रात के दो बजे भी रील्स देखते हैं, इस आंधी में कहां उड़ा जा रहा हमारा दिमाग?
ये रील का इश्क़ नहीं आसान, बस इतना समझ लीजिए… हर स्वाइप के साथ वक्त और ज़िन्दगी दोनों बर्बाद किए जाना है.
रॉबर्ट ब्राउनिंग अगर आज 'पाइड पाइपर' वाली कविता लिखते, तो उसकी कहानी में थोड़ा सा फर्क आता. कहानी कुछ ऐसी होती. जर्मनी के एक छोटे से टाउन में बेहद अजीबोगरीब वाकया हुआ. इस गांव में पहुंचा एक बांसुरी वाला. एकदम चिकोलाइट कैरेक्टर. उसकी बांसुरी सुनकर पूरा का पूरा गांव एकदम फैन हो गया. रोज़ शाम को पेड़ के नीचे बैठकर सब बांसुरी सुनते. शुरू तो मज़े में किए थे, लेकिन अब लत लग गई बांसुरी सुनने की. हाल ये कि बिना बांसुरी सुने लोगों के घरों में चूल्हे न जलें, लोग सोयें न. एक दिन, जब झमाझम महफ़िल जमी थी. सब मंत्रमुग्ध हुए बांसुरी सुन रहे थे. बांसुरी वाला अचानक खड़ा हुआ, और बांसुरी बजाते-बजाते चलने लगा. जैसे वो किसी रहस्यमय यात्रा पर निकला हो. पब्लिक रुकने के बजाय, उसके पीछे-पीछे चलने लगी. पहाड़ के किनारे वह बांसुरी वाला रुका, और लोग, एक-एक करके पहाड़ से छलांग लगाते रहे… “ख़तम टाटा बाय बाय”.
आखिर "कौन थे ये लोग और कहां से आते हैं?". ‘कोई इतना नादान या मूर्ख हो सकता है क्या? क्यों नहीं. खुद का नुकसान तो कई लोग करते ही हैं. जैसे रात के ढाई बजे, रील पर रील देखे पड़े हैं. ऐसे में ऑक्सफोर्ड वाले ‘ब्रेन रॉट’ जैसा शब्द इस्तेमाल करें तो क्या बुरा है. “फड़क नहीं पड़ता” कि रील देखने वाला कोई बच्चा है, नौजवान है या फिर कोई बुजुर्ग. नुकसान सबका है. क्यों? क्योंकि ये रील का इश्क़ नहीं आसान, बस इतना समझ लीजिए… हर स्वाइप के साथ वक्त और ज़िन्दगी दोनों बर्बाद किए जाना है.
- क्या सच में रील या सोशल मीडिया पर कॉन्टेंट देखना इतना नुकसानदायक है?
- इससे आपके दिमाग और आपकी पर्सनैलिटी पर क्या फर्क पड़ता है?
- रील बनाने और देखने की लत लगती क्यों है?
आज इन्हीं सवालों की तह तक जाएंगे.
एडिक्शन, लत, नशा. रील का. लत भी दो तरीके की है. रील देखने की लत तो है ही. इसके अलावा रील बनाने की लत भी लग जाती है. सर्दी, खांसी न मलेरिया हुआ, इसको तो रीलेरिया हुआ.
रील की लत क्यों लगी?कोई इंडस्ट्री, ट्रेंड या ऐप अगर तेज़ी से तरक्की कर जाए, तो मन में सवाल होता है- कैसे हुआ? बूम करने के लिए दो odds को मैनेज करना होता है. इन्फ्रास्ट्रक्चर और यूजर बिहेवियर. इन्फ्रास्ट्रक्चर माने मूलभूत सुविधाएं. जैसे कोई फैक्ट्री लगाने के लिए बिजली और सड़क इन्फ्रास्ट्रक्चर है. इस रील्स नामक इंडस्ट्री के लिए रिक्वायर्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर है स्मार्टफोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया यूज़र्स. कई न्यूज़ एजेंसीज के मुताबिक, भारत में क़रीब 70 से 80 करोड़ लोगों तक इंटरनेट की पहुंच है. Statista के मुताबिक, भारत में करीब 100 करोड़ स्मार्टफोन उपभोक्ता हैं. और करीब 48 करोड़ लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं. माने जमीन तैयार हो चुकी थी.
अब समझते हैं, इस इन्फ्रास्ट्रक्चर की मदद से कैसे यूज़र्स रील की तरफ आकर्षित हो गए. कम्युनिकेशन की दुनिया में एक थ्योरी है. यूज़ेज़ एंड ग्रैटिफिकेशन थ्योरी. ये थ्योरी शोधकर्ताओं को ये समझने में मदद करती है कि कोई भी व्यक्ति किन वजहों के चलते एक खास कम्युनिकेशन मीडियम को चुनता है. जैसे, कुछ लोगों को अखबार पढ़ना पसंद होता है. किसी को TV देखने में दिलचस्पी होती है. कोई WhatsApp का इस्तेमाल करता है. तो कोई इंस्टाग्राम या फेसबुक का. उसी तरह इस थ्योरी के आधार पर रील क्रिएटर्स और रील कंज्यूमर्स के ऑब्सेशन का पता भी चल जाता है.
‘साइंस डायरेक्ट’ नाम की एक वेबसाइट है, जो विज्ञान से जुड़े हजारों रिसर्च पेपर्स को पब्लिश करती है. इसमें छपी एक रिपोर्ट ‘Factors influencing Instagram Reels usage behaviors’ के मुताबिक, रील बनाने, रील्स पर कॉमेंट करने या सिर्फ स्क्रॉल करने के शौक कई वजहों से पैदा होते हैं. और इनमें से एक या उससे ज्यादा वजहें, किसी इंसान को रील्स चलाने के लिए प्रेरित कर सकती है. जैसे-
- सोशल कैपिटल: कई लोग रील्स बनाते हैं या रील्स पर कॉमेंट करते हैं, जिससे वो पॉपुलर हो पाएं. उनको अटेंशन मिले. उन्हें लगता है समाज में खुद की स्वीकार्यता बढ़ाने का ये परफेक्ट तरीका है. इस रिसर्च पेपर के मुताबिक 92 प्रतिशत लोगों के लिए सोशल कैपिटल बड़ा मोटिवेटिंग फैक्टर हो सकता है.
- ट्रेंड की दौड़: पुरानी कहावतों का रिवाइवल कभी हुआ तो एक वोट हमारी तरफ से. खरबूजा को देखकर खरबूजा रंग बदलता है के बदले अब आप कह सकते हैं, आईफोन को देखकर आईफोन मॉडल बदलता है. बस यही ट्रेंड की दौड़, रील बनाने की बड़ी वजह बन चुकी है. केदारनाथ गए हैं तो शंकर जी के भजन पर रील बनाना तय है. और जब सभी दिन-रात रील शेयर कर रहे हैं तो हम भी कर देते हैं.
- एक साइक टर्म से रूबरू होते हैं. एस्केपिज़्म (Escapism) यानी रियलिटी से भागने की इंसानी फितरत. चाहे टेम्परेरी तौर पर ही सही. अक्सर लोग तनाव से भी दूर भागते हैं. कभी मूवी देखने के बहाने. कभी फास्ट फ़ूड खाकर और कभी पीर बाबा के दम किए हुए पानी की शरण में जाकर. रील बनाना या देखना भी इसी तरह Escapism का एक बहाना है. रिपोर्ट के मुताबिक 87 प्रतिशत लोग Escapism के चलते रील का रुख करते हैं.
- रील का वीडियो स्टाइल भी रील की पॉपुलैरिटी की बड़ी वजह है. रील वर्टीकल वीडियो के फॉर्मेट में बनती है. इस वजह से ये देखने वालों को ज्यादा आकर्षित करती है. कैसे? रिसर्च पेपर के मुतबिक स्मार्ट फ़ोन चलाने वाले लोग 94 प्रतिशत समय, फ़ोन को वर्टिकल यानी सीधा पकड़ते हैं. इसके साथ 70% लोग जो साल 2000 के बाद पैदा हुए हैं, वो वर्टीकल स्टाइल में वीडियो देखना प्रेफर करते हैं. इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स, या टिक टॉक पर बनने वाले कॉन्टेंट के लिए इस पोटेंशियल को टैप करना बेहद आसान हो जाता है.
इन सब के अलावा कई लोग इसलिए भी रील्स बनाते हैं ताकि वो अपनी मेमोरीज को शार्ट वीडियोज़ के फॉर्म में सेव कर सकें. रील देखने वालों के लिए एंटरटेनमेंट और स्टॉकिंग भी मोटिवेशन का कारण है.
इस रिसर्च पेपर में एक और बेहद रोचक बात पता चली. जो लोग आत्ममोह, यानी खुद को लेकर ऑब्सेस्ड हैं, वे रील्स बनाने और रील्स पर रिएक्शन देने के शौक़ीन होते हैं. ये हुई बात उन सामाजिक और मानसिक वजहों की जो रील्स बनाने और देखने के लिए मजबूर करती हैं. अब समझते हैं इससे होने वाले इम्पैक्ट को.
रील्स से दिमाग पर क्या असर पड़ता है?हमारे शरीर में कुछ केमिकल बनते हैं, जिन्हें हॉर्मोन कहा जाता है. इनके कई सारे काम हैं. एक हॉर्मोन है डोपामीन. जो हमारे मूड, मोटिवेशन, खुशी आदि भावनाओं पर असर डालता है. आमतौर पर जब आपको महसूस होता है कि आपको किसी तरह का रिवॉर्ड मिला है, तब ये हॉर्मोन रिलीज़ होता है. ये आपको एकदम रिलैक्स कर देता है. डोपामीन के रिलीज़ से होने वाली ख़ुशी को कहते हैं डोपामीन इफ़ेक्ट.
अब फेम, पॉपुलैरिटी, लाइक्स और कॉमैेट्स की वजह से रील बनाने वालों को रिवॉर्ड वाली फीलिंग आती है. वैसे ही जैसे ऑफिस में बॉस दो मिनट की तारीफ कर दे तो कुछ लोगों को ऐसा लगता है, जैसे कोई लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिल गया है. लेकिन रील देखने वालों को कौन सा रिवॉर्ड मिल रहा है? बात ऐसी है कि काम के स्ट्रेस से निकलने के लिए अगर 30 सेकंड वाली कोई रील दिख जाए तो चेहरे पर ख़ुशी तो आ ही जाती है न. इसके अलावा कुछ 'रील-धर्मी' तो बाथरूम का समय भी रील्स की मदद से हंसते-खेलते बिता देते हैं. लेकिन ऐसे छोटे-छोटे रिवॉर्ड्स वाली फीलिंग ही बर्बादी की वजह हो सकती हैं. कैसे?
ब्रिटेन का एक अख़बार है- The Sun. इसमें एक आर्टिकल छपा. ‘TikTok Brain’ is a real thing – it is eating away at your mind & making your children dumber’. इसके मुताबिक हमारे दिमाग की वायरिंग कुछ अलग है. जैसे अपने आसपास सब कुछ नोटिस करना, स्कैन करना. ये अटेंटिव होने की निशानी है. वरना कई लोग सामान रखकर भूल जाते हैं, कहां रखा था. लेकिन रील देखने से क्या होता है? 30-30 सेकंड की वीडियोज़ घंटो तक देखने की वजह से रिवॉर्ड वाली फीलिंग लगातार बनी रहती है. इस वजह से इंसान ओवर-एक्साइटेड हो जाता है. इस वजह से बच्चों का खुद पर कंट्रोल कम हो जाता है. आर्टिकल के मुताबिक, जब उन बच्चों को टेस्ट किया जिनका स्क्रीन टाइम ज़्यादा (5-6 घंटे) है, तो पता चलता है कि उनके लिए अपने इमोशन और रिएक्शन को कंट्रोल करना मुश्किल होता जा रहा है.
बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. इस आर्टिकल के मुताबिक, रील देखने या सोशल मीडिया चलाने वालों को जब इसकी लत लगती है, तब बार-बार रील्स की तड़प उठती है. इस वजह से लोग अपना ध्यान एक जगह केंद्रित नहीं कर पाते हैं. ब्रेन बी लाइक - “इधर चला मैं उधर चला.”
इंसान का दिमाग 25 साल तक विकसित होता रहता है. बचपन के समय एक प्रोसेस होता है जिसे माइलिनेशन कहते हैं. आसान भाषा में कहें तो दिमाग की वायरिंग को और बेहतर बनाना. वायरिंग बेहतर होगी तो दिमाग सही से काम करेगा. माने समझदारी, अटेंशन, IQ और बिहेवियर सब उम्दा लेवल का होगा. The Sun के इस आर्टिकल के मुताबिक, ज़्यादा स्क्रीन टाइम का मतलब होता है कम माइलिनेशन. माने वायरिंग थोड़ी लूज़. इस वजह से अटेंशन, इंटेलिजेंस जैसी चीज़ें कम हो जाती हैं.
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