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इज़रायल-हमास जंग के बीच ईरान पर बमबारी, एक और जंग हो जाएगी?

अमेरिका ने ईरान से जुड़े ठिकानों पर बमबारी क्यों की, इज़रायल-हमास जंग बढ़ने वाली है?

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अमेरिका ने ईरान से जुड़े ठिकानों पर बमबारी क्यों की, इज़रायल-हमास जंग बढ़ने वाली है?
अमेरिका ने ईरान से जुड़े ठिकानों पर बमबारी क्यों की, इज़रायल-हमास जंग बढ़ने वाली है?
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अभिषेक
27 अक्तूबर 2023 (Published: 19:52 IST)
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अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन, ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली ख़ामेनई को धमका रहे थे - हमारे एक भी आदमी को छुआ तो अंज़ाम बुरा होगा. वॉर्निंग के एक दिन बाद ही अमरीकी फ़ौज ने बमबारी की. सीरिया में ईरान से जुड़े दो ठिकानों को उड़ा दिया. फिर सफ़ाई दी, ये हमारे आपस का मामला है. इसका इज़रायल से कोई लेना-देना नहीं है. अमरीका भले इनकार करे, लेकिन उसके हमले का इज़रायल-हमास जंग से सीधा कनेक्शन है. कैसे?

जंग में दो मेन पार्टीज़ हैं.

एक है, इज़रायल. उसको अमरीका का बैकअप है. अमरीका कहता है, हमास को खत्म कर दो. कोई और आया तो हम देख लेंगे. दूसरी पार्टी है, हमास. ईरान इकलौता देश है, जिसने खुलकर हमास के हमले का समर्थन किया. पक्ष में बयान दिए हैं. वेस्टर्न मीडिया की मानें तो हथियार भी. दूसरी तरफ़, हाल के समय में अमरीका और ईरान की दुश्मनी बढ़ी है. अमरीका, इज़रायल और सऊदी अरब के बीच मध्यस्थता भी करवा रहा था. इससे ईरान की प्रासंगिकता घटने लगी थी. जानकार कहते हैं, जंग के ज़रिए ईरान को अपना हित साधने का मौका मिला है. हालांकि, वो सीधी लड़ाई में शामिल होने के लिए तैयार नहीं है. इसलिए, बैकडोर से आतंकी गुटों को उकसा रहा है.

17 अक्टूबर के बाद से वेस्ट एशिया में अमरीका की फ़ौज पर कम से कम 20 हमले हुए हैं. इसमें 21 सैनिक घायल हुए. जबकि एक हमले के बीच में एक कॉन्ट्रैक्टर को दिल का दौरा पड़ा. उसकी जान चली गई. अमरीका बोला, इन हमलों के पीछे ईरान है. हम बदला लेंगे. उसने बदला लेने की शुरुआत भी कर दी है. वो पहले भी ऐसा करता रहा है. मगर इस बार टाइमिंग अलग है. इज़रायल-हमास जंग में अमरीका और ईरान दोनों के हित हैं. और, एक जंग की चिनगारी दूसरी आग को भड़काने के लिए काफ़ी है. आशंका है कि अगर ईरान लड़ाई में शामिल हुआ, फिर तबाही को कंट्रोल करना नामुमकिन हो जाएगा.

क्या हो सकता है और क्या नहीं? इन संभावनाओं पर आगे एक्सपर्ट से समझेंगे. फिलहाल एक जिज्ञासा का उत्तर जान लेते हैं. आपके मन में सवाल होगा कि, अमरीका की फ़ौज सीरिया में क्या कर रही है? और, वहां पर ईरान के कौन से हित छिपे हैं?

- सीरिया में अमरीका की एंट्री 2011 में हुई थी. तब राष्ट्रपति बशर अल-असद के ख़िलाफ़ जनता ने विद्रोह किया. असद ने उनका दमन किया. फिर सेना का एक धड़ा सरकार के ख़िलाफ़ हो गया. विद्रोहियों से हाथ मिला लिया. अपनी अलग सेना बनाई. नाम रखा, फ़्री सीरियन आर्मी (FSA). यहां से सिविल वॉर की शुरुआत हुई. असद पर तानाशाही बरतने और मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लग रहे थे. अमरीका बोला, ये ग़लत बात है. उसने असद सरकार पर प्रतिबंध लगा दिया. खुफिया रास्ते से FSA को हथियार और पैसे भेजने लगे. साथ में कुछ अफ़सर भी गए. उन्होंने फ़्री सीरियन आर्मी को ट्रेनिंग दी. जंग का दांव-पेच सिखाया. ये सब परदे के पीछे हो रहा था.

फिर आया 2013 का साल. इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड लेवांत (ISIL) नाम के आतंकी गुट का उभार हुआ. इसे पहले ‘अलक़ायदा इन इराक़’ के नाम से जाना जाता था. ISIL को इस्लामिक स्टेट या दाएश भी कहते हैं. इनका मकसद था, पूरी दुनिया में इस्लामी ख़िलाफ़त की स्थापना.

2013 में इराक़ और सीरिया, दोनों जगह सिविल वॉर हो रहा था. IS को पांव पसारने का मौका मिला. उसके राज में दूसरे धर्म या संप्रदाय के लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी. उसकी बर्बरता पूरी दुनिया देख रही थी. इससे वेस्ट एशिया के देशों को भी चिंता लगी. तब उन्होंने अमरीका से विचार-विमर्श किया. फिर साझा सेना भेजने का फ़ैसला हुआ. सितंबर 2014 में अमरीका के अगुआई में गठबंधन सेना ने IS पर हवाई हमले शुरू किए. ग्राउंड पर उन्हें फ़्री सीरियन आर्मी और सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेस (SDF) का साथ मिल रहा था. धीरे-धीरे अमरीका ने मिलिटरी बेस भी बनाए. फ़ौज वहीं से ऑपरेट करने लगी.

2017 आते-आते अधिकतर जगहों से IS को खदेड़ा जा चुका था. उसकी लीडरशिप बिखर चुकी थी. अक्टूबर 2019 में IS का सरगना अबू बक्र अल-बग़दादी भी मारा गया. फ़रवरी 2023 में अमरीका के रक्षा मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट में माना कि इस्लामिक स्टेट खत्म चुका है.

क्या-क्या लिखा था?

- IS से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है.
- वे हमारे हितों को नुकसान पहुंचाने के काबिल नहीं रहे.
- हमारा मकसद लगभग पूरा हो चुका है.

इसके बावजूद सीरिया में अमरीका के 04 मिलिटरी बेस अभी भी हैं. लगभग 900 सैनिक तैनात हैं. इसके अलावा, बड़ी संख्या में कॉन्ट्रैक्ट पर लड़ने वाले लड़ाके भी तैनात हैं.
इसकी 03 वजहें हैं.

- नंबर एक. इस्लामिक स्टेट.

IS संगठन के तौर पर भले ही सिमट चुका है, मगर उसकी विचारधारा बरकरार है. वे अभी भी लोगों को रिक्रूट कर रहे हैं. इसके अलावा, सीरिया की जेलों में बड़ी संख्या में IS के आतंकी बंद हैं. इन्हें FSA और SDF वाले चला रहे हैं. अमरीका के सपोर्ट से. 
IS जेलों पर हमले की धमकी देता रहता है. अगर अमरीका हटा तो IS सफल हो सकता है. ये लॉन्ग-टर्म में नुकसानदेह साबित होगा.

- नंबर दो. बशर अल-असद.

सीरिया के सिविल वॉर को 12 बरस बीत चुके हैं. इसका मकसद था, राष्ट्रपति असद को कुर्सी से उतारना. इसकी बजाय असद और ताक़तवर हुए हैं. हाल ही में सीरिया को अरब लीग में शामिल किया गया है. 2012 में उसे बाहर निकाल दिया गया था. अरब लीग में कुल 22 सदस्य हैं. ईजिप्ट और सऊदी अरब जैसे देश भी हैं. उनसे मान्यता मिलने का मतलब है, असद कुछ भी करें, उन्हें डिप्लोमैटिक बैकअप मिलता रहेगा. जानकार कहते हैं, ये असद की जीत है. और, अब एक ना एक दिन अमरीका को वापस जाना ही पड़ेगा. इससे असद के ख़िलाफ़ खड़े गुटों पर ख़तरा मंडराने लगा है. 2019 में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने फ़ौज को वापस बुलाने का ऐलान किया था. बाद में फ़ैसला बदल दिया. बाइडन सरकार भी यथास्थिति को छेड़ने के लिए तैयार नहीं है.

- तीसरी वजह ईरान से जुड़ी है.

ईरान 2013 से असद सरकार की मदद कर रहा है. सैनिक, हथियार और पैसों से. इसके अलावा, लेबनान से हेज़बोल्लाह के लड़ाकों को भी उतारा गया. हेज़बोल्लाह को ईरान का प्रॉक्सी माना जाता है. उसकी स्थापना के पीछे ईरान ही था. इस तरह ईरान अपना दखल बढ़ा रहा है.

लेबनान और सीरिया, दोनों की सीमा इज़रायल से लगती है. यानी, ईरान की सीधी पहुंच इज़रायल तक हो गई. अब ये दोनों हैं पक्के वाले दुश्मन. अभी तक तो दोनों छिटपुट हमले और खुफिया ऑपरेशंस तक सीमित हैं. लेकिन बड़ी लड़ाई की आशंका हमेशा बनी रहती है. अमरीकी फ़ौज की मौजूदगी से चेक एंड बैलेंस बना रहता है.

अब ये जान लेते हैं कि वहां ईरान के क्या हित छिपे हैं?

ईरान और सीरिया के बीच गहरी वाली दोस्ती 1979 में शुरू हुई. तब ईरान में इस्लामी क्रांति हुई थी. अयातुल्लाह रुहुल्लाह ख़ोमैनी के नेतृत्व में. फिर इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान की स्थापना हुई. सीरिया इसको मान्यता देने वाला तीसरा देश था. पहले दो थे - सोवियत संघ और पाकिस्तान. उस दौर में सीरिया की कमान हाफिज़ अल-असद के पास थी. बशर अल-असद के पिताजी. असद परिवार शिया इस्लाम की अलवी धारा को मानता है. ख़ोमैनी भी शिया थे. ये दोनों देशों के बीच कनेक्शन की पहली कड़ी थी. हालांकि, जहां एक तरफ़ ईरान इस्लामी राष्ट्र है, सीरिया धर्मनिरपेक्ष है.

इसलिए, ईरान और सीरिया की दोस्ती धर्म से ज़्यादा कॉमन दुश्मन और वर्चस्व की चाह का मसला है.

ये तो हुई अमरीका-ईरान के आपसी झगड़े की कहानी.
अब मेन पिक्चर की अपडेट जान लेते हैं. 

> इज़रायल-हमास जंग 21वें दिन भी जारी है.
नुकसान का आंकड़ा कहां पहुंचा?
- इज़रायल का दावा, 14 सौ से अधिक नागरिक मारे गए.
- गाज़ा की हेल्थ मिनिस्ट्री का दावा, इज़रायल के हमले में 07 हज़ार से अधिक की जान गई.
हमास को हुए नुकसान का स्पष्ट डेटा अभी सामने नहीं आया है.

> हमास के कब्ज़े में क़ैद बंधकों की संख्या 229 तक पहुंच गई है. 27 अक्टूबर को इज़रायल डिफ़ेंस फ़ोर्सेस (IDF) ने इसकी पुष्टि की है.
07 अक्टूबर के हमले के बाद हमास इन लोगों को गाज़ा ले गया था. उसके बाद इज़रायल ने जवाबी कार्रवाई शुरू की. 
दोनों पक्ष बंधकों के मुद्दे पर पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं.
हमास का कहना है, जब तक संघर्षविराम नहीं होता, बंधकों को नहीं छोड़ा जाएगा.
इज़रायल कहता है, जब तक सभी बंधक आज़ाद नहीं होते, तब तक हमला नहीं रुकेगा.

इस संकट के बीच पर्शिया की खाड़ी में बसा एक छोटा सा देश सुर्खियां बटोर रहा है. ये देश है, क़तर. पिछले कुछ दिनों में अमरीका, ब्रिटेन और इज़रायल, क़तर के शासक को शुक्रिया कह चुके हैं. 
लेकिन क्यों? क्योंकि क़तर बंधकों की रिहाई के लिए हमास से बातचीत कर रहा है. दरअसल, क़तर की राजधानी दोहा में हमास का दफ़्तर है. हमास का लीडर इस्माइल हानिएह वहीं रहता है. उसके क़तर सरकार से अच्छे कनेक्शन हैं. इसी की वजह से 04 बंधक रिहा भी हुए हैं. उम्मीद है कि आने वाले दिनों में और भी लोग छुड़ाए जा सकते हैं. लेकिन इज़रायल का ज़मीनी हमला रेड लाइन साबित हो सकता है. पिछली दो रातों से इज़रायली सेना गाज़ा पट्टी में छापामार हमले कर रही है. हालांकि, अभी तक ज़मीनी हमले की आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है. हमास का कहना है कि जिस दिन ऐसा हुआ, इज़रायल बंधकों को भूल जाए.

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