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तैमूर लंग भारत क्यों आया था? आते ही दिल्ली में कत्लेआम क्यों मचा दिया था

बड़ी बाधाओं के बाद भी तैमूर लंग दिल्ली तक पहुंचा. फिर ऐसा क्या हुआ कि उसने इस शहर में ऐसा कोहराम मचाया कि दिल्ली को पनपने में 100 साल लग गए.

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बड़ी बाधाओं के बाद भी तैमूर दिल्ली तक पहुंचा था केवल एक मकसद को पूरा करने के लिए
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अभय शर्मा
2 नवंबर 2023 (Updated: 2 नवंबर 2023, 12:39 IST)
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अभी दिल्ली पहुंचने में हजार किमी की दूरी बाकी थी. और महीनों का वक्त. रास्ते में बर्फ़ से ढकी चट्टानें, गर्मी से झुलसा देने वाले रेगिस्तान और बंजर जमीनें. रास्ते में एक ही नदी के इतने घुमाओ मिलते कि दिन भर में 40 बार उसे पार करना पड़ता. यहां खाने का एक दाना नहीं उगाया जा सकता था. जो रसद लेकर चले थे, उसी से काम चलाना था. रास्ते ऐसे कि सैनिकों का चलना मुश्किल था. किसी ने पहले रास्ता भी नहीं देखा था, खुद ही बनाना था. जो रास्ते बने, वो भी रपटीले और पथरीले. ऐसे जिन पर पैदल आदमी न चल पाए. सैकड़ों मीटर की ऊंचाई से हजारों घोड़े और सैनिक फिसल-फिसल कर खाईयों में गिर चुके थे. कई सैनिक बीमार हो चुके थे. जिन्हें रास्तों से वापस भेज दिया गया.

रास्ते में बजीरों को कई बार मजबूर होकर बादशाह से कहना पड़ा कि हुजूर आप घोड़े से नीचे उतरिये क्योंकि रास्ता ऐसा नहीं है कि घोड़े पर बैठकर चला जा सके. बादशाह को खुद कई मीलों तक पैदल चलना पड़ा. लेकिन फिर भी उसका इरादा नहीं बदल रहा था, उसे केवल अपना लक्ष्य नजर आ रहा था. एक गुप्तचर ने उसे कुछ रोज पहले ही आकर जो बताया था, उसके बाद से उसके जेहन में लालच भर गया था. सोते-जागते, चलते-फिरते उसे हीरे जवाहरात दिखते थे, दिखता था बड़ा खजाना. और साफ़ कहें तो उसे दिखती थी हिन्दुस्तान की धड़कन कही जाने वाली 'दिल्ली'. दिल्ली की दौलत में ये बादशाह अपना मुस्तकबिल देख रहा था. इसका नाम था तैमूर लंग.

आज कहानी मंगोली शासक तैमूर लंग के भारत पर आक्रमण की. कैसे बड़ी बाधाओं के बाद भी तैमूर दिल्ली तक पहुंचा. फिर कैसे उसने इस शहर में ऐसा कोहराम मचाया कि फिर दिल्ली को फिर से पनपने में 100 साल लग गए.

शुरू से शुरू करते हैं. बात 1398 की है. समरकंद का शासक तैमूर लंग मध्य एशिया से होते हुए ईरान और इराक तक आक्रमण कर लूटमार कर चुका था. वापस लौटते समय जब वो अफगानिस्तान पहुंचा, तभी काबुल में एक गुप्तचर उससे मिलने आया. ये गुप्तचर दिल्ली से लौटा था. उसने बादशाह को बताया कि दिल्ली की हालत ठीक नहीं है. दिल्ली के बादशाह फ़िरोज़ शाह तुगलक की 1388 में मौत होने बाद से वहां की सल्तनत कमजोर नजर आ रही है. फिरोज शाह की मौत के दस सालों के अंदर यहां कई शासक बदल चुके हैं. गद्दी के लिए हत्याएं हो रही हैं. दिल्ली के तुगलक वंश की आंतरिक कलह का फायदा उठाते हुए उसपर हमला किया जा सकता है. मौका अच्छा है. कामयाब हुए तो इतना माल मिलेगा, जो अब तक देखा न होगा.

हिंदुस्तान उन दिनों काफ़ी अमीर देश माना जाता था. सोने की चिड़िया कहते थे इसे. दिल्ली की दौलत के बारे में तैमूर ने भी काफी कुछ सुन रखा था. ऐसे में उसने गुप्तचर की बात सुनते ही वापस लौटने का इरादा बदल दिया. अब उसने अपने सिपहसालारों को बुलाया, उन्हें दिल्ली की स्थिति के बारे में बताया. कहा ये अच्छा मौका है दिल्ली को लूटने का.

इस मीटिंग में उसके कुछ वजीरों का कहना था,

'लेकिन, हुजूर कुछ और बातें हैं जिनपर ध्यान दीजिये. दिल्ली के बादशाह नसीरुद्दीन महमूद शाह के पास हाथियों की एक बड़ी फ़ौज भी है, जिससे बड़ी-बड़ी सेनाएं कांपती हैं. सुना है कि उसके सामने कोई टिक नहीं पाता है. साथ ही साथ दिल्ली की फ़ौज भी काफ़ी बड़ी है. हमारा मानना है कि एक बार अच्छे से सोच लिया जाए, फिर कोई निर्णय हो.'

दिल्ली के बादशाह के हाथियों की फ़ौज के बारे में तैमूरलंग ने भी सुन रखा था. इस बारे में उसने अपनी आत्मकथा में लिखा भी,

"समरकंद में ही मैंने भारतीय हाथियों के बारे में कहानियां सुनीं थीं. उनके चारों बख्तर लगा होता था और कहा जाता था कि हाथी के बाहरी दांतों में जहर लगा दिया जाता था, जिनको वो लोगों के पेट में घुसा देते थे. इन हाथियों पर तीरों और भालों का कोई असर नहीं होता था. ये हाथी सूंड में किसी को भी लपेट कर कुचल दिया करते थे. पेड़ तक उखाड़ दिया करते थे. सामने वाली सेना हाथियों के आगे फेल हो जाती थी."

जब तैमूर लंग ने दिल्ली जाने का फैसला किया

तैमूर लंग को जब मीटिंग में वजीरों ने दिल्ली के हाथियों वाली बात बताई तो कुछ देर को वो भी सोच में पड़ गया. उसने कुछ दिन का समय लिया और कुछ रोज बाद फिर अपने सिपहसलारों को बुलाया. कहा- 'देखो कुछ महीनों की ही बात है, अगर जीत गए तो बढ़िया और अगर ज्यादा परेशानी आई तो वापस आ जाएंगे. एक चांस लेने में क्या ही दिक्कत है.'

ये अगस्त का महीना था. तैमूरलंग की फ़ौज दिल्ली कूच करने के लिए तैयार हो गई. लेकिन, तैमूर के सामने दिल्ली जीतने से बड़ी चुनौती दिल्ली तक पहुंचने की थी. उसके पास करीब एक लाख सैनिक थे और इसकी दुगनी संख्या में घोड़े. इन घोड़ों पर राशन लदा हुआ था. तकरीबन 1000 हजार किमी का रास्ता तय करना था.

मशहूर इतिहासकार जस्टिन मोरज्जी ने अपनी किताब 'तामेरलेन' में इसके बारे में काफी कुछ लिखा है. वो लिखते हैं कि भले ही तैमूर की सेना को लड़ने का जबरदस्त अनुभव था, लेकिन दिल्ली तक आने के लिए जैसे रास्तों से उन्हें गुजरना था, उनपर चलने का अनुभव उन्हें नहीं था. आगे लिखते हैं कि कोई भी और सेना होती तो हार मान जाती और आधे रास्ते से वापस लौट जाती, लेकिन तैमूर लंग मरते घोड़ों और सैनिकों को देखकर भी पीछे नहीं हटा. वो लंगड़ा था और उसे कई बार पैदल भी चलना पड़ा, लेकिन उसने इरादा नहीं बदला.

दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश के अधीन क्षेत्र, 1330-1335 ई

तमाम परेशानियों झेलने और तकरीबन तीन महीने बाद वो सिंधु नदी तक आ पहुंचा. उधर, दिल्ली में इस खबर से हड़कंप मच गया था. यहां के बादशाह नसीरुद्दीन महमूद शाह आपसी कलेश के चलते वैसे भी डरे रहते थे. ऐसे में दिल्ली में असली हुक्म मल्लू इक़बाल ख़ाँ और सारंग ख़ाँ का चलता था, ये दोनों बादशाह के वज़ीर थे. जब तैमूर लंग सिंधु नदी पर आकर रुका, तो यहां सारंग ख़ाँ ने उसे आगे बढ़ने से रोका, लेकिन तैमूर ने उसकी सेना को कुछ घंटों में कुचल दिया और आगे बढ़ चला. अब मंगोलों की फ़ौज सिंधु नदी पार करके हिंदुस्तान में घुस चुकी थी. बहुत तेजी से ये दिल्ली की ओर बढ़ रही थी. जो भी रास्ते में विरोध करता उसे कुचल दिया जाता. दिल्ली तक पहुंचते-पहुंचते तैमूर ने करीब एक लाख हिंदू लोगों को बंदी बना लिया था. जिन्हें कुछ रोज बाद ही मारने का आदेश दे दिया. उसे डर था कि कहीं ये युद्ध के दौरान ऐसा न हो कि ये बंदी उत्साहित होकर दिल्ली के सैनिकों के मददगार बन जाएं. इसलिए उसने एक-एक बंदी को मरवा दिया.

दिल्ली के पास जब तैमूर का काफिला पहुंचा तो उसने दिल्ली की सीमा से सटे लोनी में अपना शिविर लगाया. इधर दिल्ली का बादशाह महमूद शाह परेशान थे, उन्हें पता था कि उनके पास तैमूर की सेना का मुकाबला करने के लिए सैनिक काफी कम हैं. आंतरिक कलह के चलते कई बार दिल्ली के सेना में बगावत हो चुकी थी, सैनिक भी अलग अलग गुटों में बंटे हुए थे. बादशाह के पास तकरीबन 10 हजार घोड़े, 40 हज़ार सैनिक और करीब डेढ़ सौ हाथी थे. उनके सैनिकों और घोड़ों की संख्या काफी कम थी, तैमूर की सेना के सामने. लेकिन बादशाह और उसके खासम खास बजीर को मल्लू इकबाल खान को अपने हाथियों की फ़ौज पर भरोसा था. ये फ़ौज ही उनकी रही सही हिम्मत बांधे हुई थी.

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जब मल्लू खां का प्लान फेल हो गया

इसी दौरान मल्लू खां ने एक प्लान बनाया. प्लान था कि अचानक तैमूर लंग के शिविर पर हमला किया जाएगा. हो सकता है कि इससे घबराकर वो वापस भाग जाए. लेकिन, शायद दिल्ली के बादशाह और उनके वजीर ये भूल गए कि तैमूर लंग ने यूहीं एक के बाद एक देश फतह नहीं किए थे. उसके लिए कहा जाता था कि वो हमेशा अपने दुश्मन की चाल से एक कदम आगे रहता था.

मल्लू खां के हमले का प्लान तैयार था. लेकिन इससे दो रात पहले ही तैमूर लंग के सैनिकों ने दिल्ली के शाही असलाहख़ाने में तैनात एक सैनिक का अपहरण कर लिया. सैनिक को पीटा गया तो उसने मल्लू खां का सारा प्लान उगल दिया. दो रोज बाद जब मल्लू खां के सैनिकों ने तैमूर के शिविर पर हमला किया, तो उन्हें उल्टे पांव वापस भागना पड़ा.

हाथियों से निपटने का तैमूर लंग का प्लान

अब ये तय हो चुका था कि एक बड़ा युद्ध होकर रहेगा. दोनों तरफ से तैयारी शुरू हुई. 17 दिसंबर, 1398 को मल्लू खां और बादशाह महमूद शाह की सेना तैमूर लंग की सेना से लड़ने दिल्ली गेट से बाहर निकली. उन्होंने हाथियों को बीच में रखा, जो उनकी सबसे बड़ी ताकत थे. उन पर हथियारों से लैस सैनिक सवार थे. लड़ाई में तैमूर की सेना भारी पड़ने लगी लेकिन जब दिल्ली के हाथी आगे आए, मंगोली सेना कुचली जाने लगी. दिल्ली के बादशाह महमूद शाह और वजीर मल्लू खां ये देखकर बेहद खुश थे.

लेकिन जैसा कि उस समय कहा जाता था कि तैमूर लंग की हर चाल सामने वाले से एक कदम आगे की होती थी. यहाँ भी थी. तैमूर ने हाथियों से निपटने का प्लान पहले ही तैयार कर लिया था.

जस्टिन मोरज़्ज़ी अपनी बुक में लिखते हैं,

‘तैमूर लिंग ने बैलों और ऊंटों के ऊपर लकड़ी और सूखी घास लदवा दी थी. और युद्ध के दौरान जहाँ इन्हें खड़ा किया गया उसके पीछे बड़े-बड़े गड्ढे खुदवा दिए. युद्ध में जब दिल्ली की सेना के हाथी आगे आने लगे, तो तैमूर ने अपने सैनिकों से ऊंटों और बैलों पर रखी घास में आग लगाने को कहा. जलती आग के साथ ऊंट जब आगे बढे तो हाथी डर कर उलटे भागने लगे. आगे जाते तो गड्ढे में गिरते. इसलिए वो उलटे भागे, अब वो अपने ही सैनिकों पर चढ़ने लगे थे, उन्हें कुचलने लगे थे. दिल्ली के सैनिकों में इससे हड़कंप मच गया. दिल्ली की हार निश्चित हो गई और कुछ घंटों में तैमूर ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया. दिल्ली के बादशाह महमूद शाह और उनके वजीर मल्लू खां दिल्ली छोड़कर जंगलों में भाग गए .’

जब मंगोली सैनिकों ने दिल्ली के लोगों पर कहर ढाया

इसके बाद दिल्ली में मंगोली सैनिकों ने जश्न मनाया. इस दौरान औरतों को छेड़ने लगे. वो गली-गली लोगों का रुपया पैसा और अनाज लूटने लगे. ये देख दिल्ली के लोगों ने तीखा विरोध किया. सड़कों पर जमकर खून खराबा हुआ. बताते हैं कि जब दिल्ली के लोगों के विरोध की बात तैमूर लंग को पता चली तो उसने दिल्ली के सभी हिंदुओं को ढूंढ-ढूंढ कर क़त्ल करने का आदेश दे दिया. अगले चार दिन में सारा शहर ख़ून से रंग गया.

इतिहासकार जस्टिन मोरज़्ज़ी लिखते हैं कि तैमूर के सैनिकों को दिल्ली में लूटपाट करने और लोगों को मारने की खुली छूट थी. बड़ी संख्या में लोगों ने बचने के लिए एक मस्जिद में शरण ली, उन्हें लगा कि मंगोली सैनिक यहां नहीं आएंगे. लेकिन सैनिकों ने यहां छिपे एक-एक व्यक्ति को मार दिया. मोरज़्ज़ी के मुताबिक उन्होंने उनके काटे हुए सिरों का ऊंचा ढ़ेर सा लगा दिया.

बताते हैं कि इस बीच तैमूर लंग दिल्ली में केवल 15 दिन रहा. और इस दौरान उसके वजीरों और सैनिकों ने दिल्ली को बड़ी बेरहमी से लूटा. फसलों को तबाह किया. ऐसा हाल किया कि दिल्ली 100 साल बाद उभर पाई. इतिहासकारों कि मानें तो दिल्ली उजड़े या बर्बाद हो जाए, तैमूरलंग को इससे मतलब नहीं था, क्योंकि उसे दिल्ली पर शासन करना ही नहीं था, वो दिल्ली केवल और केवल एक मकसद से आया था, वो था उसे लूटने का. उसने अपना यही मकसद पूरा किया और फिर तुरंत समरकंद के लिए वापस निकल गया.

चलते-चलते एक और बात. तैमूर लंग चंगेज खान के लगभग सौ साल बाद पैदा हुआ था. इतिहासकारों की मानें तो उसने हमेशा ही खुद को चंगेज खान से जोड़ना चाहा. लेकिन, उसने चंगेज से सिर्फ उसकी क्रूरता सीखी, शासन करना नहीं. तैमूर कभी कोई लड़ाई नहीं हारा. लेकिन फिर भी वो कभी चंगेज खान जैसा रुतबा हासिल नहीं कर पाया. क्योंकि युद्ध लड़ने के पीछे का उसका मकसद दुनिया को लूटना और बर्बाद करना ही था. वो जिंदगी भर चंगेज खान की नकल करता रहा, पर कभी इतनी सी बात नहीं सीख पाया कि बड़े से बड़े राजा को अंततः उसके अपने शासन के लिए ही जाना जाता है. और इसलिए वो केवल एक आक्रांता ही बनकर रह गया.

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