5 राज्यों में चुनाव का माहौल है. बात करने को तो चुनावी भीड़ और धार्मिक भीड़ कोदेखने के नजरिए से भी शुरू कर सकते हैं. होने के को तो शुरुआत उन आंकड़ों से भी होसकती हैं जो 5 चुनावी राज्यों में शिक्षा, विकास और महंगाई की हैं. अगर मौज के साथशुरू किया जाए तो एक विदेशी मेहमान को मिले देसी न्योतों की कहानी से भी कर सकतेहैं. मगर मुद्दा गंभीर है, तो पिछले दिनों खूब चर्चा में रही एक तस्वीर को सामनेरखकर आज शुरुआत एक कविता से करेंगे...प्रधानमंत्री के सुरक्षा दस्ते कि पंजाब वालीतस्वीर पर नजर और कविता के शब्दों पर गौर... इस कदर बेमतलब रहना सिखाया जाता हैउन्हें कि प्रधानमंत्री को हमेशा घेरे में लिये रहते उन्हें इस बात से कोई मतलबनहीं होता प्रधानमंत्री जनता से क्या कह रहे हैं जिस वक्त प्रधानमंत्री बोले जा रहेहोते हैं कमांडो अपनी बिल्लौट निगाहों से लगातार देख रहे होते हैं हमें इधर उधरजी...प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगे धीर-गंभीर SPG यानी स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुपके कमांडो, उनकी तस्वीर और हर तस्वीर के साथ उनके मिजाज़ की व्याख्या करती पवन करणकी ये कविता. यूं तो कविता बड़ी है मगर पूरी कविता का सार SPG कमांडोज कीकर्तव्यपरायणता पर टिकी है. उनकी मनोदशा, सुरक्षा के प्रति उनकी संजीदगी, उनकाचौकन्नापन समझाती है. तो अब सवाल आपके मन में होगा कि आखिर ये कविता आज क्यों सुनाईजा रही है, आज तो पीएम की सुरक्षा में हुई चूक से जुड़ा कोई अपडेट भी नहीं आया, नाही सुप्रीम कोर्ट में चल सुनवाई के दौरान कोई टिप्पणी हुई. तो वजह है कि सोशलमीडिया, खासकर ट्विटर पर प्रधानमंत्री मोदी के इस SPG कमांडों के नाम जाती को लेकरकी गईं टिप्पणियां. उससे जुड़ी झूठी शान और जातीय अस्मिता का बखान. दरअसल वो SPGकमांडोज जिनका ना तो कोई नाम जानता है, ना ही कोई पहचान जानाता है. चेहरे पर कोईविशेष भाव होते नहीं, आंखे तक कोई पढ़ नहीं सकता. उनके बारे में कोई खास खबर भीनहीं,बस आम लोग सिर्फ इतना जानते हैं कि काले सूट वाले कुछ लोग होते हैं जो हर वक्तहमारे देश के प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द साए की तरह रहते हैं. कोई रैली हो या फिरस्वतंत्रता दिवस पर पीएम का बच्चों के बीच जाना हो, ये SPG कमांडोज एक विशेषसुरक्षा घेरा बनाए रखते हैं. आंखों पर टैक्टिकल काला चश्मा लगाते हैं, हाथ मेंआधुनिक हथियार होते हैं, उंगलियां ट्रिगर पर और पलक झपकते ही हर खतरे को भांप लेतेहैं. थोड़ा बहुत चर्चा लोग उस सूटकेस के बारे में भी कर लेते हैं, कुछ किवंदियांसुनाते हैं, जो SPG कमांडोज के हाथों में होता है. बस इससे ज्यादा कुछ नहीं. मगरकुछ लोग ना जाने कहां से उस कमांडो की जाति और नाम खोज लाए, जो पंजाब के फिरोजपुरके फ्लाइवर पर रुके प्रधानमंत्री के काफिले में सबसे आगे खड़ा नजर आता है. गुर्जरसम्राट महिर भोज ट्रस्ट नाम के हैंडल ने लिखा परिवेश चौहान गुर्जर हमेशा देश केयशश्वी प्रधानमंत्री जी की SPG सुरक्षा में शामिल हैं, पिता प्रेम सिंह निवासीतितरवाडा कैराना, जिला शामली, उत्तर प्रदेश. बहुत की गर्व की बात है. यानि पहला नामप्रवेश चौहान यानी गुर्जर बताया गया. धड़ाधड़ शेयर भी किया जाने लगा. इतने में जाटसमाज नाम के वैरिफाइड ट्विटर हैंडल ने इसी कमांडो को जाट बताया और लिखा. जहां मैटरबड़े होते हैं, वहां जाट खड़े होते हैं. चौधरी साहब फ्रॉम बड़ौत, बागपत. यानिकमांडो पर जाट होने का दावा ठोंक दिया गया. जाट-गुर्जर की चर्चा में एक और फोटो आगई. जिसमें SPG कमांडो का नाम विनोद अम्बेडकर होने का दावा किया गया. इतने दावे कमथे कि कायस्थ खबर नाम के ट्विटर हैंडल से अब इस कमांडो का नाम हनुमान श्रीवास्तवबता दिया गया. लिखा एसपीजी कमांडो हनुमान श्रीवास्तव. पंजाब में भीड़ के सामने येशेर अकेला खड़ा हो गया प्रधानमंत्री जी की सुरक्षा के लिए. उंगली ट्रिगर पर थी, बसमोदी जी के आदेश की देरी थी. अब कमांडो से जुड़े 4 नाम और 4 जातियां सामने आ चुकीथीं, जातीय बखान के भाव से सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म के साथ-साथ, अपने-अपनेव्हाट्सऐप ग्रुप पर शेयर किया जाने लगा. कुछ लोग जातियों से जोड़ने की आलोचना भी कररहे थे. और इत्ते में एक और ट्विटर हैंडल कूद पड़ा. चारों के दावों को नकारते हुए,जातियों से जोड़ने पर डपटने के अंदाज में लिख दिया. जातिवाद का असर देखिए भक्तों नेSPG कमांडो सतपाल अहीर को अपने ढंग से बांट लिया...मतलब पहले तो ये हैंडल खुदकमांडों को एक जाति से जोड़ रहा है और दूसरा ये कि बाकियों को डांट भी लगा रहा है.है ना गजब! लेकिन ये सब हो क्यों रहा है ? एक कमांडो के 5-5 नाम और 5-5 जाति क्योंबताए जा रहे हैं ? और सबसे बड़ा सवाल ऐसा करने वाले...कौन हैं ये लोग ? कहां सेआते हैं ? तो जवाब है, ये हमारे-आपके बीच के ही लोग हैं. मगर उनकी सोच के पीछे हैजातीय अस्मिता का वो झूठा अभिमान, जिसमें खुद को दूसरे से श्रेष्ट साबित करने कीकोशिश की जा रही है. इसके पीछे जातीय दंभ दिखाने की कोशिश करती वो मानसिकता है जोखुद जातिय खांचे से बाहर लाना ही नहीं चाहती और ना ही दूसरों को आने देना चाहती है.वरना भला ये कैसे संभव है कि उस कमांडो की जाति खोज ली जाए जिसके बारे में पब्लिकडोमेन में कोई विशेष जानकारी है ही नहीं, उसका नाम, पता बताकर जातिवाद औरक्षेत्रवाद की भावना को बढ़ाया जाए ? यहां प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक केमामले में भी एक तस्वीर के आसरे कमांडो की जाति खोज लेने वालों की सोच और समझ कोपकड़ने की जरूरत है, जो खुद को और खुद की जाति को दूसरों से सर्वोपरि मानकर चलतेहैं. ऐसे लोगों की ना सिर्फ भर्सना होनी चाहिए, बल्कि कायदे से सुरक्षा की गंभीरताऔर सामाजिक समझ पैदा करने की भी जरूरत है. रहा सवाल कि उस SPG कमांडो का नाम क्याहै ? 1. परिवेश गुर्जर ? 2. चौधरी साहब ? 3. विनोद अम्बेडकर ? 4. हनुमान श्रीवास्तव ? 5. सतपाल अहिर ?पांचों दावे गलत हैं और गलत होने की वजह ये कि SPG कमांडो की नाम और पहचानप्रधानमंत्री के सुरक्षा दस्ते SPG के अलावा और उन जवानों के परिवार वालों के अलावाकोई नहीं जानता. SPG एक्ट 1988 के तहत SPG कमांडोज की नाम और पहचान गोपनीय रखी जातीहै. यहां तक कि उनकी ट्रेनिंग किस तरह से होती, ये तक नहीं बताया जाता है. रही बातजातीय या धार्मिक जुड़ाव की तो SPG एक्ट 1988 के 10वें प्वाइंट के के तहत SPGकमांडोज के लिए साफ निर्देश और लिखित गाइड लाइन है कि SPG कमांडोज को प्रेस औरपब्लिकेशन से भी बात करने की मनाही है. SPG समूह का कोई भी सदस्य बिना सरकार केस्वीकृति के किसी भी ट्रेड यूनियन, राजनीतिक संघ या श्रमिक संघ का समस्य नहीं बनसकता है. वो किसी भी ऐसे समाज, संस्था, संघ या संगठन से भी नहीं जुड़ा रह सकता हैजो किसी भी तरह से सामाजिक, मनोरंजक या धार्मिक प्रकृति का हो. वो किसी ऐसी बैठक याप्रदर्शन में भी शामिल नहीं हो सकता जिसका उद्देश्य राजनीतिक या कुछ और भी हो. यानीसाफ है कि कोई भी SPG कमांडो किसी जातीय, धार्मिक या राजनीतिक संगठन से नहीं जुड़सकता है. वो व्हाट्सऐप पर चलने वाले ब्राह्मण सभा, क्षत्रिय सभा, जाट एकता,गुर्जरट्रस्ट, कायस्थ सभा, दलित एकता मंच जैसे ग्रुप का हिस्सा भी नहीं हो सकता.प्रधानमंत्री की सुरक्षा के अतिमहत्वपूर्ण काम में लगे कमांडोज को जातीयों मेंबाटंने वालों को ये बातें दिमाग के तालों में लगे जालों को साफ कर कायदे से बिठालेनी चाहिए. और हां अगर किसी कमांडो से उसकी जाति पूछी जाएगी तो हो सकता है उसकाजवाब राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में हो. कमांडो ने जाति बताई जाति-जाति रटते,जिनकी पूँजी केवल पाषंड, मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड. खैरव्यक्तियों को जोड़कर बनती है जाति और जाति को जोड़कर समूह और कई समूहों का समागमएक ही जगह हो जाए तो बन जाती है भीड़. तो अब बात भीड़ की खबर पर. और भीड़-भीड़ मेंभी फर्क होता साहब... एक होती है चुनावी भीड़ जिस पर आजकल चुनाव आयोग बड़ा सख्त हैऔर दूसरा होती है धार्मिक भीड़ जिसके आगे सरकार के साथ चुनाव आयोग भी नतमस्तक है.कोरोना की वजह से चुनावी रैलियों और रोडशो पर रोक है. डोर-डोर कैंपेन में भी 5लोगों का नियम है ताकि भीड़ ना लगे. मगर इत्तेफाक देखिए कि पंजाब चुनाव पर चुनावआयोग ने एक फैसला लिया है किव वहां चुनाव 14 फरवरी की जगह 20 फरवरी को होंगे.क्योंकि पंजाब के वोटर, भीड़ की शक्ल में वाराणसी में जमा होने वाले हैं. और यहीफर्क है चुनावी और धार्मिक भीड़ के बीच. चुनावी भीड़ पर रोक है, मगर धार्मिक भीड़की वजह से चुनाव टल जाता है. दरअसल पंजाब के सीएम के साथ-साथ सभी पार्टियों नेआग्रह किया कि 16 फरवरी को संत रविदास की जयंती है. उत्तर प्रदेश के वाराणसी मेंउनकी जयंती पर बड़ा कार्यक्रम होता. 10 फरवरी से लेकर 16 फरवरी तक बनारस समागमचलेगा. जिसमें पंजाब से अनुचूति जाति के लोग खासकर, रैदासिया समुदाय बड़ी तादात मेंरविदास जयंती मनाने के लिए वाराणसी में होंगे. कोरोना के खतरे को दरकिनार करते हुएएक तरह का बड़ा धार्मिक मेला लगेगा, पंजाब से आई लाखों की भीड़ वाराणसी में जुटेगीतो पंजाब में वोट कौन देगा ? ये यक्ष प्रश्न राजनीतिक पार्टियों और चुनाव आयोग केसामने खड़ा हुआ. चुंकि वोट बैंक को ध्यान में रखकर धार्मिक भीड़ और आयोजन को रोकनेका जोखिम कोई सरकार या सियासी पार्टी ले नहीं सकती तो चुनाव आयोग को पंजाब चुनाव कीतारीख 14 से 20 फरवरी करनी पड़ी. इसीलिए तो कह रहे हैं कि भीड़-भीड़ में भी फर्कहै, 14 जनवरी को मकर संक्राति के दिन वर्चुअल रैली के नाम पर लखनऊ में समाजवादीपार्टी ने भीड़ जुटाई तो FIR दर्ज हो गई. इलाके के इंस्पेक्टर को सस्पेंड कर दियागया, मगर ठीक उसी दिन संक्राति का त्योहार मना रही लाखों की भीड़ संगम में डुबकीलगाती है, पश्चिम बंगाल के गंगा सागर में हजारों की भीड़ जुट जाती है, कोई कुछ नहींबोलता. क्योंकि मामला धार्मिक है. धर्म के नाम पर राजनीति करना सियासी पार्टियां औरसरकारें बखूबी जानती हैं, मगर कोरोना के खतरे से बचाने के लिए धर्म के सामने खड़ेहोने का रिस्क ना तो राजनीतिक दल ले सकते हैं और ना ही चुनाव आयोग. 5 लोगों सेज्यादा होने पर नोएडा में कांग्रेस प्रचार कर रहे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेशबघेल पर FIR दर्ज हो गई. अमरोहा में बीजेपी प्रत्याशी महेंद्र खड़गवंशी और अमरोहाकी ही नौगंवा सीट पर बीजेपी प्रत्याशी देवेंद्र नागपाल, दोनों ने टिकट मिलने के बादजुलूस निकाला तो आचार संहिता के उल्लंघन माना गया और उनके खिलाफ FIR भी दर्ज हो गई.आरोप भीड़ जुटाने के लगे. सियासी भीड़ पर तो चुनाव आयोग लगाम लगाने की कोशिश कर रहाहै, मगर धार्मिक भीड़ की वजह से चुनाव की डेट भी टाल चुका है. क्योंकि भीड़-भीड़में फर्क जो है मगर कायदे से होना नहीं चाहिए. कोरोना का खतरा तो हर तरह की भीड़ सेहै. वो धर्म और चुनाव में फर्क तो करेगा नहीं. और बात चुनाव की उठी तो 5 चुनावीराज्यों में गोवा भी है, जहां के विधानसभा चुनाव पर चर्चा बहुत कम होती है. मगरहमारी जिम्मेदारी है कि वहां क्या चल रहा है. इसकी भी जानकारी आपको दी जाए. क्योंकिवहां भी मामला कम दिलचस्प नहीं है. क्योंकि बीजेपी को हराने के लिए उतरीकांग्रेस,टीएमसी और आम आदमी पार्टी आपस में भी लड़ने लगी है और वो लड़ाई जमीन सेज्यादा सोशल मीडिया पर दिख रही है. आज क्या हुआ है, बताते हैं, मगर पहले थोड़ा साब्रीफ बैकग्राउंडर गोवा में विधानसभा की 40 सीटें हैं बहुमत का आंकड़ा 21 है. पिछलेचुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा 17 सीट मिली, लेकिन 13 सीट पाने वाली बीजेपी नेजोड़तोड़ कर सरकार बना ली. अब इस बार कांग्रेस ने अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनानेके लिए पूरी ताकत झोंक दी है. खुद राहुल गांधी ने गोवा को लेकर बैठक की. लेकिनलड़ाई हर बार की तरह दोतरफा नहीं रह गई. दो दावेदार भी आ गए हैं. एक है आम आदमीपार्टी और दूसरी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस यानि टीएमसी. गोवा में आते हीटीएमसी ने कांग्रेस में तोड़फोड़ कर दी. पूर्व सीएम लुईजिन्हो फलेरियो को पार्टीमें शामिल करा लिया, कई और नेता भी तोड़े. लेकिन चुनाव करीब आते-आते टीएमसी को लगनेलगा कि वो अकेले कुछ नहीं कर पाएगी तो फिर कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात करने लगगई. प्रभारी नेता और टीएमसी सांसद महुआ मित्रा ने कांग्रेस को गठबंधन प्रस्ताव देनेकी बात कही लेकिन ट्विटर पर ही कांग्रेस नेताओं से भिड़ंत हो गई. महुआ मित्रा केप्रस्ताव के जवाब में पूर्व गृहमंत्री चिंदबरम ने ट्वीट कर लिख दिया मेरा आकलन हैकि आम आदमी पार्टी (और तृणमूल कांग्रेस) गोवा में गैर-भाजपा वोट को केवल खंडितकरेगा, श्री अरविंद केजरीवाल द्वारा पुष्टि की गई है. गोवा में मुकाबला कांग्रेस औरभाजपा के बीच है.मेरा आकलन है कि आम आदमी पार्टी (और तृणमूल कांग्रेस) गोवा में गैर-भाजपा वोट कोकेवल खंडित करेगा, श्री अरविंद केजरीवाल द्वारा पुष्टि की गई है।गोवा में मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच है। — P. Chidambaram(@PChidambaram_IN) January 17, 2022 इस पर थोड़ी देर बाद आप प्रमुख अरविंदकेजरीवाल का चिंदबरम के ट्वीट पर कोट करके लिखा सर, रोना बंद कीजिए- “हाय रे, मर गएरे, हमारे वोट काट दिए रे” Goans will vote where they see hope Cong is hope forBJP, not Goans.15 of ur 17 MLAs switched to BJP सर, रोना बंद कीजिए- “हाय रे,मर गए रे, हमारे वोट काट दिए रे” Goans will vote where they see hope Cong is hopefor BJP, not Goans.15 of ur 17 MLAs switched to BJP Cong guarantee- every voteto Cong will be safely delivered to BJP. To vote BJP, route thro Cong for safedelivery https://t.co/tJ0cswgi74 — Arvind Kejriwal (@ArvindKejriwal) January 17,2022 टीएमसी की महुआ मित्रा का भी ट्वीट आया कि वो ट्विट की शैडो फाइटिंग में नहींफंसेगी, बीजेपी को हराने के लिए गठबंधन का औपचारिक प्रस्ताव कांग्रेस नेतृत्व को देदिया. मगर इन सबके बीच कांग्रेस की तरफ से संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने गोवामें टीएमसी से गठबंधन करने से इनकार कर दिया. काफी उठापटक मची हुई है. कांग्रेस सेतो नहीं मगर तृणमूल कांग्रेस ने सुधीन धवलीकर की महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी(MGP) के साथ गठबंधन किया है. पांचों राज्यों में चुनाव में जीत के लिए पार्टियांहर तरह के जुगाड़ करने में लगी हैं. लेकिन 5 राज्यों में 5 साल तक रही सरकारों नेक्या किया ? 5 राज्यों में चुनाव है. राजनीति में तू-तू, मैं-मैं वाला तनाव है. मगरआम जनता को हिसाब 5 साल की सरकारों के कामकाज का भी हिसाब चाहिए. पीएम मोदी मोदीके नारे डबल इंजन और उसके सरकार वाले राज्यों के अलावा बाकी राज्यों में पिछले 5साल में कितना काम हुआ. खास कर स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में. एक एक कर आजबड़ी खबर में विस्तार से बात इसी पर अंग्रेजी का अखबार है इंडियन एक्सप्रेस अखबार.पहले पन्ने पर ही आंचल मैगजीन और सनी वर्मा की एक रिपोर्ट मिलती है. रिपोर्ट मेंआरबीआई के डेटा के आधार पर चुनावी राज्यों के खर्चे का विश्लेषण किया गया है. येरिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब में शिक्षा पर खर्च देश के औसत राष्ट्रीयखर्च से भी कम है. उत्तर प्रदेश में 2016-17 में राज्य के कुल खर्च में शिक्षा परखर्च 16.7 फीसदी था. जो 2021-22 में घटकर 12.5 फीसदी रह गया है. 5 साल में उत्तरप्रदेश की सरकार ने शिक्षा बजट को कम कर दिया. जो राष्ट्रीय अवसत से भी नीचे था.जबकि औसत राष्ट्रीय खर्च 13.9 फीसदी है. पंजाब में 2016-17 में शिक्षा पर खर्च कुलखर्च का 8.6 फीसदी था. जो अब 2021-22 में बढ़कर 10 फीसदी हो जाता है. कुछ इजाफाजरूर हुआ है. लेकिन पंजाब अब भी राष्ट्रीय औसत से नीचे ही रह गया. उत्तराखंड की बातकरें तो वहां डबल इंजन की सरकार है. माने उत्तराखंड में भी बीजेपी की सरकार औरकेंद्र में भी. 5 साल में शिक्षा का बजट यहां भी नहीं बढ़ा, 2016-17 के 18.1% केमुकाबले अब यानी 2021-22 में उत्तराखंड का शिक्षा पर खर्चा 17.3 रह गया. गोवा सरकारने भी 14.1% से शिक्षा बजट घटा कर 13.1 फीसदी कर दिया. मणिपुर में भी 12.2% बजट कोकम कर 10.7 कर दिया गया. यानि पांच के पांचों राज्यों में शिक्षा बजट कम हो गया. एकउत्तराखंड को छोड़ दें तो बाकी 4 राज्यों का शिक्षा बजट 13.9 के राष्ट्रीय अवसत सेभी कम हैं. तो ऐसे में सवाल है कि क्या देश की सरकारें शिक्षा को जरूरी नहीं मानरहीं ? पढ़ेगा नहीं इंडिया तो कैसे बढ़ेगा इंडिया ? सवाल पर सरकारें बैठक कर विचाररहें, क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य से जरूरी मुद्दे कोई और नहीं है. मगर सरकारेंध्यान सबसे कम इसी की तरफ देती हैं. क्योंकि स्वास्थ्य के आंकड़े भी देख लीजिए. देशमें स्वास्थ्य पर औसत खर्च 5.5 फीसदी है. मगर इसके मुकाबले पंजाब में 3.4 फीसदी,मणिपुर में 4.2 फीसदी. मतलब इन दोनों राज्यों में राष्ट्रीय औसत से कम रहा. गोवामें 6.8 फीसदी है. उत्तराखंड में 6.1 फीसदी है. और उत्तर प्रदेश में है 5.9 फीसदी.यानी इन तीन राज्यों ने राष्ट्रीय औसत से ज्यादा खर्च किया है. एक बात और मणिपुर कोछोड़कर बाकी के चार राज्यों ने स्वास्थ्य पर खर्चा 2016-17 के मुकाबले बढ़ाया है.यहां थोड़ा सुधार नजर आता है. वजह कोरोना ही है. अब शिक्षा और स्वास्थ्य पर कम याज्यादा खर्च को लेकर कई बार ये तर्क भी होता है कि जिस राज्य में ज्यादा ज़रूरत थीउसने ज्यादा खर्च कर दिया, जहां कम खर्च की ज़रूरत थी, वहां कम खर्च हुआ. मसलन किसीराज्य में स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा ठीक है, तो वहां कम खर्च की ज़रूरत है. तोवो स्वास्थ्य के बजाय वो पैसा कहीं और खर्च करेंगे. इस तरह से खर्चे के हिसाब सेराज्यों को एक तराजू में नहीं तोल सकते.तो फिर राज्य की सरकारों के कामों को कैसे तोलेंगे ?यहां एक और पैमाना है. वो ये कि राज्य ने विकास के कामों पर राज्य की जीडीपी केमुकाबले कितना खर्च किया. इस पैमाने पर खर्चे का राष्ट्रीय औसत है 13.1 फीसदी.पंजाब और उत्तराखंड का खर्च राष्ट्रीय औसत से कम है. पंजाब ने सिर्फ 11.5 फीसदीखर्च किया तो उत्तराखंड ने 11.7 फीसदी . बाकी के तीन राज्यों ने राष्ट्रीय औसत सेज्यादा खर्च किया है. सबसे ज्यादा मणिपुर ने. 43.7 फीसदी. यूपी ने 17.1 फीसदी औरगोवा ने 17.9 फीसदी खर्च किया गया. अब इसमें देखने वाली चीज एक और है. मणिपुर औरपंजाब ने विकास कार्यों पर अपना खर्चा बढ़ाया है. यूपी में उतना ही है. जबकि गोवाऔर उत्तराखंड में ये खर्चा कम हुआ है. ये इतना डेटा हमने आपको इसलिए बताया ताकिनेताओं के तमाम दावों और वादों की आंधी में आप तथ्यों पर टिके रहे हैं. तथ्य औरसत्य के आधार पर अपनी सरकार का मूल्यांकन कर सकें. हमारी कोशिश लगातार आपको सत्य सेरूबरू कराना है. सत्य सापेक्ष है, मगर तथ्य जरूरी हैं. और एक तथ्यात्मक जानकारी डबलइंजन की सरकार, सरकार के नारे और उसकी थ्योरी पर भी है. पिछले 7-8 साल में डबल इंजनका जितना ज़िक्र फाइटर जेट या डबल इंजन वाले हेलिकॉप्टर के लिए ना हुआ होगा, उससेज्यादा कहीं चुनावी मंचों से हुई. इतनी बार ये शब्द बोला गया है कि अब राजनीति मेंरूचि ना रखने वाला भी जान गया है कि डबल इंजन की सरकार का मतलब क्या होता है. और जबइसकी परिभाषा प्रधानमंत्री बताते हैं तो हर कोई बखूबी जान जाता है डबल इंजन मतलब,केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, राज्य में भी उसी पार्टी या उसके सहयोगियों कीसरकार. प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से दिया गया ये ऐसा नारा है, जो राजनीति के पटल परचल निकला है. कई राज्यों में इसी के दम जीत भी मिली. तो सवाल ये है कि क्या डबलइंजन की सरकार बनने से लोगों को फायदा होता है. क्या डबल इंजन की सरकार के फायदेदेखकर लोग बीजेपी को वोट देते हैं. डबल इंजन वाला जुमला बीजेपी के कितना काम आताहै. अब जरा इसका भी विश्लेषण कर लिया जाए. सीएसडीएस और लोकनीति ने डबल इंजन परवोटर्स की राय का सर्वे किया है. इस पर इंडियन एक्सप्रेस में ज्योति मिश्रा कीरिपोर्ट छपी है. रिपोर्ट कहती है कि मुताबिक 2014 से लेकर अब तक 40 विधानसभा चुनावहुए हैं. इनमें से 31 चुनावों से पहले और बाद में सीएसडीएस-लोकनीति ने सर्वे किया.जिन 31 चुनावों में सर्वे किया गया, उनमें से 22 में चुनावों के सर्वे में जनता सेएक सवाल ये पूछा गया कि जिस पार्टी की सरकार केंद्र में है, वही पार्टी राज्य मेंसरकार में बनाती है तो फायदा होगा क्या? सर्वे में क्या पाया गया. जरा उसे नोट करतेचलिए. 2014 में हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा के चुनाव हुए थे. तबहरियाणा में 45 फीसदी लोग पूर्ण रूप से सहमत थे कि कि राज्य के विकास के लिए केंद्रऔर राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होनी चाहिए. जबकि सिर्फ 11 फीसदी लोग इस विचारसे पूर्ण रूप से असहमत थे. ऐसे ही झारखंड में 29 फीसदी लोग पूर्ण सहमत थे और 7फीसदी पूर्ण असहमत थे. महाराष्ट्र में 41 फीसदी लोग पूर्ण सहमत थे और सिर्फ 10फीसदी असहमत थे. कहने का मतलब ज्यादातर लोगों को ये विचार पसंद आया कि केंद्र औरराज्य में एक ही पार्टी की सरकार हो तो राज्य का विकास होगा. इस विचार का असर हमनेनतीजों में देखा. जैसा कि हमने पहले बताया ये 2014 के लोकसभा चुनाव के तुरंत बादहुए विधानसभा चुनावों का नतीजा था. जैसे जैसे बाद के विधानसभा चुनावों तक आएंगे,लोगों में मान्यता कमज़ोर पड़ने लगती है. केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी कीसरकार होने से लोगों की राय बदलती है. 2015 में दिल्ली में विधानसभा का चुनाव होताहै. और तब सीएसडीएस के सर्वे में सिर्फ 29 फीसदी लोग कहते हैं कि विकास के लिए डबलइंजन की सरकार चाहिए. 37 फीसदी लोगों ने माना था कि इसकी ज़रूरत नहीं है. और जबहमने चुनाव नतीजे भी देखे तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार आई. अब आइए 2016के साल में. उस साल चार राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए. पश्चिम बंगाल, असम,तमिल नाडु और केरल. असम में विकास के लिए डंबल इंजन की सरकार की हिमायत करने वाले46 फीसदी लोग थे. इस विचार का पूरी तरह विरोध करने वाले सिर्फ 7 फीसदी लोग थे. हमनेदेखा कि असम में तब बीजेपी की सरकार बनी. मुख्यमंत्री बने सर्बानंद सोनवाल. इसकेआगे मामला और भी दिलचस्प है. 2017 से 2020 के बीच चुनाव हुए तो उत्तर भारत के कईराज्यों में, जहां बीजेपी मजबूत है वहां भी लोगों का डबल इंजन की सरकार से भरोसाउठता दिखा. पंजाब, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड और उत्तर प्रदेश में डबल इंजनकी सरकार बनाने को लेकर लोगों में बहुत उत्साह नहीं दिखा. मसलन यूपी की बात करतेहैं. 2017 में सीएसडीएस लोकनीति के सर्वे में यूपी के 24 फीसदी लोगों ने डबल इंजनकी सरकार की पूर्ण ज़रूरत मानी. जबकि 16 फीसदी ने पूरी तरह से इस विचार को खारिजकिया. माने, डबल इंजन की सरकार में विकास होने से सहमत और असहमत होने वालों मेंसिर्फ 8 फीसदी लोगों का फर्क था. हिमाचल प्रदेश में तो सिर्फ 10 फीसदी लोगों ने हीकहा कि डबल इंजन की सरकार आने से विकास होगा. त्रिपुरा, राजस्थान और उत्तराखंड मेंडबल इंजन की सरकार का समर्थन करने वालों की संख्या ज्यादा थी. और हमने ये भी देखाकि त्रिपुरा और उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार बनी. हालांकि राजस्थान में कांग्रेससत्ता में आई. अब आते हैं कि 2021 में. बिल्कुल आखिर के 4 विधानसभा चुनावों की बातकरते हैं. असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में हुए चुनाव. इन चारों राज्योंमें डबल इंजन की सरकार का आइडिया जनता को पंसद नहीं आया. सहमत होने वालों से ज्यादाफीसद असहमत होने वालों का था. मसलन पश्चिम बंगाल में 26 फीसदी लोगों ने डबल इंजन कीसरकार की तरफदारी की. और 33 फीसदी ने माना कि विकास के लिए डबल इंजन की सरकारज़रूरी नहीं. ऐसे ही केरल में 2016 में लोगों ने डबल इंजन की सरकार का समर्थन कियाथा. लेकिन 2021 के चुनाव में 54 फीसदी लोगों ने डबल इंजन वाली सरकार के आइडिया कोखारिज किया, सिर्फ 20 फीसदी लोगों ने ही समर्थन किया. तो इस डेटा से क्या निष्कर्षनिकलता है. यही कि डबल इंजन की सरकार का आइडिया सुनने में अच्छा लगता है. शुरू मेंजनता भी डबल इंजन के मोह पाश में आई भी. लेकिन हाल के चुनावों में डबल इंजन केफायदों का जनता पर ज्यादा असर नहीं दिखता. मतलब नेताओं के वादों को परखने के लिएजनता के पास अब अनुभवजन्य ज्ञान है. और आंकड़े बता रहे हैं कि डबल इंजन के नारे परअब जनता पहले की तरह जांनिसार नहीं हो रही है. जनता दूसरे विकल्पों में भीसंभावनाएं तलाशने लगी है. चूंकि हिंदुस्तान संभावनाओं का देश है तो हिंदुस्तान मेंसंभावना दुनिया के नंबर वन रईस, स्पेस जाइंट और जानेमाने उद्योगपति एलन मस्क भीतलाश रहे हैं. दरअसल वाकया बड़ा मजेदार हुआ है. प्रणय पटोले नाम के भारतीय नागरिकने ट्वीट कर एलन मस्क को टैग किया और पूछा कि आपकी टेस्ला कार भारत में कब लॉन्चहोने वाली है. इस पर एलन मस्क का जवाब आ गया. ट्वीट कर लिखा दिया. Still workingthrogh a lot of challenges with the government, काम चल रहा, लेकिन सरकार की तरफसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. बस मस्क ने इत्ता भर क्या लिख दिया,निवेश के लिए मस्क को मस्का लगाने वालों की कतार खड़ी हो गई. सबसे पहले तेलंगाना केमंत्री और मुख्यमंत्री KCR के बेटे KTR ने कोट ट्वीट कर सारी सहूलियतों का वादाकरते हुए तेलंगाना में निवेश का न्योता दिया. थोड़ी देर में पंजाब की तरफ सिद्धू नेन्योता भेज दिया, ,तमिलनाडु के मंत्री टी आर बी राजा ने भी फौरन ट्वीट कर मस्क कोअपने यहां बुला लिया. महाराष्ट्र तो औद्योगिक राज्य है तो वो कैसे शांत रहता है.मंत्री जयंत पाटिल ने भी ट्वीट कर न्योता दिया, बंगाल की तरफ से मंत्री गुलामरब्बानी ने भी कहा हमारे यहां आइए. 5 ऐसे राज्यों से न्योता मिला, जहां बीजेपी कीसरकारें नहीं है. बीजेपी को पिछड़ता देखा कर्नाटक के मंत्री सुनील कुमार ने भीट्वीट कर मस्क को कर्नाटक ने का न्योता दे दिया. मगर थोड़ी देर बार उनका ट्वीटडिलीट कर दिया गया...कुछ विशेष कारणों से...जी शायद उन्हें पता चल गया था कि वोज्यादा आगे निकल रहे हैं. दिल्ली वाले तो बैठे ही हैं. खैर अब इतने न्योतों के बादएलन मस्क भारत के किस राज्य में निवेश करने आएंगे, ये तो दूर का सवाल है. मगरफिलहाल सोशल मीडिया पर न्योतों की भरमार के बाद पब्लिक खूब मौज ले रही है.