. किताब से ब्रिटिश दूतों के मुग़ल दरबार में नाक रगड़ने का किस्सा भी गायब कर दिया. इस घटना के लगभग 70 साल बाद उन्हें बदला लेने का मौक़ा मिला. औरंगजेब की मौत के बाद मुग़ल कमजोर होते चले गए. और बंगाल के सूबेदारों ने भी मुगलों से दूरी बढ़ा ली. लिहाज़ा 1757 आते-आते, बादशाह और सूबों के नवाब, दोनों कमजोर पड़ गए. और प्लासी की जंग ईस्ट इंडिया कम्पनी ने जीत ली. इसी जीत के साथ कम्पनी के भारत पर शासन की शुरुआत हो गई.

वीडियो: तारीख: कैसे एक गलती ने 60 लाख लोगों की जान ले ली?

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