The Lallantop
X
Advertisement

हिंदुस्तान से निकली मुसलमानों की वो क़ौम, जो पाकिस्तान में जुल्म की शिकार है

दरबदर क़ौमें : रोहिंग्या पर हो रहे ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को इस क़ौम पर हुए ज़ुल्म को भी नहीं भूलना चाहिए.

Advertisement
Img The Lallantop
साल 2010 में पाकिस्तान में दो अहमदी मस्जिदों पर तालिबानी अटैक हुआ 161 लोग मारे गए थे. (Photo : Reuters)
pic
पंडित असगर
26 मई 2020 (Updated: 26 मई 2020, 10:02 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
रोहिंग्या मुसलमान. जिनपर म्यांमार में ज़ुल्म हो रहा है. वो देश छोड़कर भाग रहे हैं. म्यांमार सेना कह रही है कि वो उग्रवादियों को मार रही है. जबकि मीडिया में बच्चों और औरतों की लाशों की तस्वीरें सामने आ रही हैं. एक लाख से ज्यादा रोहिंग्या बांग्लादेश पलायन कर चुके हैं. रोहिंग्या क़ौम की तरह ही कुछ ऐसी और क़ौमें हैं, जो ज़ुल्म की शिकार हैं. दुनिया की ये क़ौमें दरबदर हैं. उनका अपना देश नहीं. 'दरबदर क़ौमें' सीरीज की तीसरी क़िस्त में पढ़िए 'अहमदी' क़ौम के बारे में.

darbadar kaume banner

अहमदी 'मुस्लिम'

साल 2016 में पैगंबर मोहम्मद साहब का जन्मदिन यानी 'ईद-ए-मिलादुन्नबी' दुनियाभर के मुसलमानों ने मनाई. लेकिन जैसे ही खबर मिली कि पाकिस्तान की एक अहमदी मस्जिद में मोहम्मद साहब का जन्मदिन मनाया जा रहा है, अपने को पक्का मुसलमान घोषित कर चुके लोगों की भीड़ उस मस्जिद पर टूट पड़ी. मस्जिद पर पथराव किया. गोलियां चलीं. मस्जिद के एक हिस्से में आग भी लगा दी गई. सिर्फ इसलिए क्योंकि वो अहमदी जमात की मस्जिद थी.
कौन हैं ये अहमदी, जो खुद को मुसलमान कहते हैं, लेकिन कट्टरपंथी उन्हें मुसलमान नहीं मानते. आखिर क्यों मुसलमानों की ये क़ौम मुसलमानों के हाथों ही जुल्म की शिकार हैं. क्यों इन अहमदियों पर 'वाजिब-उल-क़त्ल' के फतवे जारी होते हैं. क्यों ये अपने को मुसलमान नहीं कह सकते. आखिर कहां से शुरू हुई है अहमदी जमात? रोहिंग्या मुसलमानों के दर्द को दर्द समझने वालों को इस क़ौम के दर्द को भी जानना चाहिए. ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठ रही है तो इस क़ौम पर हो रहे ज़ुल्म को नज़रअंदाज़ करना बेइमानी होगा. इंसानियत के साथ धोखा होगा. पढ़िए अहमदी क़ौम के दरबदर होने की दास्तान : 
पाकिस्तान में आए दिन अहमदी लोगों को मार दिया जाता है. उनकी मस्जिदों में आग लगा दी जाती है. (Photo : Reuters)
पाकिस्तान में आए दिन अहमदियों को मारा जाता है. उनकी मस्जिदों में आग लगा देते हैं. (Photo : Reuters)


बात ज्यादा पुरानी नहीं है. तब की बात है जब अंग्रेजों ने इंडिया को पूरी तरह अपनी जकड़न में ले लिया था. साल 1835 था और तारीख थी 13 फ़रवरी. पंजाब के लुधियाना में मिर्ज़ा गुलाम अहमद पैदा हुए. उनके पूर्वज क्या लिखूं, दादा के दादा कह लीजिए मिर्ज़ा अमजद हादी 1530 में खानदान समेत अफगानिस्तान के समरकंद से हिजरत करके हिंदुस्तान आ गए और पंजाब के उस इलाके में आकर बस गए जो बाद में कादियान कहलाई. इस खानदान का ताल्लुक तुर्क-मंगोल कबीले से था. मुग़ल बादशाह ज़हीरुद्दीन बाबर ने मिर्ज़ा हादी को उस वक्त कई सौ देहातों की जागीर उन्हें दे दी थी.
मिर्ज़ा गुलाम अहमद पंजाब के लुधियाना में पैदा हुए थे.
मिर्ज़ा गुलाम अहमद पंजाब के लुधियाना में पैदा हुए थे.


खेतों में फसलें थीं. कटाई शुरू हो चुकी थी. उसी दौरान मिर्ज़ा गुलाम अहमद ने 23 मार्च 1889 को लुधियाना में हकीम अहमद जान के घर लोगों की पंचायत बुलाई. और इस पंचायत में अहमदी जमात की नींव रखी. लोगों से कहा, 'मोहम्मद आखिरी नबी नहीं हैं. बल्कि मैं खुद नबी हूं'.
उन्होंने दावा किया कि मुझे पैगंबर मोहम्मद की तरह अल्लाह से हुक्म मिला है कि मैं तुमसे इस बात बैअत (बात मनवाना) लूं कि मैं नबी हूं. और मुझे जमात बनाने का हुक्म मिला है. इस पंचायत में पहले दिन 40 लोगों ने बैअत ले ली. और इस तरह लुधियाना में पहली अहमदी जमात तैयार हो गई. गुलाम अहमद ने दो शादियां की. पहली हुरमत बीबी थीं, उनसे दो बच्चे हुए. दूसरी बीवी नुसरत जहां बेगम थीं, उनसे चार बच्चे थे.
गुलाम अहमद ने दो शादियां की थीं. पहली बीवी से दो बच्चे थे दूसरी से चार.
गुलाम अहमद ने दो शादियां की थीं. पहली बीवी से दो बच्चे थे दूसरी से चार.

मिर्ज़ा गुलाम अहमद के दावे

खुदा अब भी जिससे चाहे कलाम करता है. खुदा से बात करने का ये सिलसिला जारी है. 'कुरान आखिरी शरई किताब है.' इसका कोई हुक्म और कोई आयत नहीं. हजरत मुहम्मद आखिरी नबी नहीं.
पर इन दावों को बाकी मुसलमान ख़ारिज करते हैं. उनके मुताबिक हजरत मुहम्मद आखिरी नबी हैं. कुरान आखिरी किताब है, जिसको अल्लाह ने मुहम्मद साहब के जरिए जमीन पर भेजा. और सबसे आखिर में अल्लाह ने सिर्फ मुहम्मद साहब से बात की.
जैसे-जैसे अहमदी जमात का दायरा बढ़ा वैसे-वैसे उसकी मुखालफत बढ़ती गई. सबसे पहले साल 1893 में मौलाना अहमद रज़ा खां ने उनके दावों को सिरे से ख़ारिज कर दिया. और फिर उन्होंने हसाम-उल-हरमेन के नाम से उलेमा-ए-मक्का और मदीना से मिर्ज़ा गुलाम अहमद पर फतवा-ए-कुफ्र जारी करवा दिया. मिर्ज़ा गुलाम अहमद की लाहौर में 26 मई 1908 को मौत हो गई. 27 मई को उनकी मय्यत को उनके गांव कादियानी गांव लाया गया और सुपुर्दे खाक कर मकबरा बना दिया गया. उनके बाद पहले खलीफा हाजी नुरुद्दीन बने. इनके बाद गुलाम अहमद के बेटे मिर्ज़ा बशीरुद्दीन महमूद अहमद.
इंडोनेशिया की मस्जिद में नमाज़ पढ़ता अहमदी मुस्लिम. (Photo : Reuters)
इंडोनेशिया की मस्जिद में नमाज़ पढ़ता अहमदी मुस्लिम. (Photo : Reuters)


ये जमात अहमदी भी कहलाई और कादियान भी. लाहौर में मिर्ज़ा गुलाम अहमद का रहना-सहना ज्यादा हुआ और इस तरह वहां अहमदियों की संख्या बढ़ती गई. पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है कि हिंदुस्तान का बंटवारा होने के बाद उन लोगों ने अहमदियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया, जिनको पाकिस्तान की मुखालफत करने की वजह से देशद्रोही कहा जाने लगा था.
अपने को देशद्रोही टैग से बचाने के लिए ये आवाज़ बुलंद कर दी गई कि अहमदी मुसलमान नहीं हैं. उनके खिलाफ नफरत पनपने लगी. मुसलमानों के ज़हनों में ज़हर भरा जाने लगा. ये पैगंबर मुहम्मद की तौहीन करते हैं. अहमदी मुसलमान नहीं हो सकते. और ये गुस्सा लगातार बढ़ता गया. उन पर हमले होने लगे.

अहमदियों के खिलाफ पहला दंगा

पाकिस्तान में 1953 में पहली बार अहमदियों के खिलाफ दंगे हुए. जब उन दंगों की जांच पड़ताल हुई तो पता चला कि वो कट्टरपंथियों के उकसाने पर किए गए थे. सितंबर 1974 में पाकिस्तानी संविधान में संशोधन किया गया और अहमदी जमात को गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया. इस दौरान हजारों अहमदिया परिवारों को अपना घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. स्कूल-कॉलेजों से अहमदी स्टूडेंट्स को निकाल दिया गया. हिंसा भड़की. सैकड़ों अहमदी मारे गए और बहुत से ज़ख्मी हुए.
पाकिस्तान में अहमदी को मुसलमान नहीं माना जाता. उनकी मस्जिदों को निशाना बनाया जाता है. (Photo : Reuters)
पाकिस्तान में अहमदी को मुसलमान नहीं मानते. उनकी मस्जिदों को निशाना बनाया जाता है. (Photo : Reuters)

1982 में राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ ने संविधान में फिर से संशोधन किया. इसके तहत अहमदियों पर पाबंदी लगा दी गई कि वे ख़ुद को मुसलमान भी नहीं कह सकते. और पैगंबर मुहम्मद की तौहीन करने पर मौत की सजा तय कर दी गई. कब्रिस्तान अलग कर दिए गए. उस वक्त ये मसला भी उठा कि जो अहमदी कब्रिस्तान में दफना दिए गए हैं उनका क्या किया जाए. तब ये ख़बरें भी आईं कि कुछ कब्रों से अहमदियों की लाशों को निकलवा दिया गया.
पाकिस्तान में अहमदी कम्युनिटी पर कितना ज़ुल्म हुआ, अगर इस बात का अंदाजा लगाना है तो इससे लगता है कि उन्हें अस्सलाम अलेकुम कहने पर जेल में डाल दिया गया. जबकि हिंदुस्तान में तो गैर-मुस्लिम भी सलाम कर लेते हैं. ज़ुल्म की इंतेहा होने पर काफी अहमदियों ने पलायन किया और नॉर्थ इंग्लैंड में बस गए. यहां सबसे ज्यादा अहमदी हैं. मौजूदा दौर में 206 देशों में कई करोड़ अहमदी बताए जाते हैं.

किस देश में कितने अहमदिया

सबसे ज्यादा तादाद पाकिस्तान में है. क्योंकि शुरुआत भारत और पाकिस्तान से है. पकिस्तान में जहां इनकी संख्या 40 लाख से ज़्यादा बताई जाती है वहीं भारत में 10 लाख के करीब अहमदी मुस्लिम हैं. नाइजीरिया में 25 लाख से ज्यादा हैं तो इंडोनेशिया में करीब 4 लाख अहमदी रहते हैं. पाकिस्तान में ज़ुल्म होने की वजह से कई देशों में अहमदी लोगों ने शरण ली है. जिनमें जर्मनी, तंजानिया, केन्या जैसे देश शामिल हैं. जहां-जहां भी मुस्लिम बहुल देशों में अहमदी लोग रहते हैं, उनका वहां विरोध होता है. क्योंकि ये लोग मुहम्मद साहब को आखिरी नबी (अल्लाह का दूत) नहीं मानते. मुसलमान इसी बात पर इनके खिलाफ रहते हैं. क्योंकि इस्लाम के मुताबिक मुहम्मद साहब ही आखिरी नबी हैं.
इंडोनेशिया में अहमदी लोगों के खिलाफ प्रदर्शन करते मुस्लिम. (Photo : Reuters)
इंडोनेशिया में अहमदी लोगों के खिलाफ प्रदर्शन करते मुस्लिम. (Photo : Reuters)

...और जब 161 लोग मस्जिद में मर गए

28 मई साल 2010. पाकिस्तान में तालिबान ने दो अहमदी मस्जिदों को निशाना बनाया. लाहौर की बैतुल नूर मस्जिद पर फायरिंग की गई. ग्रेनेड फेंके गए. और जिस्म पर बम बांधकर आतंकी मस्जिद में घुस गए. 94 लोग मारे गए. और 100 से ज्यादा जख्मी हुए. दूसरी मस्जिद 'दारुल ज़िक्र' भी लाहौर की ही थी. यहां पर 67 अहमदी इस हमले में दम तोड़ गए.
पाकिस्तान के लाहौर में ‘दारुल ज़िक्र’ मस्जिद में 67 अहमदी मारे गए थे. (Photo : Reuters)
पाकिस्तान के लाहौर में ‘दारुल ज़िक्र’ मस्जिद में 67 अहमदी मारे गए थे. (Photo : Reuters)


इससे पहले साल 1997 की बात है. हिंदुस्तान में भी अहमदी जमात पर शिकंजा कसने की तैयारी हुई. 14 जून को दिल्ली में ऑल इंडिया मजलिस-ए-तहफ्फुज़ खत्म-ए-नबूव्वत के बैनर तले एक कांफ्रेंस हुई और अहमदियों का बहिष्कार करने का ऐलान हुआ. देवबंद के दारुल-उलूम ने अहमदियों को काफिर कहे जाने वाले उस फतवे की हिमायत की जो मौलाना अहमद रज़ा ने 1893 में जारी करवाया था.
इससे भी पहले 1993 में हिंदुस्तान में ही अहमदियों के खिलाफ किताबें बांटी गईं. उन किताबों में अहमदियों को वाजिब-उल-क़त्ल कहा गया. यानी उनका क़त्ल कर सकते हैं और कोई गुनाह नहीं होगा. उस दौरान दिल्ली में जमाते अहमदिया के अध्यक्ष अंसार अहमद ने कहा था कि इंडिया में इस विरोध के पीछे पाकिस्तान का हाथ है. और बांटी जा रही किताबें वहीं छपी हैं.
2010 में लाहौर की बैतुल नूर मस्जिद पर फायरिंग की गई. ग्रेनेड फेंके गए. (Photo : Reuters)
2010 में लाहौर की बैतुल नूर मस्जिद पर फायरिंग की गई. ग्रेनेड फेंके गए. (Photo : Reuters)


लेकिन मेरे मन में जो सवाल उठते है वो ये हैं कि क्या हम अहमदी का फैसला उन पर ही नहीं छोड़ सकते?  मेरा दीन मेरे साथ. उसका दीन उसके साथ. क्या ये नहीं हो सकता. इसके बदले उन्हें पीटा जाता है. कत्ल किया जाता है. मस्जिदें जलाई जाती हैं. अगर ये सब जुल्म करना ही है तो फिर ये कहना बंद कर दो कि इस्लाम अमन पसंद है.


ये भी पढ़ें :

पहली किस्त : मुसलमानों की वो क़ौम, जिसे मुसलमान ही क़त्ल कर दे रहे हैं

दूसरी किस्त : कुर्द : मुसलमानों की इस क़ौम ने जब भी अलग देश की मांग की, तब मारे गए


 

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement