टेरर फंडिंग: ISIS और अल-क़ायदा जैसे बड़े आतंकी संगठन पैसा कैसे जुटाते हैं?
खूबसूरत पेंटिंग्स, ड्रग्स, हीरे की तस्करी और चैरिटेबल ट्रस्ट्स को मिली डोनेशंस से कैसे आतंकवादी पैसा कमाते हैं? और कैसे इससे आतंकवादी साज़िशों को अंजाम देते हैं? जानिए आसान भाषा में.
साल 1998. उस वक़्त अफगानिस्तान में धमक रखने वाले आतंकवादी संगठन, अल-क़ायदा की नज़र साढ़े 8 हज़ार किलोमीटर दूर पश्चिमी अफ्रीका के एक छोटे से देश सिएरा लियोन पर थी. वजह - टेरर फंडिंग. लेकिन सिएरा लियोन जैसा गरीब देश, जो 7 साल से सिविल वॉर झेल रहा था, वहां से अल-क़ायदा जैसे आतंकवादी संगठन को पैसा आख़िर कैसे मिल रहा था? बात कुछ ऐसी है कि सिविल वॉर के दौरान, रिवॉल्यूशनरी यूनाइटेड फ्रंट (RUF) नाम के एक विद्रोही संगठन ने सिएरा लियोन के पूर्वी और दक्षिणी हिस्से पर कब्ज़ा जमा लिया था. कब्ज़़ा किया नदियों की ख़ातिर. दरअसल इस इलाके में बहने वाली नदियों में धूल, मिट्टी और कंकड़ के साथ हीरे भी बहते थे. इधर RUF का इस क्षेत्र पर कब्ज़ा हुआ, उधर ये हीरे भी उनके कंट्रोल में. मैनेजमेंट का काम मिला इब्राहिम बाह नाम के व्यक्ति को. इब्राहिम बाह लीबिया के तानाशाह ग़द्दाफ़ी का ख़ास था. वो ओसामा बिन लादेन के साथ अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ चुका था. 1998 से 2001 के बीच, अल-क़ायदा ने सिएरा लियोन के इन हीरों को सस्ते में खरीदा और फिर इन्हें यूरोप और अमेरिका के ब्लैक मार्केट में महंगे दामों पर बेचा. हपककर पैसा आया और इस पैसे का इस्तेमाल अल-क़ायदा ने किस काम में किया, ये बताने की ज़रूरत नहीं है.
उस वक्त दुनिया के तमाम एयरपोर्ट्स पर डायमंड स्मगलिंग को पकड़ने की भी कोई ठोस व्यवस्था नहीं थी. इसलिए भी अल-क़ायदा का काम आसान हुआ. लेकिन बात फंडिंग तक ही सीमित नहीं रही. अल-क़ायदा ने इन हीरों का इस्तेमाल पैसे को सुरक्षित रखने के लिए भी किया. 9/11 के हमले से ठीक पहले, अल-क़ायदा ने अपने अमेरिकी बैंकों से पैसा निकालकर सिएरा लियोन से हीरे खरीदे. क्योंकि हीरे, स्टोर ऑफ़ वैल्यू के साथ-साथ करेंसी नोट्स जितनी जगह नहीं घेरते. ये तरीका इतना फूलप्रूफ और इनोवेटिव था कि CIA जैसी इंटेलिजेंस एजेंसी तक को भनक तक नहीं लगी. अल-क़ायदा के इस तरीके को देखकर धीरे-धीरे बाकी आतंकी संगठन भी फंडिंग जुटाने के नए तरीके निकालने लगे. और इस तरह दुनिया में टेरर फंडिंग का ख़तरनाक खेल और भी व्यापक हो गया. आज टेरर फंडिंग के इन्हीं तरीकों पर बात होगी.
# पहला तरीका- हाई वैल्यू आर्टआर्ट मार्केट का कल्चर बाकी ट्रेड से काफी अलग और जटिल है. इस दुनिया में होने वाले लेन-देन में प्राइवेसी और अनोनिमिटी का खास ध्यान रखा जाता है. और यही वजह है कि कई खरीदार अपनी पहचान छुपाकर आर्ट पीसेस खरीदते हैं. सबसे दिलचस्प बात ये है कि कई देशों में इन ट्रांजैक्शन्स पर खास निगरानी भी नहीं होती है. और इन प्रोडक्ट्स को आसानी से बॉर्डर के पार भेजा जा सकता है. ये बात अपराधियों से पहले भला कौन ही समझ सकता था! लिहाजा धीरे-धीरे ये आतंकवाद की फंडिंग के लिए आसान साधन बनते गए. कैसे? अमेरिका के ट्रेज़री डिपार्टमेंट ने 2022 में एक डॉक्यूमेंट पब्लिश किया- “Study of the Facilitation of Money Laundering and Terror Finance Through the Trade in Works of Art. इस रिपोर्ट ने बताया कि दो मुख्य तरीकों से महंगे आर्ट वर्क्स का इस्तेमाल आतंकवाद की फंडिंग के लिए होता है.
- पहला तरीका- आर्ट के जरिए फंड को सुरक्षित रखने के लिए इस्तेमाल करना. जब अरबों डॉलर कैश में हों, तो उसे संभालना मुश्किल होता है. बड़ी जगह की भी ज़रूरत होती है, और इसकी हिफ़ाज़त करते फिरो, सो अलग. लेकिन अगर इन्हीं पैसों से महंगी पेंटिंग्स खरीद ली जाए तो न ज़्यादा जगह चाहिए होती है और न ही उसे छिपाने में दिक्कत होती है. माने कुछ महंगी पेंटिंग्स एक छोटे से सेफ हाउस में रखी जा सकती हैं और पैसे की वैल्यू भी सुरक्षित रहेगी.
- दूसरा तरीका- इन महंगी पेंटिंग्स को बेचना और उससे मुनाफा कमाना. उदाहरण के लिए, जब इन पेंटिंग्स का ऑक्शन होता है और इन्हें दोगुने - तीन गुने दाम पर बेचा जाता है और पैसे का टेरर फंडिंग के लिए इस्तेमाल होता है. कभी-कभी तो सीधे-सीधे पेंटिंग्स का ही इस्तेमाल पेमेंट के तौर पर किया जाता है. सोचिए, कोई आतंकवादी संगठन हथियारों की डील करना चाहता है, तो वो कैश की जगह महंगी पेंटिंग्स दे सकता है, जिसे बाद में हथियार बेचने वाली कंपनी ऑक्शन में बेचकर कैश में बदल सकती है.
साल 2019 में न्यूयॉर्क टाइम्स में एक रिपोर्ट छपी. इसमें बताया गया कि नज़ीम अहमद नाम के एक लेबनीज़ आर्ट डीलर के कलेक्शन को सील कर दिया गया. आरोप कि वो हिजबुल्लाह को फंडिंग कर रहा था. नज़ीम गुमनाम ट्रांजैक्शन्स के जरिए न्यूयॉर्क के आर्टिस्ट्स से पेंटिंग्स खरीदता. फिर उन्हें दूसरे देशों में भेज देता, जिससे वो अमेरिका में जमा हुए फंड्स को आसानी से लॉन्डर कर पाता. बाद में हिजबुल्लाह इन पेंटिंग्स के जरिए पेमेंट करता.
महंगे आर्ट वर्क्स का इस्तेमाल कोलेटरल की तरह भी होता है. कई फाइनेंशियल संस्थान हाई-वैल्यू आर्ट पर कोलेटरल के तौर पर लोन देते हैं. आतंकवादी या उनके फाइनेंसर्स इस तरह से लोन लेकर पैसों के असली स्रोत को छिपा लेते हैं, जिससे ब्लैक मनी, व्हाइट हो जाती है. कोलेटरल वाला सिस्टम आसानी से इसलिए मुमकिन हो पाता है, क्योंकि अमेरिका में कई आर्ट फाइनेंस फर्म्स हैं, जो हाई-वैल्यू आर्ट को लोन के लिए कोलेटरल के रूप में इस्तेमाल करती हैं. लेकिन इन फर्म्स पर एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग और काउंटर-फाइनेंसिंग ऑफ टेररिज्म जैसी रेगुलेशंस लागू नहीं होते.
दूसरा तरीका - बिज़नेस सेटअपआतंकवादी संगठन और उनके समर्थकों के बैंक अकाउंट्स पर अक्सर एजेंसियों की पैनी नज़र रहती है. इसलिए, कई बार इनके ऑपरेटिव्स दूसरे देशों में जाकर एक बिज़नेस सेटअप करते हैं. बिजनेस के ज़रिए व्हाइट मनी जेनरेट करते हैं और फिर इसका इस्तेमाल टेरर फंडिंग में करते हैं. सोचा भी नहीं जा सकता कि किसी साफ-सुथरे से दिखने वाले बिज़नेस से टेरर फंडिंग हो सकती है.
इज़रायल की ‘बार इलान यूनिवर्सिटी’ में एक रिसर्च पेपर छपा था. नाम- ‘द ग्लोबलाइजेशन ऑफ टेरर फंडिंग’. इसमें लिखा था कि 9/11 के बाद जब दुनियाभर की एजेंसियों ने अल-क़ायदा की जांच शुरू की, तब पता चला कि इस संगठन के ऑपरेटिव्स ने कई बिजनेस सेटअप किए थे और इन्हीं से टेरर फंडिंग की जा रही थी. कैसे? यूएस कांग्रेस में एक सीनियर FBI अधिकारी ने बताया कि अल-क़ायदा के लोग यूरोप में एक कंस्ट्रक्शन और प्लंबिंग कंपनी चला रहे थे, और इसमें उन्होंने हायर किया बोस्निया में लड़ चुके मुजाहिद्दीनों को. एक और बड़ी बात खुली. कि अल-क़ायदा के स्लीपर सेल्स जर्मनी में सेकंड हैंड कारों का भी बिज़नेस चला रहे थे. इस बिज़नेस से होने वाले मुनाफे को हवाला के ज़रिये आए पैसों के साथ मर्ज कर दिया जाता था. इस तरह, ना सिर्फ कमाई का नया ज़रिया तैयार हुआ, बल्कि हवाला के पैसे भी आसानी से व्हाइट हो गए. ये तरीका इतना कारगर और छिपा हुआ था कि आतंकवादी संगठनों ने अमेरिका, ब्रिटेन, स्विट्जरलैंड और दुबई में अपने एसेट्स तक बना लिए थे. और ये तरीका सिर्फ अल-क़ायदा तक सीमित नहीं था. हिजबुल्लाह जैसे बड़े संगठन भी शेल कंपनियों का इस्तेमाल कर पैसा एक से दूसरे देश भेजते थे और अपने ऑपरेशंस को फंड करते थे.
तीसरा तरीका - ऑर्गेनाइज़्ड क्राइमऑर्गेनाइज़्ड क्राइम यानी वो अपराध जिसे एक संगठित तरीके से अंजाम दिया जाए. जैसे ड्रग्स की स्मगलिंग. ये एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है. आतंकवादी संगठनों के लिए इस तरह का तंत्र खड़ा करना आसान होता है, और इसी कारण ड्रग्स की तस्करी उनके लिए आय का एक प्रमुख स्रोत बन जाती है. उदाहरण के तौर पर, तालिबान और हिज़बुल्लाह जैसे समूह अफीम और हेरोइन की तस्करी में गहराई से शामिल हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में, तालिबान देश के मैक्सिमम अफीम प्रोडक्शन को कंट्रोल करता है. तालिबान की अफीम सप्लाई से ही दुनिया में 80 फीसदी से अधिक हेरोइन का प्रोडक्शन होता है. अफीम की सप्लाई से इतनी आमदनी होती है कि वो एक बड़ी सेना बना पाया, आधुनिक हथियार ले पाया. तभी तो तालिबान आज एक देश पर हुकूमत कर रहा है.
विवेकानंद रिसर्च फाउंडेशन के एक पेपर के मुताबिक, 2000 के दशक में, भारत और पाकिस्तान के बीच LoC के रास्ते व्यापार की शुरुआत हुई थी ताकि दोनों देशों के बीच शांति को बढ़ावा मिल सके. लेकिन, आतंकवादियों ने इस मौके का फायदा उठाकर इस रास्ते से ड्रग्स और हथियारों की तस्करी शुरू कर दी, जिससे कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को और बढ़ावा मिला.
संगठित अपराध का एक और तरीका है- ‘फिरौती’, जिसमें किसी व्यक्ति को किडनैप करके उसके बदले भारी रकम मांगी जाती है. कई मीडिया रिपोर्ट्स का दावा है कि यूरोपीय सरकारों और प्राइवेट कंपनियों ने आतंकवादी समूहों द्वारा बंधक बनाए गए लोगों को छुड़ाने के लिए लाखों डॉलर की फिरौती दी है. उदाहरण के तौर पर, 2007 तक ISIS ने पश्चिमी देशों से फिरौती के तौर पर 20 मिलियन डॉलर यानी आज के रेट से करीब 168 करोड़ रुपये से ज़्यादा जुटाए.
चौथा तरीका- चैरिटी ट्रस्ट्सटेरर फंडिंग का एक और बड़ा तरीका है, चेरिटेबल ट्रस्ट्स और NGOs की मदद से फंडिंग जुटाना. और फिर उसे आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करना. माने राहत प्रयासों के लिए इकट्ठा किए पैसे से ठीक उल्टा काम करने में इस्तेमाल होता है.
ट्रस्ट्स और NGOs से जुड़े कानून कई देशों में ज़्यादा सख़्त नहीं हैं. इस वजह से इन फंड्स को आसानी से सीमा पार भेजा जा सकता है. “द ग्लोबलाइजेशन ऑफ टेरर फंडिंग” रिसर्च पेपर में अमेरिका के उस वक्त के सबसे बड़े इस्लामिक चैरिटेबल ट्रस्ट ‘होली लैंड फाउंडेशन’ (HCF) का जिक्र है. अमेरिका में इस फाउंडेशन पर आरोप लगा कि इसके डोनेशन का बड़ा हिस्सा हमास को फंड करने में जा रहा है. हालांकि HLF ने शुरू में दावा किया कि वो फिलिस्तीनी क्षेत्रों में स्कूलों और अस्पतालों जैसे सामाजिक कार्यक्रमों को फंड कर रहा था. लेकिन कोर्ट में ट्रायल हुआ और सबूतों से पता चला कि ये फंड बच्चों को ‘सुसाइड बॉम्बर्स’ बनने के लिए इस्तेमाल किया गया था.
फंडिंग कैसे भेजी जाती थी? FBI के एक दस्तावेज के मुताबिक HLF ने वेस्ट बैंक और गाजा में ज़कात कमिटीज़ को पैसा दिया. ज़कात एक तरीके का इस्लामिक टैक्स होता है. जो समाज में परेशान लोगों की मदद के लिए इकट्ठा किया जाता है. फिलिस्तीनी इलाकों में कई ज़कात कमिटीज़ को हमास के एक्टिविस्ट चलाते थे. जब HLF के बैंक रिकॉर्ड्स को खंगाला गया तो पता चला कि फाउंडेशन ने 1997 से 1999 के बीच तुलकर्म ज़कात कमिटी को 70 हज़ार डॉलर यानी आज के रेट से क़रीब 59 लाख रुपये डोनेशन दिया था. इस कमिटी से जुड़े लोग जैसे Muhammad Hamid और Ibrahim Nir al-Shams, हमास की लीडरशिप का भी हिस्सा थे.
कश्मीर में भी चैरिटेबल ट्रस्ट्स की मदद से टेरर फंडिंग के आरोप लगते रहे हैं. कुछ रिसर्च पेपर्स दावा करते हैं कि कश्मीर में स्कूल चलाने के नाम पर आई डोनेशंस का इस्तेमाल अलगाववादी गतिविधियों को बढ़ावा देने में किया गया. कुछ कट्टरपंथी संगठन ऐसे भी हैं, जो कुछ देशों के प्रॉक्सी के तौर पर काम करते हैं. जैसे ईरान के लिए हिज़्बुल्लाह और हमास. ऐसे संगठन को देशों की सरकारों से पैसा और हथियार मिलता है.
पांचवा तरीका- क्रिप्टोकरेंसीक्रिप्टोकरेंसी की भी कुछ ख़ासियत हैं, जो इसे टेरर फंडिंग के लिए सूटेबल बना देती हैं. जैसे-
- इसके जरिये फंड ट्रांसफर के लिए किसी भी तरह के बैंकिंग सिस्टम की ज़रूरत नहीं होती,
- एक क्लिक पर पैसे भी भेज सकते हैं, हवाला जैसे कम्प्लीकेटेड तरीके की जरुरत नहीं होती.
- और सबसे जरुरी बात ये है कि इसके ट्रांजैक्शन्स को ट्रैक नहीं किया जा सकता.
ISIS ने Bitcoin जैसे क्रिप्टोकरेंसी का इस्तेमाल करके भी फंडिंग जुटाई, दुनिया भर में समर्थकों से चंदे जुटाए. ज़रा सोचिए, दुनिया के कोने-कोने से लोग चुप-चाप टेरर फंडिंग के लिए पैसे भेज रहे थे और अधिकारियों को भनक भी नहीं लग रही थी. अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने इसको रोकने की कोशिश की, लेकिन क्रिप्टोकरेंसी एक ऐसा सिस्टम है जो किसी भी संस्था के कंट्रोल से बाहर रहा है.
अगर दुनिया में आतंकवाद को कंट्रोल करना है तो सबसे पहले इसकी फंडिंग कम करवानी होगी, रोकनी होगी. जैसे अगर वॉशरूम से पानी बहकर कमरे में आ रहा हो, तो बार-बार पानी पोंछने से हल नहीं निकलेगा. पता करना होगा कि पानी लीक कहां से हो रहा है. उसे दुरुस्त करना होगा.
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