क्या किसान संगठन केंद्र के कृषि कानूनों से खुश थे? सुप्रीम कोर्ट कमेटी की रिपोर्ट आ गई है
किसान आंदोलन से जुड़े योगेंद्र यादव ने रिपोर्ट के आंकड़ों को 'कबाड़' क्यों कहा?
Advertisement
तीन कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी गई है. इसका एक आंकड़ा इस समय काफी चर्चा में है. रिपोर्ट में दावा किया गया है कि करीब एक साल से अधिक समय तक विवादों में रहे तीनों कानूनों का 85.7 फीसदी कृषि संगठनों ने समर्थन किया था. हालांकि ये तस्वीर इतनी साफ नहीं है.
दरअसल सुप्रीम कोर्ट समिति कुल 73 किसान संगठनों से ही सीधे तौर पर विचार-विमर्श कर पाई थी, जिसमें से 61 संगठनों ने इन कानूनों का समर्थन किया और बाकी के 12 संगठनों ने इस पर सहमति जताने से इनकार कर दिया था. यहां एक खास बात ये है कि तीन कृषि कानूनों को लेकर दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन कर रहे संगठनों से बातचीत नहीं की जा सकी थी, क्योंकि उन्होंने समिति के सामने पेश होने से इनकार कर दिया था.
इस विरोध प्रदर्शन की अगुवाई संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) कर रहा था. एसकेएम के मुताबिक उनके संगठन में देश भर के 450 से अधिक किसान संगठन शामिल हैं. एसकेएम का कहना था कि वे सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के सामने इसलिए अपनी बात नहीं रखेंगे, क्योंकि उन्होंने पहले ही इन कानूनों की तरफदारी की है, ऐसे में वे निष्पक्षता के साथ मामले पर विचार नहीं कर पाएंगे.
सुप्रीम कोर्ट समिति की रिपोर्ट के मुताबिक जिन 61 किसान संगठनों ने इन कानूनों का समर्थन किया है, वे देश के 3.3 करोड़ किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. समिति ने इन किसानों को 'Silent Majority' कहा है. हालांकि इस रिपोर्ट में कहीं भी इन किसान संगठनों के नाम उपलब्ध नहीं है. ना ही ये बताया गया है कि कौन संगठन कितने किसानों का प्रतिनिधित्व करता है.
किसान आंदोलन के समय की एक तस्वीर. (फाइल- PTI)
रिपोर्ट पब्लिक करने वाले संगठन ने क्या कहा? इसे लेकर जब दी लल्लनटॉप ने समिति के सदस्य और इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने वाले शेतकारी संगठन के अध्यक्ष अनिल घानवत से सवाल किया तो उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है और सारे रिकॉर्ड्स कृषि मंत्रालय में उपलब्ध हैं. अनिल घानवत ने हमें बताया,
'मैंने कृषि सचिव से कहा है कि वे पोर्टल बनाकर इस रिपोर्ट से जुड़ी सभी जानकारी मुहैया कराएं. लोगों का ये सोचना सही है कि किन किसान संगठनों से बात हुई है. इसलिए न सिर्फ किसान संगठनों के नाम, बल्कि उनके साथ हुई बातचीत का सारा फुटेज सार्वजनिक किया जाना चाहिए. मैं ये मांग लगातार उठा रहा हूं.'ये पूछे जाने पर कि रिपोर्ट में क्यों काफी कम किसान संगठनों का प्रतिनिधित्व है और दिल्ली के अलग-अलग बॉर्डर पर बैठे प्रदर्शनकारी किसानों से क्यों बात नहीं हुई, घानवत ने कहा,
'चर्चा ये होनी चाहिए कि समिति ने जो सिफारिश दी है, वो सही है या नहीं. लेकिन बहस अलग ही दिशा में जा रही है. सभी लोगों से बात करना संभव नहीं है. चूंकि उस समय कोरोना वायरस का काफी प्रभाव था, इसलिए हम प्रदर्शन वाले क्षेत्र में नहीं जा सके. हमने सोचा था कि एक दिन वहां जाकर लंगर खाएंगे और किसानों से बात करेंगे. लेकिन स्वास्थ्य चिंताओं के कारण हम ऐसा नहीं कर पाए.'समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि किसान संगठनों से सीधे बातचीत के बाद कई तरह की बातें सामने निकल कर आईं. इनमें विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर समाधान के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था तैयार करने, किसान न्यायालय या फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने, आवश्यक वस्तु अधिनियम को पूरी तरह से खत्म करने, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए एक सेंट्रलाइज्ड सिस्टम तैयार करने जैसे इत्यादि सुझाव शामिल थे.
सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने कहा है कि प्रदर्शनकारी किसानों से तो उनकी बातचीत नहीं हो पाई, लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के जरिये उनकी चिंताओं और सुझावों को संज्ञान में लिया गया है.
समिति ने किसान संगठनों से सीधे बात करने के अलावा एक पोर्टल (https://farmer.gov.in/sccommittee/) के जरिये भी लोगों की राय ली थी. इसमें कृषि कानूनों से जुड़े कुछ सवाल पूछे गए थे. हालांकि ये सवाल दो भाषाओं (हिंदी और अंग्रेजी) में ही थे. अनिल घानवत ने लल्लनटॉप से इसकी पुष्टि की है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इस माध्यम से समिति को कुल 19 हजार 27 सुझाव या आपत्तियां प्राप्त हुए थे. इनमें से 5451 प्रतिक्रियाएं किसानों ने भेजी थीं. वहीं किसान संगठनों ने 151 जवाब और किसान उत्पादन संगठनों (एफपीओ) ने 929 प्रतिक्रियाएं भेजी थीं. बाकी 'अन्य स्टेकहोल्डर्स' ने 12 हजार 496 जवाब या सुझाव भेजे थे.
(सोर्स: सुप्रीम कोर्ट कमेटी)
इसका मतलब ये हुआ कि इस पोर्टल के जरिये तीन कृषि कानूनों पर भेजे गए जवाब या आपत्तियों में 65.67 फीसदी हिस्सेदारी 'अन्य स्टेकहोल्डर्स' की है. इस श्रेणी में जवाब देने वालों में किसानों के अलावा वे लोग शामिल हैं, जो खेती-किसानी से सीधे तौर पर नहीं जुड़े हैं.
घानवत का कहना है कि ये पोर्टल देश के सभी लोगों के लिए खुला था. उन्होंने हमसे कहा,
'खेती भले ही कुछ लोग करते हों, लेकिन इसका प्रभाव हर एक देशवासी पर पड़ता है. इसलिए सभी तरह के लोगों की राय लेनी जरूरी है. इसलिए इस पोर्टल पर हर तरह के सुझाव आमंत्रित किए गए थे. इसके लिए किसान होना जरूरी नहीं है.'किसान संगठन के लोग क्या कह रहे? संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य किसान नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि समिति द्वारा किया गया आंकलन पूरी तरह से हास्यास्पद है. उन्होंने ट्वीट कर कहा,
'इस पोर्टल के जरिये सुझाव देने वालों में सिर्फ 5,451 लोग ही किसान हैं. बाकी के 12,496 लोग किसान नही हैं. इन किसानों का क्या बैकग्राउंड है? ये अन्य स्टेकहोल्डर्स कौन लोग हैं? इन लोगों की प्रतिक्रियाओं को इस रिपोर्ट में क्यों शामिल किया गया है? ऐसे कई सवालों पर समिति ने कोई जवाब नहीं दिया है. ये आंकड़े कबाड़ हैं.'
Not just that, SCC is happy to certify that the 73 organizations that it met represent over 3.8 crore farmers! It actually presents figures of responses in crores and lakhs!! Why did we never hear about these gigantic orgs? Why were their names not listed in annexures? Well.. 5/9 pic.twitter.com/ROZzp3zUrQ
— Yogendra Yadav (@_YogendraYadav) March 21, 2022
रिपोर्ट के मुताबिक इस पोर्टल के जरिये कृषि कानूनों पर प्रतिक्रिया भेजने वाले लोगों में से दो-तिहाई (66 फीसदी) ने कानून का समर्थन किया है. इस सर्वे में ये बात भी निकलकर सामने आई कि केवल 42.3 फीसदी किसान संगठन ही एपीएमसी मंडियों में अपनी उपज बेच पाते हैं और ये लाभ भी ज्यादातर (70 फीसदी से अधिक) पंजाब और हरियाणा के ही किसानों को मिल पाता है.
(सोर्स: सुप्रीम कोर्ट कमेटी)
इन दो माध्यमों के अलावा सुप्रीम कोर्ट समिति ने ईमेल (sc.committee-agri@gov.in) के जरिये लोगों के सुझाव मांगे थे. रिपोर्ट के मुताबिक कमेटी को कुल 1520 ईमेल प्राप्त हुए थे. हालांकि इसमें इस बात का ब्योरा नहीं है कि ऐसे ई-मेल भेजने वालों में कितने किसान थे और कितने अन्य लोग थे. रिपोर्ट में लिखा है,
'समिति ने ये ई-मेल भेजने वाले लोगों के नाम नहीं बताने का फैसला किया है.'इन सब के अलावा सुप्रीम कोर्ट समिति ने साक्ष्य आधारित विश्लेषण किया है. इसमें उसने कृषि क्षेत्र के विभिन्न सेक्टर्स के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए एक किसान नीति बनाने का सुझाव दिया है. विश्लेषण में भारतीय कृषि को 1950 के दशक से लेकर अब तक पांच चरणों में विभाजित किया गया है और मौजूदा समय में देश की खेती-किसानी को 'वन नेशन, वन मार्केट' की दिशा में ले जाने की बात की है. सिफारिशें मालूम हो कि मोदी सरकार ने सितंबर 2020 में तीन कृषि कानूनों- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून और आवश्यक वस्तुएं (संशोधन) कानून को संसद से पारित कराया था.
(सोर्स: सुप्रीम कोर्ट कमेटी)
हालांकि इस कानून के बनते ही किसानों का चौतरफा विरोध शुरू हो गया था. सरकार के लोग इन कानूनों को कृषि की दिशा में 'बहुत बड़ा सुधार' बता रहे थे. लेकिन किसान और किसान संगठनों का आरोप था कि इन कानूनों के चलते न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की स्थापित व्यवस्था खत्म हो जाएगी. कानूनों के विरोध में पंजाब और हरियाणा से शुरू हुआ प्रदर्शन धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया और किसानों ने आकर दिल्ली की सीमाओं पर किलेबंदी कर दी.
इस बीच ये मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया. 12 जनवरी 2021 को तत्कालीन चीफ जस्टिस एसए बोबडे की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अगले आदेश तक तीनों कृषि कानूनों को लागू करने पर रोक लगा दी थी. इसके साथ ही कोर्ट ने एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया, जिसके सदस्य भारतीय किसान यूनियन के भूपेंद्र सिंह मान, शेतकारी संगठन के अनिल घानवत, अर्थशास्त्री प्रमोद कुमार जोशी और कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी थे.
हालांकि किसानों के विरोध के चलते भूपेंद्र सिंह मान ने खुद को समिति से अलग कर लिया था. कोर्ट ने दो महीने के भीतर किसानों संगठनों और संबंधित स्टेकहोल्डर्स से बात कर रिपोर्ट सौंपने के लिए कहा था. समिति ने 19 मार्च 2021 को शीर्ष अदालत में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी, लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया था.
बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर 2021 को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की थी. उन्होंने दलील दी थी कि सरकार कृषि क्षेत्र के सुधार संबंधी लाभों के बारे में विरोध करने वाले किसानों को नहीं समझा सकी.
सुप्रीम कोर्ट समिति कृषि कानूनों को रद्द करने के खिलाफ थी. उसने रिपोर्ट में कहा है,
'इन कृषि कानूनों को रद्द करना या स्थगित करना उस 'Silent Majority' के लिए अनुचित होगा जो इन कानूनों का समर्थन करती है.'समिति ने कहा था कि कानून को लागू करने में राज्यों को लचीला रुख अपनाने की इजाजत दी जानी चाहिए और इसकी मंजूरी केंद्र द्वारा मिलनी चाहिए, ताकि 'वन नेशन, वन मार्केट' बनाने की मूल भावना का उल्लंघन न हो. इसके साथ ही विवाद निस्तारण के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था की जानी चाहिए.
समिति के सदस्यों ने कहा कि सरकार को कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार लाने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए. ये भी कहा कि जीएसटी काउंसिल की तर्ज पर एक एग्रीकल्चर मार्केटिंग काउंसिल का गठन किया जाना चाहिए, जिसमें राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के प्रतिनिधि होंगे, ताकि इन कानूनों को सुचारू रूप से लागू किया जा सके और इनकी मॉनिटरिंग की जा सके.
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट समिति ने ये सुझाव दिया था कि एमएसपी की सिफारिश करने वाली केंद्रीय कृषि मंत्रालय की एजेंसी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) को फसलों के बिक्री मूल्य की जानकारी इकट्ठा करने और इसे हर स्तर पर प्रसारित करने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए, ताकि किसान अच्छे से मोल-भाव कर पाएं.
समिति ने सभी को समान अवसर देने के लिए एपीएमसी द्वारा ली जा रही मार्केट फीस या टैक्स को खत्म करने की भी सिफारिश की थी.