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संसद बनाने वाले ने क्यों कहा मेरी पीठ पर छुरा भोंका?

कैसे बनी दिल्ली में पुरानी संसद की इमारत?

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जब भारत की संसद बनी थी तो बनाने वालों में तगड़ी लड़ाई हो गई थी | फाइल फोटो: आजतक
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अभय शर्मा
20 सितंबर 2023 (Updated: 20 सितंबर 2023, 10:06 IST)
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अंग्रेजों की एक चर्चित नीति थी, जिससे आप भी परिचित होंगे. 'बांटो और राज करो'. इससे उन्होंने 'दिन दूनी और रात चौगुनी' तरक्की की. खूब बढ़ाया भारत में साम्राज्य. लेकिन अंग्रेजों में एक प्रवृत्ति और भी थी, जहां हुकुमत चलाने में उन्हें बहुत ज्यादा दिक्कत होती, वो वहां से खिसक लेते. पूरी तरह नहीं, तो उस इलाके में अपनी प्रिजेंस को इतना सीमित कर लेते कि उनके व्यापार और फ़ौज को ज्यादा नुकसान न हो.

इसका एक उदाहरण मिलता है साल 1905 में. तब जब ब्रितानिया हुकूमत ने बंगाल में विभाजन का आदेश सुना दिया था. तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन ने मुस्लिम बहुल पूर्वी हिस्से को असम के साथ मिलाकर अलग प्रांत बना दिया. दूसरी ओर हिंदू-बहुल पश्चिमी भाग को बिहार और ओडिशा के साथ मिलाकर पश्चिम बंगाल नाम दे दिया. दरअसल, उस समय अंग्रेजी सरकार और उसकी नीतियों का विरोध करने में बंगाल के लोग सबसे आगे थे. बंगाल उस वक्त राष्ट्रीय चेतना और देश भक्ति का केंद्र कहा जाता था. राजनीतिक चेतना ऐसी कि ब्रिटिश सरकार की नींद हराम हो रखी थी. बस, इसी चेतना को दबाने के लिए हिंदू-मुस्लिम के नाम पर बंगाल को बांटा गया.

लेकिन इस फैसले ने ब्रिटानिया हुकूमत के लिए भी कम मुश्किलें पैदा नहीं कीं. इसका विरोध पूरे देश में हुआ. कलकत्ता (अब का कोलकाता) में टाउन हॉल बुलाया गया, बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोग इसमें शामिल हुए. इसी सभा में ब्रिटिश सामान के बहिष्कार का प्रस्ताव पास हुआ और स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई. पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ जमकर हंगामा कटा, कलकत्ता में तो ये हंगामा चरम पे था. आम आदमी से लेकर नेताओं तक ने सरकारी सेवाओं, स्कूलों, न्यायालयों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर दिया. ये राजनीति के साथ-साथ आर्थिक आंदोलन भी था. साथ ही इसने राष्ट्रवाद की ऐसी चिंगारी फूंकी कि बंगाल में अंग्रेजों की समस्याएं बहुत बढ़ गयीं. इतनी कि उन्होंने अपना बड़ा काम-धंधा कलकत्ता से समेटने का मन बना लिया.

बंगाल विभाजन के तीखे विरोध से निपटने के लिए ब्रितानी हुकूमत में दो बातों पर सहमति बनी. पहली कि बंगाल विभाजन रद्द कर दिया जाए. दूसरी ये कि बंगाल में आजादी की चिंगारी आग में तब्दील हो गई है, इसलिए राजधानी कलकत्ता की जगह दिल्ली शिफ्ट कर ली जाए. साल 1911 में हुए दिल्ली दरबार में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम ने ये दोनों ऐलान कर दिए.

 दिल्ली दरबार में दिल्ली को भारत की राजधानी बना तो दिया गया. मगर उस समय कई ब्रिटिश अफसरों को भी लगता था कि दिल्ली 'राजधानी लायक' नहीं है. दरअसल, 1857 की क्रांति के दौरान दिल्ली में खूब खून-खराबा हुआ था. दिल्ली उजड़ सी गई थी. और ऐसा उसके साथ कई बार हुआ था. अंग्रेजों ने भी दिल्ली पर तब तक ज्यादा निवेश नहीं किया था क्योंकि उनकी राजधानी कलकत्ता थी. दूसरा दिल्ली से सटे हुए मेरठ में अंग्रेजों की एक बहुत बड़ी छावनी काफी पहले से थी.

अब सवाल उठता है कि दिल्ली की जब ऐसी स्थिति थी तो बॉम्बे और मद्रास जैसे शहरों के बाद भी इसे तरजीह क्यों दी गई? आज ये भी जानेंगे कि संसद बनाने में कैसे दुनिया के दो बड़े शिल्पकारों की जिगरी दोस्ती टूट गई.

दिल्ली को राजधानी बनाने के लिए तरजीह क्यों दी गई?

इसकी एक वजह तो ये बताई जाती कि दिल्ली मुगल काल में एक बहुत लम्बे समय तक राजधानी रह चुकी थी. साथ ही ये भारत के बींचों-बीच में पड़ती थी, इससे प्रशासनिक कामकाज में आसानी रहती. पर जैसा कि हमने पहले बताया कि दिल्ली बिलकुल भी राजधानी के तौर पर तैयार नहीं थी. ऐसे में दुनिया के मशहूर आर्किटेक्ट (शिल्पकार) एडविन लुटियन और हरबर्ट बेकर को दिल्ली को राजधानी की शक्ल देने का जिम्मा दिया गया. दोनों में गहरी दोस्ती थी और वे लंदन में काफी समय तक साथ-साथ काम कर चुके थे. लुटियंस ने इंग्लैंड में बड़े स्तर पर प्राइवेट और सरकारी घरों के डिजाइन तैयार किए थे. वहीं बेकर ने दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, बेल्जियम और इंग्लैंड में इमारतों पर काम किया था.

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दिल्ली में इन दोनों के लिए सबसे प्रमुख था वॉयसराय हाउस (अब का राष्ट्रपति भवन) और सचिवालय की दो बिल्डिंग (नार्थ और साऊथ ब्लॉक) को बनाना. फरवरी 1913 में ब्रिटिश सरकार का इन दोनों आर्किटेक्ट के साथ एक समझौता हुआ. इसमें कहा गया कि वॉयसराय हाउस एडविन लुटियंस बनाएंगे और सचिवालय के नार्थ और साउथ ब्लॉक को बनाने की जिम्मेदारी हरबर्ट बेकर की होगी. इन्हें इसकी कितनी फीस दी जाएगी ये भी इस समझौते में लिखा था था. कहा गया कि इमारतों को बनाने में जो कुल पैसा लगेगा, उसका पांच परसेंट इन दोनों को दिया जायेगा.

मशहूर आर्किटेक्ट (शिल्पकार) हरबर्ट बेकर और एडविन लुटियन (दाएं)

आपको बता दें कि अब तक की कहानी में संसद भवन के बनने का कोई जिक्र नहीं था, इसकी वजह ये थी कि तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग को संसद भवन बनवाना ही नहीं था. तब विधान परिषद हुआ करती थी. जिसे लेकर हार्डिंग का कहना था कि विधान परिषद में महज एक सदन है और 60 सीटें ही हैं, ऐसे में उनके घर यानी वॉयसराय हाउस में ही विधान परिषद के सदस्यों की मीटिंग के लिए एक हॉल बनवा दिया जाए. आर्किटेक्ट एडविन लुटियंस की परपोती जेन रिडले ने अपनी जीवनी में इस बारे में लिखा भी है. उन्होंने लिखा है कि जब लुटियंस और ब्रिटेन की सरकार में भारतीय सचिव एडविन मोंटेगू ने लॉर्ड हार्डिंग से विधान परिषद के लिए एक अलग भवन का आग्रह किया तो हार्डिंग ने कहा, विधान परिषद की बैठक हर हाल में मेरे ही आवास में होनी चाहिए.'

बाद में क्यों बना संसद भवन?

वॉयसराय हाउस और सचिवालय का निर्माण शुरू हो चुका था. फिर साल 1919 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित हुआ. इसमें विधान परिषद यानी काउंसिल ऑफ स्टेट के साथ-साथ केंद्रीय विधानसभा यानी लेजिस्लेटिव असेंबली बनाने की भी बात कही गई. यानी अब एक नहीं दो सदन हो गए थे. ब्रिटिश सरकार का कहना था कि इसका उद्देश्य देश के प्रांतों में भी सरकार बनवाना है, जिससे सरकार तक ज्यादा लोगों की आवाज पहुंच सके. दोनों सदनों में सदस्यों की कुल संख्या 200 से भी ज्यादा थी. ये संख्या इतनी ज्यादा थी कि ब्रिटिश सरकार को नई काउंसिल हाउस की बिल्डिंग बनवाने के लिए तैयार होना पड़ा. आपको यहां पर ये बता दें कि यही काउंसिल हाउस आजादी के बाद भारत का संसद भवन कहलाया. आगे हम 'संसद भवन' शब्द ही इस्तेमाल करेंगे.

जब संसद बनने में दो पक्के दोस्तों की दोस्ती टूट गई

जब संसद भवन बनने की बात पर मोहर लग गई तो इसका डिजाइन तैयार करने के लिए पहला मौका हरबर्ट बेकर को दिया गया. उनसे तीन चैम्बर वाला भवन डिजाइन करने को कहा गया. पहला चैंबर केंद्रीय विधानसभा सभा के सदस्यों के लिए (जो अब लोकसभा है) , दूसरा विधान परिषद के सदस्यों के लिए (जो अब राज्यसभा है). और तीसरा चैंबर काउंसिल ऑफ प्रिंस के लिए यानी रियासतों के राजकुमारों के लिए.

हरबर्ट बेकर संसद भवन का डिजाइन बनाकर ब्रिटिश सरकार के पास लेकर पहुंचे. ये डिजाइन एक त्रिभुज के आकार का था जिसकी तीनों भुजाएं बराबर थीं. बेकर का सीधा प्लान था कि तीनों कोनों पर तीनों चैंबर बना दिए जायेंगे. इसके बीच में एक हॉल होगा जिसके ऊपर गुंबद होगा. ये हॉल तीनों चैंबर से जुड़ा होगा.

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ब्रिटिश सरकार जब इस डिजाइन पर विचार-विमर्श कर ही रही थी, तभी बेकर और लुटियंस की दोस्ती में खटपट हो गई. जैसा कि हमने आपको पहले बताया कि राष्ट्रपति भवन यानी वॉयसराय हाउस का निर्माण लुटियंस कर रहे थे और नार्थ और साउथ ब्लॉक का निर्माण कर रहे थे बेकर. इन दोनों का झगड़ा समझने के लिए आपको दिल्ली के राजपथ के आसपास का स्ट्रक्चर समझना होगा. आज राजपथ पर जो विजय चौक है वहां से सीधे एक सड़क राष्ट्रपति भवन (तब के वॉयसराय हाउस) को जाती है. इसी सड़क पर पहले एक ओर नार्थ ब्लॉक है और दूसरी ओर साउथ ब्लॉक. लुटियंस और बेकर दोनों की कहासुनी इस बात पर हुई कि लुटियंस चाहते थे कि विजय चौक से उनका बनाया वॉयसराय हाउस पूरी तरह दिखे, जबकि बेकर ने विजय चौक से वॉयसराय हाउस जाने वाली सड़क पर नार्थ और साउथ ब्लॉक से पहले ढलान दे दिया. यानी ये दोनों ब्लॉक ऊंचाई पर बना दिए. इनके ऊंचाई पर होने से वॉयसराय हाउस पूरी तरह नहीं दिखता. विजय चौक से केवल वायसराय हाउस का गुंबद ही नजर आता है. इस बात से लुटियंस बेकर से बहुत ज्यादा नाराज हो गए. उन्हें लगा कि बेकर ने जानबूझ कर उनकी बनाई इमारत के साथ ऐसा किया.

विजय चौक से केवल राष्ट्रपति भवन का गुंबद दिखता है 

लुटियंस ने इस बारे में अपनी पत्नी को एक पत्र में लिखा था-

'मुझे बेकर से बहुत दिक्क्त हो रही है... उसने सचिवालय की इमारतों को ऐसे बनाया है कि तुम कभी भी ग्रेट प्लेस (विजय चौक) से पूरा वॉयसराय हाउस नहीं देख सकोगी. केवल उसका गुंबद ही वहां से दिखेगा.'

लुटियंस ने 4 जुलाई 1922 को एक और लेटर लिखा था, इसे पढ़कर लगता है कि वो सचिवालय की इमारतों के निर्माण से कितना आहत थे. उन्होंने लिखा था-

'मुझे पता है कि इस समय भारत में फाइनेंशियल प्रॉब्लम है, इस वजह से अब निर्माण में हुई किसी गलती को सुधारने के लिए लाखों रुपए खर्च नहीं किए जा सकते. लेकिन इस वजह से गलत निर्माण को लेकर मेरे विचार नहीं बदलेंगे. मुझे विश्वास है कि आगे आने वाली पीढ़ियां इस निर्माण में की गई गलती को महसूस करेंगी और इसे बनाने वाले को कोसेंगी.'

एडविन लुटियंस ने इस लेटर में आगे साफ़ लिखा था कि दिल्ली में हरबर्ट बेकर ने उनके साथ विश्वासघात किया.

लुटियंस के इन आरोपों का जवाब बेकर ने भी दिया था. उनका कहना था कि उन्होंने दिल्ली में सचिवालय की इमारत को वैसे ही बनवाया जैसा ब्रिटिश सरकार ने उनसे कहा था.

लुटियंस के आगे बेकर का डिजाइन क्यों फेल हो गया?

बहरहाल, दो दोस्तों की ये तकरार इतनी बढ़ गई थी कि जब हरबर्ट बेकर के त्रिभुजाकार संसद भवन के डिजाइन के बारे में लुटियंस को पता लगा तो उन्होंने उस डिजाइन का तीखा विरोध किया. कहा कि संसद भवन को त्रिभुजाकार बनाने की क्या जरूरत है. लुटियंस ब्रिटानिया सरकार के पास संसद भवन के लिए अपना डिजाइन लेकर पहुंच गए. बताते हैं कि बेकर का डिजाइन ज्यादा भव्य और लागत वाला था, इसलिए सरकार ने उनका डिजाइन पास नहीं किया. पास हुआ लुटियंस का डिजाइन जो वृत्ताकार था. लुटियंस के डिजाइन पर ही फिर संसद भवन बनकर तैयार हुआ, जिसे हम आज देख रहे हैं. 18 जनवरी 1927 को तब के वॉयसराय लॉर्ड इरविन ने इसका उद्धाटन किया था.

लुटियंस के डिजाइन पर बनी भारत की संसद 

संसद भवन को लेकर कहा ये भी जाता है कि हरबर्ट बेकर का डिजाइन इसलिए फेल किया गया क्योंकि ब्रिटिश सरकार चाहती थी दिल्ली में सबसे बढ़िया इमारत वॉयसराय हाउस दिखे. जो अंग्रेजों की शानो शौकत का प्रतीक बने. और काउंसिल हाउस यानी अब का संसद भवन दूसरे दर्जे की इमारत रहे. लेकिन, इसके बनने के 20 साल बाद ही पासा ऐसा पलटा कि जिस इमारत को उन्होंने कमतर दिखाना चाहा वो भारत की राजनीति का केंद्र बन गई. और देश का भविष्य वहां से लिखा जाने लगा.

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